लगभग तीन महीने से दिल्ली के पास पंजाब के किसानों के धरने से कई सवाल खड़े होते हैं। इनमें से ज़्यादातर किसान उस पंजाब के हैं, जो हरित क्रांति का केंद्र बना, जिसने खेती-किसानी के सबसे कामयाब जगह के रूप में अपनी पहचान बनाई, जिसने कृषि के मामले में भारत को विश्व में स्थापित कर दिया। पंजाब के किसानों का लंबा आन्दोलन क्या यह दर्शाता है कि हरित क्रांति नाकाम रही?
पंजाब में हरित क्रांति की कामयाबी ने उसकी दशा-दिशा बदल दी, वह कृषि क्षेत्र में कामयाबी का उदाहरण बन गया और लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थिति सुधरी। उसे पूरे देश में उदाहरण के रूप में पेश किया जाने लगा।
हरित क्रांति पर सवाल
लेकिन यह कामयाबी और खुशी बहुत ज़्यादा दिन नहीं टिक सकी। 1980 के दशक के बीच पहुँचते-पहुँचते पंजाब में गंभीर सामाजिक-आर्थिक संकट उभरने लगे और हरित क्रांति पर सवाल उठने लगे।
‘ग्रीन रिवोल्यूशन रिविज़टेड-द कंटेपोरेरी एग्रेरियन सिचुएशन इन पंजाब’ नामक शोध में यह पाया गया कि जिन कारणों से पंजाब में हरित क्रांति कामयाब हुई, वही उसके नाकाम होने की वजह भी बन गए।
नए किस्म के बीज, उर्वरक, मशीनों से की जाने वाली खेती, सिंचाई के नए साधन और बैंकों से आसान शर्तों पर मिलने वाले क़र्ज़ से पंजाब कृषि में देश का सबसे नंबर एक का राज्य बन गया। और बाद में इन्हीं कारणों से वहाँ कृषि चौपट भी हो गई।
खेती का विरोधाभाष
इस विरोधाभाष को समझा जा सकता है।
गेहूं के किसानों को आधुनिक उपकरणों, उर्वरक व सिंचाई के साधनों के कारण लागत अधिक बैठने लगी और उसके बदले उसे कीमतें पहले से कम मिलने लगीं, नतीजा यह हुआ कि गेहूं किसान का मुनाफ़ा कम होने लगा।
शुरू में तो गेंहू की प्रति हेक्टेअर उपज तेज़ी से बढ़ी, लेकिन एक सीमा पर जाकर वह रुक गई। अस्सी के दशक आते-आते स्थिति यह हुई कि लागत तो लगातार बढ़ती रही, लेकिन उत्पादन नहीं बढ़ा, कीमत भी एक सीमा पर जाकर रुक गई। इसका नतीजा यह हुआ कि गेहूं किसानों के पास क़र्ज़ चुकाने के पैसे नहीं रहे।
लेकिन जब गेहूं की कीमत नहीं बढ़ी तो किसानों को नुक़सान होने लगा। वे लिए गए क़र्ज़ समय पर चुकाने में नाकाम होने लगे, उन पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ता गया। क़र्ज़ चुकाने के लिए एक और क़र्ज़ लेने की प्रवृत्ति इसी समय हुई और किसान अस्सी के दशक के दूसरे हिस्से में क़र्ज के जाल में बुरी तरह फँसने लगा।
‘द ट्रिब्यून’ अख़बार के अनुसार, 1986 से 2005 के बीच पंजाब में 2,116 किसानों ने आत्महत्या कर ली। एक अध्ययन के मुताबिक़, आत्महत्या करने वाले ये किसान मोटे तौर पर छोटे या सीमांत किसान थे।
सामाजिक संरचना में बदलाव
इसकी वजह यह थी कि हरित क्रांति ने पंजाब की सामाजिक संरचना में बुनियादी बदलाव किए। खेती के नए साधनों का फ़ायदा मझोले व बड़े किसानों को अधिक मिला क्योंकि पहले से बेहतर आर्थिक स्थिति वाले इन किसानों ने संसाधनों के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया।
इसका नतीजा यह हुआ कि छोटे व सीमांत किसान लगातार पिछड़ते चले गए। वे ही क़र्ज़ के जाल में फँसे और इसलिए ख़ुदकुशी के ज़्यादातर मामले उनके बीच से ही आए।
‘रिवर्स टेनेन्सी’
