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कलियुग के मर्यादा पुरुषोत्तम की जय हो!

वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनमें मर्यादा पुरुषोत्तम वाले सभी गुण हैं यानी सर्व गुण संपन्न। उनके गुणों का वर्णन इस लेखक के लिए संभव नहीं है। अगर वह करेगा भी तो सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा। निजी एवं सार्वजनिक जीवन दोनों में उन्होंने मर्यादा के उच्चतर मानदंड कायम किए हैं। इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। जब कभी कोई तुलसीदास उनका चरित मानस लिखेगा तो समूचा विश्व आज से भी ज़्यादा भक्तिमय हो जाएगा। 

हालाँकि बहुत से आलोचकों को मर्यादा पुरुषोत्तम के गुण दिखलाई नहीं देते। वे देखना ही नहीं चाहते तो कैसे दिखेंगी? गोदी मीडिया तो दिन रात उनका गुणगान करता रहता है। भक्तगण भी सोशल मीडिया पर उन गुणों की जुगाली करते रहते हैं। मगर मोदियाबिंद के शिकार लोगों के लिए सब बेकार है। वे विष्णु के अवतार को पहचान ही नहीं सकते। बहरहाल, जैसा कि स्वयंसिद्ध है, मर्यादा पुरुषोत्तम में अनगिनत ख़ूबियाँ हैं मगर उनकी जो बात मुझे सबसे अच्छी लगती वो है उनकी निष्कलंक पारदर्शिता, उनकी साफ़गोई।

व्यंग्य से और

वे जो कुछ करते हैं खुलकर करते हैं, डंके की चोट पर करते हैं। कुछ छिपाते नहीं हैं। बिल्कुल खुला खेल फ़र्रुखाबादी। पानी की तरह पारदर्शी है उनका व्यक्तित्व। कोई चाहे तो उनके आरपार देख सकता है। उनका जीवन खुली क़िताब है, उसे कोई भी पढ़ सकता है। 

ये पारदर्शिता उनके राजनीतिक जीवन का आधार है, सार है। वह ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।  

मसलन, जब उन्होंने राजधर्म निभाया तो खुलकर निभाया। इस मामले में उन्होंने किसी की भी नहीं सुनी। अपने मार्गदर्शक, अपने गुरुजनों तक की नहीं। उन्होंने गृहस्थ धर्म निभाया तो पूरे मन से निभाया। आज तक वे चुनाव के नामांकन पत्र में अपनी पत्नी का नाम देना नहीं भूलते। 

शिक्षा हासिल की तो एंटायर पोलिटिकल साइंस में की और उसकी असली डिग्री भी उनके पास है। कोई भी मांगकर देख सकता है।  

ताज़ा उदाहरण भारत रत्न का है। उन्हें जिसको भारत रत्न देना ठीक लगा, दे दिया। इसकी ज़रा भी परवाह नहीं की कि लोग आपत्ति करेंगे कि उनकी रथयात्रा तो दंगा-यात्रा बन गई थी या बाबरी मस्जिद ध्वंस के वे सूत्रधार थे और उनके ख़िलाफ़ आपराधिक मामला भी चला था। 

आप देख लेना एक दिन वे इसी तरह महात्मा गोडसे को भी भारतरत्न से महिमामंडित करेंगे।

राजनीति में वे नीति और न्याय के पथ पर चलते हैं। संविधान और संसद के प्रति उनकी निष्ठा तो संदेहों से परे है। उन्होंने ऐसे ही नहीं संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेका था या संविधान को सिर से लगाया था। वे सचमुच में उनके प्रति समर्पित हैं। कोई भी संसद के संचालन और संविधान के पालन में इसे देख सकता है। विपक्षी दलों, ख़ास तौर पर मुख्य विपक्षी दल के प्रति उनकी उदारता अभिनंदनीय है, अनुकरणीय है।
बिना सत्य के मार्ग पर चले कोई मर्यादा पुरुषोत्तम कैसे बन सकता है? इसलिए वे हमेशा सत्य का अनुसरण करते हैं। उनका ध्येय वाक्य है- जो कहूँगा सत्य कहूँगा सत्य के सिवा कुछ नहीं कहूँगा! चाहे जो हो जाए वे इस वाक्य से डिगते नहीं हैं। इस मामले में सत्यवादी हरिश्चंद्र को वे कब का पीछे छोड़ चुके हैं!

