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क्या उग्र पितृसत्ता और संसदीय दमन का शिकार हुई हैं महुआ?

एक लोकसभा सांसद जो लगभग 17 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करती है, जिसके संसदीय क्षेत्र में लगभग 23% मतदाता अनुसूचित जाति से संबंधित हैं, जहां लगभग 36% मतदाता अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जहां की लगभग 88% मतदाता आबादी ग्रामीण है वहाँ की जनप्रतिनिधि और तृणमूल काँग्रेस से लोकसभा सदस्य, महुआ मोइत्रा की सदस्यता मात्र ‘ध्वनि-मत’ का इस्तेमाल करते हुए खत्म कर दी गई। 

महुआ पर आरोप था कि उन्होंने ‘पैसे लेकर संसद में प्रश्न पूछे’ और संसद से मिला अपना लॉग-इन और पासवर्ड एक  उद्योगपति दर्शन हीरानन्दानी के साथ शेयर किया। इन आरोपों की जांच के लिए लोकसभा अध्यक्ष ने मामला संसद की एथिक्स कमेटी को भेजा। कमेटी के अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी के सांसद विनोद सोनकर हैं, कमेटी में सत्ताधारी दल व उसके सहयोगियों का बहुमत था। इतना सब होने के बाद फैसला भी वही आया जिसकी आशा महुआ मोइत्रा ने की थी। कमेटी ने महुआ को दोषी माना और उन पर कठोर कार्यवाही की अनुशंसा करते हुए कहा कि महुआ की सदस्यता रद्द कर दी जाए। 

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जब कमेटी की रिपोर्ट लोकसभा अध्यक्ष के समक्ष आई तो आशा थी कि संवैधानिक पद पर आसीन अध्यक्ष अपने सदन के सदस्य के साथ पूरा न्याय करेंगे लेकिन इसका उल्टा हुआ। महुआ पर लगे आरोपों पर कोई बहस नहीं की गई, उन्हे संसद में अपनी सफाई में कुछ भी कहने की अनुमति नहीं प्रदान की गई, उन्हे दर्शन हीरानन्दानी जिसने उनपर इतना बड़ा आरोप लगाया था, उससे जिरह तक करने की अनुमति प्रदान नहीं की गई। जिस ‘कैश के बदले सवाल पूछने’ की बात कही गई उसे कभी पकड़ा नहीं गया, उसका कभी कोई सबूत नहीं मिला। पासवर्ड को लेकर लोकसभा की नियमावली में कोई नियम उपलब्ध नहीं हैं। इसके बावजूद लोकसभा अध्यक्ष ने ध्वनि-मत का सहारा लेकर महुआ को लोकसभा से बर्खास्त कर दिया। 

यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि ध्वनि-मत में आवाज के आधार पर फैसला दिया जाता है, सत्ता पक्ष के ज्यादा सांसद हैं इसलिए आवाज भी उन्ही की ज्यादा होनी थी। एथिक्स कमेटी और अध्यक्ष की कार्यवाही का DNA सत्ता पक्ष की ओर झुका हुआ देखा जा सकता है। इस झुकाव का सहज परिणाम ही था जिसने महुआ मोइत्रा की सदस्यता को लील लिया।


मुझे न चाहते हुए भी कहना पड़ रहा है कि सबकुछ ऐसे चल रहा था मानो सब पहले से ही तय हो। प्रधानमंत्री के गुजरात के समय से मित्र रहे गौतम अडानी, के खिलाफ महुआ सबसे ज्यादा मुखर नेताओं में से हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री और गौतम अडानी के बीच के रिश्ते और गौतम अडानी के भ्रष्टाचार के बीच संबंध खोज निकाले थे। वो लगातार प्रश्न पूछ रही थीं, वो लगातार प्रधानमंत्री से यह सवाल पूछ रही थीं कि आखिर क्यों गौतम अडानी के भ्रष्टाचार की जांच नहीं हो रही है? उनका साफ आरोप था कि गौतम अडानी को सरकार द्वारा बचाया जा रहा है। इन्फ्रास्ट्रक्चर, एनर्जी और पोर्ट बिजनेस को लेकर हीरानन्दानी और अडानी समूह के बीच प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर है। हीरानंदानी समूह ने साल 2014 में धामरा पोर्ट के लिए बोली लगाई थी, वह पोर्ट भी अडानी को दे दिया गया। प्रतिद्वंद्विता के ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। इनमें से ज्यादातर में लाभ गौतम अडानी को ही हुआ है। ऐसे ही आरोप गौतम अडानी पर कॉंग्रेस नेता राहुल गाँधी ने भी संसद में खुलकर लगाए थे। उनकी भी लोकसभा सदस्यता को खत्म करने की कोशिश की गई। अंततः उनकी सदस्यता भारत के संवैधानिक न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट में ही जाकर बच सकी। 

संदिग्ध कानूनों और नियमों की आड़ में 17 लाख से भी अधिक और 88% ग्रामीण मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली जन प्रतिनिधि की संसद सदस्यता समाप्त कर दी जाती है, क्या इसे दमन नहीं कहा जाना चाहिए? चूंकि यह सब संसदीय व्यवस्था और संसद की नियमावली की आड़ में हो रहा है तो क्या इसे संसदीय दमन नहीं कहा जा सकता?