छोटे व सीमांत किसानों के पास ज़मीन का छोटा टुकड़ा था, संसाधन नहीं थे, लिहाज़ा, वे आधुनिक तरीके से खेती नहीं कर सकते थे। ऐसे में वे अपनी ज़मीन बड़े और संपन्न किसानों को पट्टे पर दे देते थे। उन्हें उसके बदले में पैसे मिलते थे। बड़े किसानों को जितना मुनाफ़ा होता था, छोटे व सीमांत किसानों को उतना फ़ायदा नहीं होता था। एक तरह से वे अपनी ज़मीन पर किराया पाते थे।
यह एक तरह से ‘रिवर्स टेनेन्सी’ हो गया। पहले बड़े किसान सीमांत व छोटे किसानों को ज़मीन खेती के लिए देते थे। नई व्यवस्था में उल्टा हुआ, सीमांत किसान ही ज़मीन बड़े किसानों को देने लगे।
बटाईदार प्रथा
हरित क्रांति के बाद पंजाब में ज़मीन की कीमतें यकायक तेज़ी से बढ़ीं। लोग अपनी ज़मीन बटाईदारों को देने के बदले पट्टे पर देने लगे क्योंकि उन्हें उससे अधिक पैसे मिलते थे। बटाईदारों का संकट बढ़ने लगा। बटाईदारी प्रथा भी सिमटने लगी।
मानव विकास रिपोर्ट, 2005, से पता चलता है कि पंजाब में पट्टे पर दी जाने वाली ज़मीन 1970 के दशक में 9 प्रतिशत थी, जो 1990 के दशक में 13 प्रतिशत हो गई।
लैंड होल्डिंग यानी लोगों के पास मौजूद जमीन में कमी आती गई। मानव विकास रिपोर्ट, 2005 के अनुसार 1970-71 में सीमांत किसानों के पास 37 प्रतिशत ज़मीन थी, जो 1999-2000 में घट कर 26 प्रतिशत हो गई।
निजीकरण का नतीजा
1990 के दशक में जब आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू हुआ, निजीकरण पर ज़ोर दिया जाने लगा और भूमंडलीकरण भारत में दस्तक देने लगा, कृषि पर भी इसका असर पड़ा। पंजाब पर सबसे पहले और सबसे ज़्यादा असर पड़ा क्योंकि हरित क्रांति की वजह से कृषि का स्वरूप बदल चुका था।
निजीकरण का दौर शुरू हुआ तो भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी और भूमिका भी कम होने लगी। हालांकि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पाद खरीदती थी, पर उसने खरीद में कमी कर दी, क्योंकि उसकी प्राथमिकता बदल चुकी थी। इसका नतीजा यह हुआ कि सीमांत व छोटे किसानों को निजी क्षेत्र में अपने उत्पाद बेचने पड़े।
न्यूनतम समर्थन मूल्य
लेकिन वहाँ उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत ही कम कीमत मिलता था। इसका सबसे अधिक असर सीमांत व छोटे किसानों पर ही पड़ा क्योंकि वे अमूमन कम पढ़े लिखे या अनपढ़ थे, वे ख़रीददारों से अधिक मोल-भाव नहीं कर पाते थे और उन्हें ख़रीददार की कीमत पर अपना उत्पाद बेचना पड़ता था।
‘ग्रीन रिवोल्यूशन रिविज़टेड-द कंटेपोरेरी एग्रेरियन सिचुएशन इन पंजाब’ नामक शोध के मुताबिक़, साल 2000 में सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित तो कर दिया, पर उसे खरीदने से आनाकानी करती रही, धान की गुणवत्ता का बहाना बनाती रही।
निजी क्षेत्र के लोगों ख़ास कर धान मिल वालों ने बड़े पैमाने पर खरीद की, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत ही कम कीमत पर। किसान स्कूल, पार्क और यहाँ-वहाँ धान जमा कर रखते रहे इस उम्मीद में सरकार खरीदेगी। अंत में उन्हें चावल मिल वालों के हाथों औने-पौने दाम पर धान बेचना पड़ा।
क़र्ज़ का जाल
