साल 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) –लिबरेशन (या स्थानीय लोगों के लिए माले) विनोद मिश्रा की सदारत में पहली बार अपने टू-लाइन सिद्धांत के तहत सशस्त्र संघर्ष-जनित भूमिगत स्थिति से बाहर निकल कर चुनावी राजनीति में पूरी तरह आ रहा था। माले ने पहली बार इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ़) के बैनर तले 7 सीटें जीती थीं। अगले चुनाव में यानी सन 1995 में इस धुर वामपंथी संगठन में जोश था।
वंचितों की चेतना का अब कौन सा पड़ाव होगा?
- विचार
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- 7 Nov, 2020

लालू-पुत्र और राष्ट्रीय जनता दल के युवा नेता तेजस्वी का कोई बेहद समझदार सलाहकार है। उसे मालूम है, झूठी चेतना की राजनीति की मियाद और वह भी बिहार में जहाँ वामपंथ और धुर वामपंथ एक ज़माने में तेजी से बढे थे, सीमित होती है और इससे बाहर निकलना होगा। यही वजह है इस चुनाव में तेजस्वी ने अपने पिताश्री को ही नहीं पूरे परिवार को सीन से गायब रखा।