संसद के कानून विपक्ष के सदस्यों की ओर तीर फेंक रहे हैं और सत्ता पक्ष के सांसदों को पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया जा रहा है। जिस विषय पर लोकसभा नियमावली स्वयं ‘भ्रम’ में हैं उस पर सर्वाधिक कठोर सजा का निर्णय ले लिया गया। लेकिन जिस विषय पर संसद की नियमावली, भारतीय समाज, भारत के परिवार और हर सभ्य व्यक्ति बिल्कुल एक जैसी राय रखता है उस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया। यह मामला है बसपा सांसद दानिश अली का। दानिश अली को भाजपा सांसद रमेश विधूड़ी ने लोकसभा के अंदर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जो हम यहाँ लिख भी नहीं सकते और ‘बाहर देख लूँगा’ जैसी धमकी दे डाली लेकिन लोकसभा नियमावली के किसी पन्ने में नमी तक नहीं देखी जा सकी, लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी ने अपने संसद सदस्य की गरिमा की रक्षा करने के लिए कुछ नहीं किया, दानिश अली को खुलेआम धमकी दी गई लेकिन अध्यक्ष की कुर्सी ने खामोशी बनाए रखी। ऐसा क्यों किया गया? 

मुझे नहीं पता लेकिन इतना जरूर पता है कि रमेश विधूड़ी बीजेपी के सांसद हैं और इसलिए उन पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती वरना उनके इस कृत्य के लिए उन पर मुक़द्दमा और जेल के साथ-साथ संसद सदस्यता से उनकी बर्खास्तगी होनी चाहिए थी। आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा को अपने बर्ताव के लिए माफी मांगनी पड़ गई लेकिन रमेश विधूड़ी के लिए न ही संसद के कोई नियम हैं और न ही उसकी कोई गरिमा। नागरिक के तौर पर किसी संस्थान के इस गिरते हुए स्तर पर बोलना मेरा हक भी है और दायित्व भी, अब इसमें यदि अवमानना होती है तो उसकी सजा भी स्वीकार कर ली जाएगी।
महुआ मोइत्रा की बर्खास्तगी को सिर्फ एक संसद सदस्य के तौर पर देखा जाना अन्याय होगा। 17वीं लोकसभा में कुल 78 महिला सांसद चुनकर पहुंची। इनमें से मात्र 37 ऐसी सांसद हैं जो सत्ताधारी दल, भारतीय जनता पार्टी से संबंधित नहीं हैं। मतलब 542 कुल सांसदों के बीच ये 37 महिला आवाजें हैं जो सत्ता के खिलाफ बोलती हैं। इन 37 में से 10 से भी कम सांसद होंगी जो सत्ता से आँख से आँख मिलाकर बात करती हैं। महुआ इन्ही में से एक हैं। वो एक ऐसी महिला सांसद हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री से सीधे सवाल किये और बार-बार किए। सवाल इतने अधिक बार किए गए कि अब वो चुभने लगीं। महुआ के आरोपों से असहज पार्टी बीजेपी के सांसद, निशिकांत दुबे ने महुआ के खिलाफ बोलने की शुरुआत की, ये वही निशिकांत दुबे हैं जिन्होंने काँग्रेस नेता अल्का लांबा के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर अभद्र टिप्पणियाँ की थीं। महुआ पर आरोप लगाए गए। उनके पूर्व प्रेमी का सहारा लिया गया, उन्हे बदनाम करने की कोशिश की गई और संस्था के रूप में लोकसभा की कमजोर स्थिति ने कृष्णानगर लोकसभा क्षेत्र के लाखों मतदाताओं के विश्वास को धूल में मिला दिया। 

