सामूहिक चेतना का विकास
मैंने पटना में मिश्र से पूछा था, “उद्देश्य क्या है एक तरफ सशस्त्र संघर्ष जारी रखने और दूसरी तरफ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया यानी चुनाव में भाग लेने के पीछे? अगर इस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में विश्वास है तो सशस्त्र संघर्ष क्यों और अगर लोकतान्त्रिक व्यवस्था एक मुखौटा है तो चुनाव में शिरकत क्यों?” दशकों तक भूमिगत रहे इस नेता का जवाब था,“
“हमारा उद्देश्य है दबे, सताए, शोषित रहे वर्ग में सामूहिक चेतना पैदा करने के लिए उन्हें राज्य और पूँजी के शिकारी तंतुओं से बचाते हुए उनमें चेतना पैदा करना।”
विनोद मिश्र, संस्थापक सचिव, सीपीआई (एम-ए), लिबरेशन
कालांतर में अगर कई जातिवादी नेता 1990 में मंडल-उत्तर काल में ‘सोशल जस्टिस फोर्सेज’ के नाम पर दलित और पिछड़ी जातियों में सशक्तिकरण की ‘झूठी चेतना’ विकसित कर रहे थे तो माले उस चेतना को खूनी संघर्ष से लाल कर रहा था, हालांकि कुछ हद तक उस चेतना का विकास रचनात्मक भी होने लगा था।
सशक्तीकरण की झूठी चेतना
सदियों से दबे वर्ग में सशक्तिकरण की झूठी चेतना पैदा करने की उत्तर प्रदेश और बिहार बड़ी प्रयोगशालाएं रही हैं। साल 2000 की ही बात है, बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव यादव-बाहुल्य वाले राघोपुर क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। उनका हेलीकाप्टर (बकौल लालू उड़नखटोला) उतरा और उन्होंने केवल तीन वाक्य का भाषण था।लालू का आश्वस्त करता चुनाव-भाषण का तीसरा और अंतिम वाक्य था, “बस,मछरी खा, आ ताड़ी पी के मस्त रह।” लालू के हेलीकॉप्टर का रोटर नाचा और लालू जबरदस्त मतों से जीते।
भ्रष्टाचार में लालू
जब कुछ वर्षों में इस वर्ग की सामूहिक चेतना पूरी तरह दोषित हो गयी तो उसी समय लालू यादव पर चारा घोटाले का आरोप लगा। मैंने एक संपादक के रूप में 5 रिपोर्टरों की टीम राघोपुर रवाना किया। रिपोर्टरों को केवल दो ही सवाल पूछना था। पहला, “क्या लालू-शासन में नदी पर पुल बनाने की मांग पूरी हुई? और दूसरा, “आपका नेता तो भ्रष्टाचार के आरोप में फंस गया है, अब आप क्या सोचते हैं”।दूसरे प्रश्न पर उनका जवाब समाजशास्त्रियों के लिए चौंकाने वाला था। “किस जात के हैं आप रिपोर्टर साहेब? जब इसके पहले सवर्ण मुख्यमंत्री बिना दो लाख रुपये आये दतुअन (दातून) नहीं करता था तब कहाँ थे? अब हमारा नेता यही कर रहा है तो आप लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रहा है?”
चेतना स्थाई तौर पर भ्रष्ट नहीं रख सकते
कांसीराम-मायावती हो या मुलायम सिंह या फिर लालू यादव, ये तीनों सशक्तिकरण की झूठी चेतना जगाने के लिए प्रतीकों का बखूबी इस्तेमाल करते रहे हैं। कांसीराम का तिलक-तराजू, लालू यादव का “भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, बनिया और लाला याने कायस्थ) साफ़ करो” और मुलायम सिंह यादव का अपराधियों को राजनीति में लाना दलितों-पिछड़ों की चेतना को इसी तरह भ्रष्ट करने का एक यंत्र था।
लेकिन चेतना कितने दिनों तक भ्रष्ट की जा सकेगी, इसका समाजशास्त्र है। शिक्षा के विस्तार, प्रति-व्यक्ति आय वृद्धि और मीडिया की पैठ की वजह से तर्कशक्ति में इजाजा स्वतः होता है, रफ़्तार कम या ज़्यादा हो सकती है।
अगर दलितों में इन तीनों का स्तर कम रहा, लिहाज़ा मायावती से उनके मोहभंग में समय भी ज़्यादा लगेगा और वह भी भरोसे का विकल्प मिलने पर। लेकिन मुलायम और लालू ब्रांड राजनीति से वह मोह भंग होने लगा।
लालू-पुत्र और राष्ट्रीय जनता दल के युवा नेता तेजस्वी का कोई बेहद समझदार सलाहकार है। उसे मालूम है, झूठी चेतना की राजनीति की मियाद और वह भी बिहार में जहाँ वामपंथ और धुर वामपंथ एक ज़माने में तेजी से बढे थे, सीमित होती है और इससे बाहर निकलना होगा। यही वजह है इस चुनाव में तेजस्वी ने अपने पिताश्री को ही नहीं पूरे परिवार को सीन से गायब रखा।
आज के दौर में ऊपर के वर्ग को भी मंदिर बनना तो भाता है, लेकिन कोरोना-काल में जब नौकरी जाती है तो पलट कर नीतीश कुमार को दोषी मानने लगता है।
तेजस्वी की रणनीति
तेजस्वी की सभा में युवा थे, उनमें उत्साह था, जातिवाद के ऊपर हो कर सभी जाति के युवा इन सभाओं में नौकरी जाने के अवसाद और आगे मिलने के उत्साह के मिश्रित भाव में हाथ उठा रहे थे। सामूहिक चेतना में जाति या रॉबिनहुड इमेज के प्रति भय-जनित सम्मान-समर्पण नहीं था जो लालू काल के आपराधिक-राजनीतिक उत्पाद शहाबुद्दीन को देख कर होता था या नीतीश काल में किसी अनंत सिंह को देख कर होता था।मुलायम सिंह अमर सिंह के साथ के बाद अभिजात्य-वर्गीय शौक और अपराधियों के साथ की वजह से लोगों द्वारा नज़रों से उतारे गए, जबकि मायावती अहंकार-जनित 'क्वीन इमेज' का शिकार बनीं और लालू भ्रष्टाचार, अपराध, परिवारवाद की वजह से अपने को बदलने में अक्षम रहे।
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