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ये भारत की जनता है जो अपने जनप्रतिनिधियों को चुनती है।

गालीबाज और गैर जवाबदेह लोगों को क्यों सौंपी जा रही सत्ता?

मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकती हूँ लेकिन आज के दौर की राजनीति और उससे उपज रही नागरिक प्रतिक्रिया यही संदेश दे रही है कि भारत में ‘राजनैतिक समझ’, और ‘अधिकार चेतना’ अपने निम्न स्तर पर है। 

भारत के नागरिक, नेताओं को लेकर अपनी समझ के निम्नतम दौर में हैं। एक बड़े नेता की पहचान करने के तरीक़े ‘एलियन’ का रूप धारण कर चुके हैं। एक ‘बड़े नेता’ की पहचान उसके पीछे चलने वाले तेज और बेक़ाबू कारों के शोर मचाते हुए क़ाफ़िले की लंबाई से तय की जाती है। ये काफिले अपनी लंबाई के हिसाब से नागरिक सुविधाओं को ध्वस्त करते हुए चलते हैं। जितना बड़ा नेता होगा उसका काफिला उतना ही बड़ा होगा, और उतनी ही ज्यादा देर के लिए लगातार चलने वाले शहर को रोक दिया जाएगा, आम जनमानस और जरुरतमन्द लोगों को तो छोड़ ही दीजिए ‘एम्बुलेंस’ में लेटा और मौत से हर पल लड़ता हुआ रोगी भी बड़े नेता के काफिले के गुजरने के इंतजार में पड़ा रहता है। 

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पहचान का एक हिस्सा उसके ‘बाहुबली’, स्वभाव पर भी आधारित होता है। जहां पंडित नेहरू जैसे नेताओं की पहचान उनके संसद में उपस्थित रहने, विपक्षी नेताओं की आलोचना सामने बैठकर सुनने और उसका संसदीय तरीक़े से जवाब देने और अपनी ही आलोचना करने पर, विपक्षी नेताओं को बाद में शाबाशी देने से थी; वहीं आज के शीर्ष नेताओं की पहचान संसद से अपनी अनुपस्थिति, संसद के बाहर मनपसंद और सहूलियत भरे मंचों पर पहुँचकर जवाब देने से हो रही है। 

कोई भी कह सकता है कि भारत का लोकतंत्र ढलान पर है और तेजी से नीचे की ओर जा रहा है।


हाल में संसद की सुरक्षा में हुई चूक का ही उदाहरण ले लिया जाए। यह 13 दिसंबर के दिन हुआ। इस दिन 22 साल पहले 2001 में तत्कालीन अटल बिहारी सरकार के काल में भारत की संसद पर हमला किया गया था। इस हमले में 8 जवान और एक माली समेत 9 लोग शहीद हो गए थे। संसद की सुरक्षा किसी दल या व्यक्ति का नहीं बल्कि राष्ट्र का मुद्दा है। बीते 13 दिसंबर को हुई सुरक्षा चूक पर सरकार को जवाब देना चाहिए था। विपक्ष के सांसद भारत के गृहमंत्री अमित शाह से इस मुद्दे पर संसद में जवाब देने की मांग कर रहे थे। इसलिए लगातार संसद स्थगित होती रही। जब सांसदों की वैध मांग का शोर सरकार को परेशान करने लगा तो 14 सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया। इसमें एक सांसद राज्यसभा से और बाकि 13 सांसद लोकसभा से थे। 
इतने सबके बावजूद गृहमंत्री संसद में इस संबंध में जवाब देने नहीं आए। गृहमंत्री को भारत की संसद से ज्यादा सुरक्षित स्थान एक न्यूज चैनल का स्टूडियो लगा, जहां जाकर उन्होंने इस मुद्दे पर जवाब दिया। वह जवाब क्या था इसे यहाँ लिखने की भी जरूरत नहीं है। भारत के लोगों से संसद बनी है, भारत के लोगों ने उन्हे प्रतिनिधि बनाकर संसद में भेजा है, भारत के लोगों ने ही उन्हे इतना बड़ा बहुमत दिया है, तब फिर उन्होंने भारत के लोगों से बनी संस्था संसद में न बोलकर, एक प्राइवेट चैनल पर बोलने को क्यों और कैसे चुना, मुझे नहीं पता! यह जवाब उन्ही से लिया जाना चाहिए।
मुझे बस इतना समझ आता है कि संसद अभी मृत नहीं हुई है वहाँ सवाल पूछने वाले लोग भरे पड़े हैं इसलिए गृहमंत्री को आलोचना सुननी पड़ जाती, शोर सुनना पड़ जाता, विरोध देखना पड़ जाता जबकि यह सब उन्हे मीडिया के सामने नहीं सहना पड़ा क्योंकि लोकतंत्र का यह हिस्सा जहां वो जाकर बैठे थे वह नागरिक चेतना से शून्य और मृतअवस्था में पहुँच चुका है। मीडिया से सरकार को अब प्रतिरोध नहीं सुनने को मिलता, आलोचना नहीं सुनाई देती। यदि कुछ सुनाई पड़ती है तो सिर्फ प्रशंसा और इससे प्राप्त होती अनंत आत्ममुग्धता।