सपा अध्‍यक्ष अखिलेश यादव ने महुआ के निष्कासन पर चिंता जताई और ‘एक्स’ पर लिखा कि "….जिन आधारों पर सांसदों की सदस्यता ली जा रही है, अगर वो आधार सत्तापक्ष पर लागू हो जाएं तो शायद उनका एक दो सासंद-विधायक ही सदन में बचेगा...।" एक विधायक, पूर्व सांसद, देश के सबसे बड़े राज्य का पूर्व मुख्यमंत्री जब यह बात कह सकता है कि यह आधार ही अनुचित है तब यह बात सहज ही समझी जा सकती है कि महुआ का निष्कासन एक संदिग्ध नियम की आड़ में सत्ता विरोधी, एक मुखर महिला आवाज को आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर चुप कराना मात्र है।
कुछ लोग तर्क के आधार पर महुआ के निष्कासन को वैध साबित करना चाह रहे हैं। यद्यपि तर्क एक आवश्यक शर्त है लेकिन ज़रूरी नहीं कि ‘तर्क का इकोसिस्टम’ न्याय को सुनिश्चित कर दे। तर्क का बदला हुआ रूप भी तर्क बन जाता है और सत्य को नुक़सान पहुँचा जाता है। इस नुकसान की भरपाई में दशकों लग जाते हैं और जो ज़रूरी होता है वह पीछे छूट जाता है जबकि अन्यायकारी व्यवस्था अपना वर्चस्व बनाकर बैठ जाती है। मुझे लगता है कि अक्सर अन्याय के धरातल,‘तर्क में विचलन’ पैदा करके ही तैयार किए जाते हैं। तर्क और तर्क में विचलन एक जैसे लग सकते हैं लेकिन होते नहीं। यह कुछ अरहर और खेसारी जैसी मिसाल है जो देखने में तो एक से लग सकते हैं लेकिन परिणाम आकाशीय रूप से विपरीत हैं।एक स्वास्थ्य है, सुरक्षा है तो दूसरी बीमारी है, मौत है। एक चुने हुए प्रतिनिधि को न निकालने के तरीके खोजने चाहिए उसे बर्खास्त करने के उपाय खोजना असंसदीय है, अलोकतांत्रिक है, मनमाना है और प्रतिगामी है। 

महुआ मोइत्रा का निष्कासन सिर्फ संसदीय दमन का हिस्सा भर नहीं है बल्कि यह भारत के कोने कोने में व्याप्त पितृ-सत्ता की उग्रता की भी कहानी है। एक इंसान जो कभी महुआ के साथ प्रेम में था, संबंध टूटने के बाद अपने ही प्रेम के खिलाफ पत्र लिख डालता है, एथिक्स कमेटी के सामने ‘आम नागरिक’ के रूप में भी पेश हो जाता है और जिससे कभी प्रेम की बातें की होंगी, जिससे कभी वादे किए होंगे, जिससे अपनी बातें साझा की होंगी उसी को खत्म करने के लिए तथाकथित ‘सबूतों’ को लेकर या खुद सबूत बनकर राजनैतिक विरोधियों से मिल जाता है। यह इंसान सर्वोच्च न्यायालय में वकील है और इसी के पत्रों के आधार पर भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने महुआ मोइत्रा पर आरोप लगाए थे।
महुआ कहती हैं कि वो संसद से बाहर निकली हैं देश से नहीं। वो कहती हैं कि आने वाले 30 सालों तक वो भाजपा और उनकी विचारधारा से लड़ती रहेंगी और उनके अंत को अपने सामने ही सुनिश्चित करेंगी। कोई व्यक्ति महुआ के बारे में राय बनाने के लिए उनके कपड़ों, चश्मों और स्टाइल का सहारा ले सकता है लेकिन मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि इन आधारों पर महुआ जैसी महिलाओं के बारे में राय बनाना असंभव है। महुआ जिस क्षेत्र से संसद सदस्य हैं वहाँ सिर्फ 12% आबादी ही शहरी है शेष मतदाता ग्रामीण हैं। एक लाख से भी अधिक वोटों से अपनी जीत हासिल करने वाली महुआ को ग्रामीण जनता ने अपना माना, अपने करीब पाया और इसीलिए भारत की संसद तक पहुँचाया। जो संसद रमेश विधूड़ी और ब्रजभूषणों पर कार्यवाही नहीं कर सकी, जो संसद खुलेआम गालियों और धमकियों पर चुप बैठी रही, वो महुआ जैसी प्रतिनिधि के खिलाफ ऐसी कार्यवाही करती है तो चिंता होती है।

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 निश्चित रूप से यह मावलंकर और राजेन्द्र प्रसाद की संसद नहीं रही है, यह उनकी संसद नहीं रही जिन्होंने देश के लिए सपना देखा था। इस नई संसद की बिल्डिंग ही नई नही है बल्कि एक ऐसी संसद की बिल्डिंग बनाई गई है जिसको चलाने वाले अपने व्यक्तिगत भविष्य के सपने और व्यक्तिगत फायदे देख रहे हैं। भारत की संसद बदल चुकी है। अब यह मात्र एक दल विशेष का सुरक्षित स्थान हो चुका है, जहां एक दल का कब्जा है और एक ही नेता के गीत गाए जा रहे हैं, यह भारत के नागरिकों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था नहीं। यह संसद एक व्यक्ति के विरोध को अपना विरोध समझ कर फैल और सिकुड़ रही है, ऐसे में कब और किस सीमा तक यह भारत के हितों की रक्षा करने में सक्षम रहेगी, नहीं कहा जा सकता.....

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वंदिता मिश्रा
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