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हम-तुम ईवीएम में बंद हों और खेल हो जाये

एक साहित्यानुरागी नौजवान दोस्त ने कई साल पहले मुझे आपबीती सुनाई थी। कवि टाइप दो बुजुर्ग उसे बियर पिलाने के बहाने फुसलाकर किसी पब में ले गये और बारी-बारी से अपनी कई कविताएं सुना डालीं।
जब नौजवान के कुछ कहने की बारी आई तब तक नशे में दोनों बुजुर्ग कवियों की बत्ती गुल हो चुकी थी। त्रासद कथा का अंत यह है किस्मत के मारे उस नौजवान के कलाम होठों पर धरे रह गये और बियर के पैसे भी उसे अपनी जेब से भरने पड़े।
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अगर आपको लगता है कि ऐसे हादसे सिर्फ साहित्य की दुनिया में होते हैं तो आप गलत है। जो पत्रकार इलेक्शन कमीशन कवर करते हैं, उनसे उनका दर्द पूछिये। प्रेस कांफ्रेंस में सवालों के जवाब भले मिले ना मिले लेकिन उन्हें चीफ इलेक्शन कमिश्नर राजीव कुमार की स्वरचित  हाहाकारी कविताएं सुननी पड़ती हैं
राजीव कुमार ने किसी साहित्यिक कार्यक्रम से न्यौते या किसी लिट्टी चोखा लिट्ट फेस्ट से बुलावा आने का इंतज़ार नही किया। हालांकि सीनियर आईएसएस अधिकारी होने के नाते वो इसके हकदार थे। जब सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर, मॉडल और बिल्डर बुलाये जा सकते हैं तो फिर राजीव कुमार में क्या खराबी है।
मंच नहीं मिला कोई बात नहीं। राजीव कुमार ने इसका तोड़ निकाला और दिल्ली चुनाव की तारीख के एलान के बीच मौका पाकर उन्होंने अपनी कविता उंडेल दी। यही काम उन्होंने आम चुनाव की तारीखों के एलान के वक्त भी किया था। मोदीजी आपदा में अवसर ढूंढने को कहते हैं, राजीव कुमार ने पत्रकारों के अवसर को आपदा में बदल दिया।
राजीव कुमार ने जब अपनी कविता शुरू की तो पत्रकारों को उम्मीद थी कि वो `हम-तुम एक ईवीएम में बंद हो और खेल हो जाये’ जैसी कोई तड़कती-भड़कती कविता सुनाएंगे। लेकिन राजीव ने एक बहुत ही गंभीर कविता पढ़ी। अगर किसी संग्रह में शामिल होती तो यकीनन साहित्य अकादमी पुरस्कार का दावा बनता।
   कई लोग पूछ रहे हैं कि राजीव कुमार का ये कदम भ्रष्टाचार की श्रेणी क्यों नहीं आएगा, आखिर उन्होंने अपनी पोजिशन का बेजा फायदा उठाया है। मैं सोचने लगा फिर मुझे अचानक हास्य कवि अशोक चक्रधर का फॉर्मूला याद आया।
चक्रधर जी ने भ्रष्टाचार को चार श्रेणियों में विभाजित किया है—जबराना, हकराना, नजराना और शुक्राना। जैसा कि नामों से स्पष्ट है, नजराना और शुक्राना में थोड़ी सी याचना का भाव है। मतलब लेना वाला अपनी दांत दिखाते हुए कृतज्ञता जताता है। लेकिन जबराना और हकराना दो ऐसी श्रेणियां जिनमें शक्ति का प्रयोग होता है। लेना हक है तो फिर जबरिया वसूला जा सकता है। राजीव कुमार जी ने कुछ इसी अंदाज़ हक से कविताएं पेश की और जबरिया दाद भी ली।
इसके बावजूद इस घटना को सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का उदाहरण मानने से इनकार करता हूं। जिस इलेक्शन कमीशन के आंकड़े रातो-रात बदल जाते हैं, जिसके ईवीएम की बैटरियां पोलिंग के बाद लगभग डिस्चार्ज्ड होकर कांउटिंग वाले दिन भगवत कृपा 99 प्रतिशत तक चार्ज हो जाती हैं, उसके मुखिया ने अगर प्रेस कांफ्रेंस में एक कविता ही सुना दी तो ऐसी कौन सी आफत आ गई?