बतौर प्रचारक उन्होंने जो ट्रेनिंग ली थी वह उनके अंदर रची-बसी है। इसीलिए कभी भूल से उनके मुँह से असत्य निकल भी जाए तो वे उसे तुरंत संशोधित कर लेते हैं मगर सत्य की अवमानना नहीं होने देते। उन्होंने राफाएल डील, चीनी कब्ज़े या उद्योगपतियों से संबंधों के बारे में कभी सच न कहा हो मगर एक भी बार झूठ नहीं बोला। 

आप उनकी सत्यनिष्ठा का इसी से अंदाज़ लगा सकते हैं कि उनकी सरकार का कोई भी आँकड़ा, कोई भी सूचना झूठी नहीं होती, वे सत्य की कसौटी पर हमेशा खरा उतरती हैं। उनकी कोई भी घोषणा और वादा आज तक झूठा साबित नहीं हुआ है। 

डोनल्ड ट्रम्प के बाद सबसे ज़्यादा सच बोलने का रिकॉर्ड उन्हीं के नाम होगा।

अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता के बारे में उनके कमिटमेंट के बारे में तो आप कोई संदेह कर ही नहीं सकते। इस मामले में पूरी दुनिया उनकी कायल है। अंतरराष्ट्रीय प्रेस फ्रीडम सूचकांक इसकी गवाही देते हैं।

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हां, उनकी इस चिंता से कौन असहमत हो सकता है कि कुछ लोग इस स्वतंत्रता का नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं जिससे देश का नुक़सान होता है। इसीलिए मीडिया को इन अवांछित व्यक्तियों और प्रवृत्तियों से मुक्त करने का अभियान उन्होंने छेड़ रखा है। 

इस स्वच्छता अभियान का व्यापक असर देखा जा सकता है। आज मीडिया का अधिकांश हिस्सा इस विचार से सहमत है कि मीडिया देशभक्त सरकार के कंट्रोल में है और रहना चाहिए। कुछेक यूट्यूब चैनलों ने उपद्रव मचा रखा है मगर वे भी जल्दी नियंत्रित कर लिए जाएंगे।

हिंदू धर्म की मान-मर्यादा की रक्षा करने के मामले में तो वे धर्माचार्यों से भी आगे निकल चुके हैं। शंकराचार्य तक उनके समक्ष बौने सिद्ध हो चुके हैं। आप आए दिन उनके धार्मिक एवं तपस्वी रूप के दर्शन कर सकते हैं। चुनाव काल में तो वे उसी तरह से और भी धार्मिक हो जाते हैं जैसे छात्र-छात्राएं परीक्षा के समय। वे कभी राम भक्त हो जाते हैं तो कभी शिव भक्त और कभी बजरंग बली की जय जयकार करने लगते हैं। 

पिछले दस साल में उन्होंने ऐसे और भी उदाहरण पेश किए हैं, जो सिद्ध करते हैं कि वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। अब मित्रता-धर्म को ही ले लीजिए। अपने मित्रों का जितना सहयोग वे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहते हुए कर सकते थे, खुलकर किया। राफाएल डील में पार्टनर बनाने से लेकर बंदरगाह, हवाई अड्डे तक सब कुछ उन्हें सौंप दिए। दोस्ती के ऐसे उदाहरण आपको इतिहास की पुस्तकों में भी नहीं मिलेंगे।

उनके निंदकों ने उन पर कितने ही आरोप लगाए, प्रहार किए गए मगर वे डटे रहे। उन्होंने अपने मित्रों का पूरा खयाल रखा, उन्हें आँच नहीं आने दी। किसी का भी नाम ले लीजिए, वे हर किसी के साथ मित्रता की कसौटी पर खरे उतरेंगे।

यहाँ वे अपने एक और ध्येय वाक्य न खाऊँगा, न खाने दूंगा पर भी डटे हुए देखे जा सकते हैं। राजनीति में मर्यादाओं के पालन में वे और भी कट्टर हैं। भ्रष्ट नेताओं को सदाचारी बनाने के लिए उनका दल बदल करवाना हो, विपक्षी दलों को तोड़ना हो, सरकार गिराना हो, राज्यपालों के ज़रिए सरकारों को अस्थिर करवाना हो, तो वे बिलकुल समझौता नहीं करते। 

त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम बनना आसान था। उस समय ऐसा उत्पाती विपक्ष नहीं था। कुछेक दैत्य, असुर वगैरा होते थे जिनका संहार कर दिया जाता था। कलयुग में तो विपक्ष हर दिन नया टंटा खड़ा करता रहता है। उसकी समझ में नहीं आता कि संसद राज-दरबार की तरह होता है जबकि वे उसे खेल का मैदान समझकर हुड़दंग करते रहते हैं।

लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम उसे अनुशासित करने के लिए हर संभव क़दम उठाते हैं। लोग उनके इन क़दमों के बारे में जो चाहे कहते रहें, वे तनिक भी परवाह नहीं करते। इसको लेकर उन्हें किसी तरह का अपराधबोध भी नहीं होता। आख़िर क्यों हो, उनके लिए तो नेशन फर्स्ट है। और नेशन को फर्स्ट रखने के लिए ज़रूरी है कि राजनीति में शुचिता लाएं, उसे मर्यादित करें। वे यही तो कर रहे हैं। 

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मातृभक्ति में भी वे मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह हैं। उनकी माँ कितनी खुशक़िस्मत थीं कि उन्हें उन जैसा सपूत मिला जो जब भी उनसे मिलने जाता था, कैमरे और पत्रकारों को साथ लेकर जाता था। लोगों ने इसे आत्मप्रचार बताया, मगर वे पारदर्शिता के कायल थे इसलिए इस दुष्प्रचार से डिगे नहीं।

अब बताइए, भला ऐसे मातृप्रेम की मिसाल तीनों लोकों में कहाँ मिलेगी? इसे तो समूचे पृथ्वीलोक को जानना चाहिए। इसका दसों दिशाओं में प्रचार होना चाहिए और उन्होंने डंके की चोट पर किया। कलयुग में जब लोग माता-पिता से दूर हो रहे हैं, तो उन्हें उनकी मातृभक्ति से काफी शिक्षा मिली होगी।

आत्मप्रचार की बात आई है तो इस मामले में भी उनका आचरण अत्यधिक पारदर्शी रहा है। वे अपना प्रचार खुलकर करते हैं। मैंने ये किया, मैंने वो किया, मैं राम को ले आया, मैं रामराज्य ले आया, मैंने देश को विश्वगुरु बना दिया, मेरी गारंटी वगैरा वगैरा। वे इस मामले में न हिचकते हैं, न पीछे हटते हैं। 

बल्कि यदि आत्मप्रचार की राह में कोई आड़े आता है तो वे उसे बिल्कुल नहीं बख़्शते। किसी को भी हाथ पकड़कर किनारे कर देते हैं। ऐसी पारदर्शिता किसी ने नहीं दिखाई। नेहरू तो इस मामले में उनके सामने कहीं लगते ही नहीं।

प्रेम के मामले में भी उनका कोई सानी नहीं है। उनके जैसा प्रेमी अन्यत्र नहीं मिल सकता। 

उनको जिनसे प्रेम है तो वो है। प्रेमियों का अपने प्रेमी-प्रेमिकाओं को पहचानने का अलग-अलग कोड होता है। उनके प्रेम का कोड है कपड़े। वे उन्हें कपड़ों से ही पहचान लेते हैं और फिर उन पर जमकर प्यार बरसाते हैं। उनकी रक्षा और खुशहाली के लिए नए-नए कानून बनाते हैं। बुल्डोज़र चलवाते हैं।

दरअसल, वे उनके लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं, मगर समयाभाव की वज़ह से उतना कर नहीं पाते। इसीलिए गौरक्षक और दूसरे धर्मरक्षक उनकी इच्छाओं को पूरा करने करने में जुटे हुए हैं। उनको उनका पूरा आशीर्वाद प्राप्त है। 

नेहरू-गाँधी परिवार के प्रति उनका प्रेम इस मामले में एक और मिसाल है। निंदक चाहे जो कहें मगर उनके बारे में वे सपने में भी बुरा नहीं सोचते। महात्मा गाँधी से भी उन्हें कुछ ऐसा ही प्रेम है। अगर बापू के बारे में कोई अपशब्द कहता है तो उससे वे दिल से नाराज़ हो जाते हैं और माफ़ नहीं करते। 

दरअसल, संघ से मर्यादाओं के जो संस्कार उन्हें मिले, उन्हें उन्होंने न केवल आत्मसात किया है बल्कि बतौर प्रचारक मज़बूत किया। अब वही संस्कार उनके सार्वजनिक जीवन में परिलक्षित हो रहे हैं। समस्त देशवासियों को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। 

तो एक बार सब मिलकर ज़ोर से बोलिए कलियुग के मर्यादा पुरुषोत्तम की जय!

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मुकेश कुमार
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