पिछले कुछ सालों में जो उम्मीद बंधाई गई थी कि भारत एक संरचनात्मक बदलाव की तरफ बढ़ रहा है, एक आशातीत विकास की तरफ बढ़ रहा है, रोज़गार में बढ़ोतरी होगी, वे सारी उम्मीदें निराशा में बदल रही हैं। ऐसे में आने वाले चुनाव से लोगों की उम्मीदें बहुत कम हो गई हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? मैं यह बात साफ़ करना चाहता हूँ कि हमारे लोकतंत्र के साथ कुछ हो रहा है जो हमारी लोकतांत्रिक अंतरात्मा को विक्षिप्त कर रहा है। हम एक आक्रोशित हृदय, क्षुद्र मानस और संकुचित मन वाला देश बनते जा रहे हैं। कई मायनों में लोकतंत्र उत्साह, विरलता, स्वतंत्रता और उत्सव का मंच होना चाहिए।