विपक्ष कहता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर संसद में दिखाई नहीं देते, महत्वपूर्ण मुद्दों पर संसद में जवाब नहीं देते। प्रधानमंत्री से अडानी के मुद्दे पर कितनी बार जवाब माँगा गया लेकिन पीएम मोदी जवाब देने नहीं आए। गृहमंत्री जिनका काम है देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को देखना वो संसद की सुरक्षा में हुई चूक पर कोई जवाब देना ठीक नहीं समझते। जबकि संसद में जवाब देना पीएम समेत तमाम मंत्रियों का कर्त्तव्य है और संसदीय परंपरा भी। शीर्ष नेताओं द्वारा अपनी सहूलियत से जवाब दिए जाने की परंपरा बनाई जा रही है, यह कैसा नेतृत्व है?
कारवां पत्रिका में लेखक और पत्रकार धीरेन्द्र कुमार झा ने यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ के एक बयान का जिक्र किया है जिसमें आदित्यनाथ एक सभा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि “एक हिन्दू के खून के बदले आने वाले समय में हम प्रशासन से FIR दर्ज नहीं करवाएंगे..बल्कि कम से कम 10 ऐसे लोगों की हत्या उससे करवाएंगे”। यह भाषण वर्ष 2007 का है जिसके बाद उन पर FIR हुई, और वो 11 दिनों तक जेल में भी रहे। धीरेन्द्र झा लिखते हैं कि इसके बाद सामने स्थित एक होटल को लूट लिया गया जिसका मालिक एक मुसलमान था। यह सारा वाकया झा ने एक पत्रकार परवाज़ परवेज़ के एक वीडियो और आदित्यनाथ के एक सहयोगी के हवाले से लिखा है। 
2017 में आदित्यनाथ यूपी के सीएम बने और 2018 में अपने ऊपर से स्वयं उन्ही की सरकार ने मुकदमा वापस ले लिया। इसके लिए यूपी सरकार ने कहा कि सेंट्रल फोरेंसिक लैब ने इस बयान की सीडी को 2014 में ‘टेंपर्ड’ घोषित कर दिया था। परवाज़ इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए थे वहाँ से भी यह मामला अब खारिज हो चुका है और लेकिन परवाज़ को एक अन्य मामले में आजीवन कारावास की सजा हो गई। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने ‘अभियोजन की मंजूरी से इंकार’ के मामले को तय नहीं किया था और कहा था कि इस पर बात और बहस हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पहले से उपलब्ध सीडी की जांच को अंतिम मान लिया, दोबारा जांच नहीं कारवाई गई। यह कानून का राज है या इत्तेफाक का, कोई कैसे बता सकता है? लेकिन अगर धीरेन्द्र झा की इस रिपोर्ट में तनिक भी सच्चाई है तो क्या ऐसे व्यक्ति को एक राज्य का मुखिया बनाया जाना चाहिए था?
मध्यप्रदेश का नया मुख्यमंत्री मोहन लाल यादव को बनाया गया है। दक्षिण उज्जैन से विधायक मोहन लाल यादव को मध्य प्रदेश का मुखिया बना दिया गया है। अब से एमपी को मोहन लाल जी चलाएंगे। चुनाव के दौरान उनका एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें अपने विपक्षी दल काँग्रेस के बारे में उनकी टिप्पणी सुनने लायक है, वो कहते हैं कि “जहां से आए हो वहीं गाड़ देंगे” “तुम्हारा पता नहीं लगेगा कहाँ से आए हो”। यादव जी आगे कहते हैं “..तुम्हारे बाप ने दूध पिलाया है, तुम्हारी औकात क्या है”। एक अन्य वीडियो में उन्हे कहते हुए सुना जा सकता है कि ''मैं अच्छे लोगों के लिए अच्छा हूं और बुरे लोगों के लिए बुरा हूं।''  वायरल वीडियो में वह धमकी देते हुए नजर आ रहे हैं, ''अगर कोई हमारे साथ गलत करेगा तो हम ऐसे लोगों को जमीन में दफना देंगे।'' एक जगह तो वो अपने कार्यकर्ताओं के साथ झगड़े के बीच ऐसी गालियां देने लगते हैं जिन्हे लिखना भी असंभव है। उन्होंने ऐसी भाषा को क्यों चुना जबकि वो तो शिवराज सरकार में प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री थे?

