क्यों हो प्रधानमंत्री की ‘नियुक्तिः भारत के संसदीय प्रजातंत्र में ‘प्रधानमंत्री की नियुक्ति’ का मतलब ‘सरकार की नियुक्ति’ है। प्रधानमंत्री के इस्तीफा देते ही पूरे मंत्रिपरिषद का अस्तित्व खत्म हो जाता है। ऐसे में ‘प्रधानमंत्री की नियुक्ति’ पर गौर करें। राष्ट्रपति ‘प्रधानमंत्री की नियुक्ति’ संविधान सम्मत तरीके से ही करते हैं लेकिन क्या यह लोकतांत्रिक है? सर्वप्रथम ‘नियुक्ति’ ही लोकतांत्रिक नहीं है। यह जनता के वोट से चुने हुए जनप्रतिनिधियों को ‘नियोक्ता’ यानी राष्ट्रपति के ‘मातहत’ और उनकी ‘अनुकंपा पर निर्भर’ बना देती है।
जनमत पर ‘विवेक’ क्यों है भारी?
बड़ा सवाल है कि हमारे देश का लोकतंत्र राष्ट्रपति के विवेक के हवाले क्यों कर दिया गया है? ऐसा क्यों नहीं है कि जनता के फैसले के बाद सरकार बनने की पूरी प्रक्रिया ही परिभाषित हो और राष्ट्रपति के विवेक को जगाने की स्थिति ही ना बने? यही सवाल प्रदेश की सरकारों के गठन और राज्यपाल की भूमिका को लेकर भी उठाए जा सकते हैं।देश में अल्पमत की सरकारें बनी हैं और चली हैं। यह सब राष्ट्रपति के विवेक से हुआ है। चुनाव पूर्व गठबंधन के पास अगर सबसे ज्यादा निर्वाचित सांसद हैं तो उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रण देने का अदालती फैसला वास्तव में राष्ट्रपति के विवेक को जगाने का प्रयास ही माना जाना चाहिए। फिर भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि सरकार बनाने के लिए सांसदों का बहुमत क्यों हो? जनता का बहुमत जिस राजनीतिक दल के पास हो, वह क्यों नहीं सरकार बनाए? ऐसा होने से तय समय से पहले सरकार गिरने-गिराने की स्थिति ही नहीं बनेगी। फिर इस बाबत पनपा भ्रष्टाचार भी नहीं रहेगा।
संविधान में नहीं तो परंपरा में क्यों विश्वास या अविश्वास प्रस्ताव?
संविधान में कहीं भी विश्वास प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव का जिक्र नहीं है। जनता के फैसले के बाद किसी और तरीके से उसके अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है। फिर भी विश्वास मत और अविश्वास मत को संसदीय परंपरा का हिस्सा बना दिया जाना विमर्श का विषय है। एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर जाने की स्थिति को याद करें। ओडिशा के मुख्यमंत्री बने गिरिधर गोमांग ने चूकि संसद से इस्तीफा नहीं दिया था, इसलिए उन्हें बतौर सांसद वोट देने की इजाजत तत्कालीन स्पीकर जीएमसी बालयोगी ने दे दी थी। एक सरकार के लिए मैजिक फिगर की आवश्यकता से नैतिकता और मूल्यों का भी पतन हुआ। बाद के दिनों में प्रदेश की सरकारों के संदर्भ में सरकार बनाने और गिराने में भ्रष्टाचार-कदाचार का खुला खेल हुआ।इलाज नहीं बीमारी बन गये दलबदल और ह्विप: सांसदों को सरकार बनाने के लिए सबसे जरूरी अवयव बनाकर कई तरह की विकृतियों को जन्म दे दिया गया। ‘आया राम गया राम’ की स्थिति पैदा हुई तो दल-बदल कानून आया। इससे भी बात नहीं बनी और लोकतांत्रिक सरकार भ्रष्ट तरीकों से जिन्दा रहने लगी तो दल-बदल कानून और सख्त हुआ। फिर भी विकृति दूर नहीं हुई है। उल्टे सरकारों के बनने और गिरने में सांसदों की खरीद-फरोख्त ने नया मोड़ ले लिया है।
सांसदों को नियंत्रित रखने के लिए ह्विप इजाद हुआ। इससे संसदीय लोकतंत्र वास्तव में अलोकतांत्रिक होता चला गया। नीतिगत मुद्दे पर कानून बनाने वाले सांसद खुलकर अपने विचार तक व्यक्त करने से रोक दिए गये। पार्टी के विचार से अलग सांसद अपने विचार नहीं रख सकते और न ही सदन में वोटिंग कर सकते हैं। ह्विप और दलबदल कानून ने मिलकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिससे स्वयं राजनीतिक दल भी सांसदों के जरिए तोड़े जाने लगे। लोकजनशक्ति पार्टी, शिवसेना ताजा उदाहरण हैं।
मतदान से दूर क्यों हैं आधे मतदाता: मतदाता जो मतदान के योग्य हैं लेकिन मतदान नहीं करते उनकी संख्या कुल मतदाताओं की आधी है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार 2019 में भारत में कुल 91 करोड़ 19 लाख 50 लाख 734 वोटर थे जिनमें से 61 करोड़ 46 लाख 84 हजार 398 मतदाताओं ने मतदान किया। 2019 में भारत की अनुमानित आबादी 138.31 करोड़ थी। चुनाव आयोग के अनुसार वोट देने वाली आबादी 87.75 प्रतिशत थी जबकि वोटर लिस्ट में करीब 66 फीसदी लोगों के नाम ही दर्ज हुए। इसका अर्थ यह है कि करीब 121 करोड़ मतदाताओं में 61 करोड़ ही वोट दे सके। वोट नहीं देने वालों में आधे वोटर लिस्ट से बाहर थे जबकि आधे वोटर लिस्ट में रहते हुए वोट नहीं दिया।
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