‘सत्यमेव जयते’ (सत्य की ही जीत होती है)। मुण्डकोपनिषद के इस श्लोक (३-१-६) में ‘जयते’ नहीं ‘जयति’ था लेकिन संविधान-निर्माताओं ने अशोक स्तम्भ पर लिखे इबारत का ‘जयते’ शब्द ही लिया और इसे भारतीय संप्रभुता के प्रतीक चिन्ह में ध्येय वाक्य के रूप में उकेरा। मतलब है, ‘सत्य की ही जीत होती है’। संस्कृत व्याकरण में मूल रूप से क्रिया दो तरह की हैं- परस्मैपदी और आत्मनेपदी (कुछ ही क्रियाएँ उभयपदी होती हैं)। पहले में क्रिया दूसरों के लिए होती है जबकि दूसरे में अपने लिए। अंग्रेज़ी में इसे ट्रांजिटिव और इनट्रांजिटिव क्रिया के रूप में जाना जाता है। इस श्लोक में रचयिता ऋषि ने परस्मैपदी क्रिया रूप रखा था लेकिन सम्राट अशोक ने इसे आत्मनेपदी बनाया। कई विद्वानों ने यहाँ तक कहा कि ‘जयते’ में व्याकरणिक दोष भी है लेकिन इसे सरकार ने नहीं बदला।