प्रश्न यह है कि ऐसी भाषा के बावजूद उन्हे एक प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया। उनके विचार कहीं से भी संसदीय लोकतंत्र के प्रति उनकी आस्था को प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं। उन्हे इतनी छोटी सी बात समझ नहीं आयी कि मंत्री होने के नाते उनका काम है कानून के शासन को सुनिश्चित करना न कि किसी को जमीन पर गाड़ना।
ऐसे ही एक वायरल वीडियो में छत्तीसगढ़ के नए सीएम बिष्णुदेव साय फोन पर जनता के सामने एक अधिकारी को भद्दी-भद्दी गालियां दे रहे हैं। एक जनसेवक जनता के लिए अधिकारी से लड़ सकता है, उसके सामने जनता के मुद्दों को मुखरता से उठा सकता है, इसमें कोई समस्या नहीं है लेकिन किसी को भरे समाज में भद्दी गालियां देना कैसे उचित माना जाएगा? ऐसे व्यक्ति को प्रदेश कैसे सौंपा जा सकता है?

इसके बावजूद अगर ऐसे लोगों को प्रदेश सौंपे जा रहे हैं, उन्हे मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है, उनकी अभद्रता और गालियों को एक पार्टी द्वारा नजरंदाज किया जा रहा है तो यह पार्टी का मसला है उसकी नैतिक चेतना का मसला है उसके संस्कार और उद्भव व विकास से जुड़ा हुआ मसला है यह उन्हे देखना है। लेकिन नागरिक के तौर पर भारत को यह तय करना है कि वो कैसा नेतृत्व चाहता है, यदि वो ऐसी गालियां और भाषा वाले व्यक्तियों और दलों को स्वीकारता है तो इसका मतलब साफ है कि उसने अपने घरों और परिवारों में भी ऐसी ही भाषा को स्वीकारने का मन बना लिया है। 

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एक गैर जवाबदेह व्यक्ति को गृहमंत्री और अभद्र भाषा वाले व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाए जाने को सहजता से स्वीकार कर लेने का अर्थ है कि भारत की अधिकांश आबादी ने गाली और गैरजवाबदेही को एक पारिवारिक मूल्य के रूप में भी स्वीकार कर लिया है। यदि ऐसा नहीं है और आज भी भारत संभ्रांत परिवारों का बसेरा है तो इन बसेरों को यह ‘संदेश’ देना चाहिए कि किसी एक व्यक्ति या विचार को वो इतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं मान सकते कि उसके लिए हजारों वर्षों की ‘सभ्य’ परंपराओं को सड़क में गिद्धों के लिए बिखेर दें। भारत को लोकतान्त्रिक प्रतिक्रिया देनी ही चाहिए अन्यथा गालियों को परिवारों में सदस्य के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। क्या भारत के लोग ऐसा करेंगे?  

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वंदिता मिश्रा
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