राजीव कुमार उस सांस्कृतिक क्रांति के नुमाइंदे हैं, जिसका शुभारंभ नरेंद्र मोदी के सत्ताधीश बनने के बाद हुआ है। नरेंद्र मोदी बड़े कवि हैं। गुजराती में लिखी गई कविताओं की उनकी किताब बकायदा छप चुकी है। कवि अटल बिहारी वाजपेयी भी थे। लेकिन अटल जी छंद के नियम में बंधकर और प्रांजल किस्म की हिंदी में लिखते थे।
इसके विपरीत मोदीजी को उर्दू वाली काफियाबंदी पसंद है। मोदी खुश हो या नाराज़ अपनी रचनाधर्मिता नहीं छोड़ते। `जो जेपी का ना हुआ वो बीजेपी का क्या होगा’ से शुरु हुई मोदी काव्य यात्रा का हासिल ये है कि जब 2019 में उनके खिलाफ `चौकीदार चोर है’ नारा बुलंद हुआ तो मोदी और उनके समर्थकों ने उसका जवाब भी `चौकीदार प्योर है’ जैसी तुकबंदी में दिया। वैसे कभी-कभी तर्क की तरह तुक भी मोदीजी का साथ छोड़ देते हैं लेकिन बातों का वजन ज़रा भी कम नहीं होता है।  
वाजपेयी के मुकाबले मोदी एक तरह से जनकवि है। इसीलिए मौजूदा राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में अखंड काव्य धारा फूट रही है। नरेश अग्रवाल बीजेपी में आने से पहले समाजवादी पार्टी के सांसद थे।
 राज्यसभा में पढ़ी गई उनकी कविता पर गौर करें...
व्हिस्की में विष्णु बसें, रम में श्रीराम
जिन में माता जानकी, ठर्रे में हनुमान
नरेश अग्रवाल को उनकी साहित्यिक प्रतिभा के आधार पर बीजेपी शामिल किया गया या फिर कोई और वजह रही, इसके बारे में की पुख्ता जानकारी नहीं है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भारतेंदु युग और द्विवेदी युग की तरह यह साहित्य का मोदी युग हैं।
अब मूल प्रश्न यह है कि राजीव कुमार मोदी युग के अष्टछाप कवियों में कहां स्थान पाएंगे। मुझे लगता है कि उनकी तुलना केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले से की जा सकती हैं, जिनकी रचनाएं चीख-चीखकर कहती है—भला है, बुरा है, चाहे जैसा भी है, सबसे मौलिक मेरी कविता है।
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अच्छा हो मोदीजी की सदारत में लालकिले पर दुनिया का सबसेस बड़ा मुशायरा हो, जहां ऐसे तमाम कवि बुलाये जायें। इसके कई लाभ होंगे। यह पता चला कि न्यू इंडिया में महान सांस्कृतिक क्रांति घटित हो चुकी है। अब यहां कविताएं बुलेट ट्रेन की रफ्तार से लिखी जा रही हैं। लोगों को यह पता भी चलेगा कि मोदी समर्थक सिर्फ गालियां नहीं बकते बल्कि ग़ज़ल भी कहते हैं।
चलते-चलते आखिरी सुझाव। ध्यान रखें कि इस आयोजन में मुशायरा शब्द ना हो। कवि सम्मेलन ठीक रहेगा। कहीं ऐसा ना हो कि मुशायरा शब्द सुनते ही बाबा अपने सारे बुलडोजर दिल्ली रवाना करें।
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राकेश कायस्थ
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