खेती-किसानी मुनाफ़े का काम नहीं रहा, सीमांत व छोटे किसानों के पास पैसे नहीं रहे, कई बार खेती खराब हो गई, इन सबका नतीजा यह हुआ कि किसानों को क़र्ज़ लेना पड़ा और यह क़र्ज़ बढ़ता गया।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने एक शोध में पाया कि राज्य के 89 प्रतिशत किसानों ने क़र्ज़ लिए, इनमें से 12.8 प्रतिशत किसानों ने ख़ुदकुशी कर ली। यह भी पाया गया कि पंजाब के मालवा राज्य में 95.3 प्रतिशत कपास किसानों ने क़र्ज़ ले रखा था। कपास की खेती करने वाले छोटे व सीमांत किसानों पर औसतन 80,000 रुपए का क़र्ज़ था।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) ने 2005 की अपनी रिपोर्ट में कहा कि बैंकों ने पंजाब में साल 2003 में 24,000 करोड़ रुपए के कृषि ऋण दिए। इस दौरान पंजाब के हर किसान पर 42,576 रुपए का क़र्ज़ था, जबकि राष्ट्रीय औसत 12,505 रुपए का था।
ज़मीन बेचनी पड़ी
कई केस स्टडी में यह पाया गया कि कपास की खेती ख़राब हो गई, सीमांत व छोटे किसानों के पास क़र्ज़ चुकाने का कोई साधन नहीं रहा और उन्होंने सस्ते में अपनी ज़मीन बेच दी।
दूसरी ओर, पंजाब नेशनल बैंक ने एक रिपोर्ट में कहा कि पाँच एकड़ की खेती वाले किसान भी ऋण लेकर ट्रैक्टर खरीदने लगे, उन्हें लगता था कि इससे सामाजिक प्रतिष्ठा बढेगी। ज़रूरत या क्षमता से ज़्यादा क़र्ज़ लेने की प्रवृत्ति पंजाब में बढ़ने लगी और उन किसानों के लिए मुसीबत का सबब बना।
ज़रूरत या क्षमता से अधिक क़र्ज़ लेने की प्रवृत्ति से किसानों पर बोझ बढता गया और बाद में बैंकों ने उन्हें पैसे देने से इनकार कर दिया। उस स्थिति में वे ग़ैरसंस्थागत ऋण की ओर बढ़े। पंजाब के स्थानीय व ग़ैर संस्थागत क़र्ज़ के क्षेत्र में आढ़तियों का ज़बरदस्त प्रभाव था।
आरबीआई
रिज़र्व बैंक के दिशा-निर्देशों के अनुसार सभी वाणिज्यिक बैंकों को प्राथमिकता बैंकिंग के रूप में 40 प्रतिशत क़र्ज़ देना पड़ता है, जिसमें कृषि के लिए 18 प्रतिशत क़र्ज़ है। यानी हर बैंक को अपने दिए हुए कुल क़र्ज़ का कम से कम 18 प्रतिशत क़र्ज़ कृषि क्षेत्र को देना होगा।
कृषि के लिए क़र्ज मिलता रहा, जिन छोटे किसानों को बाद में वह क़र्ज़ नहीं मिला, वे निजी क्षेत्र मसलन आढ़तियों या साहूकारों से लेते रहे। इसका कुल नतीजा यह हुआ कि पंजाब के किसान बहुत बड़े क़र्ज़ के दलदल में धँसते चले गए।
इसका नतीजा यह हुआ कि 2003 में पंजाब में 26 किसानों ने आत्महत्या की थी, लेकिन यह आँकड़ा 2014 में बढ़ कर सालाना 98 हो गया। पंजाब में आत्महत्या करने वाले ये सभी किसान सिख थे, उनमें से 97 प्रतिशत सामान्य वर्ग के थे, यानी अनुसूचित या पिछड़ी जातियों के नहीं थे।
पंजाब में 50 साल में हरित क्रांति शुरू होकर खत्म भी हो गई, उसने पारंपरिक खेती को एकदम आधुनिक खेती में तब्दील कर दिया, पंजाब को देश का सबसे अधिक कृषि संपन्न राज्य बना दिया और अंत में पंजाब को विपन्न आर्थिक रूप से पिछड़ी स्थिति में भी पहुँचा दिया।
शास्त्री से मोदी तक
भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक समय देश के लोगों से हफ़्ते में एक दिन एक वक़्त का खाना नहीं खाने की अपील की थी। लेकिन इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते वही देश खाद्य पदार्थों का निर्यात करने लगा, वह चावल का निर्यातक देश बन गया।
कहा जा सकता है कि उसके कुछ साल बाद कृषि अपने सर्वोच्च बिंदु पर पहुँच गया। लेकिन उसके बाद वह ढलान पर नीचे उतरने लगा। भूमंडलीकरण व निजीकरण ने कृषि की मुसीबतें बढ़ाईं। कृषि मुनाफ़े का काम नहीं रहा, किसानों को फसल की उचित कीमत मिलनी बंद हो गई।
अब एक नए युग की शुरुआत हो रही है, जिसमें कृषि विपणन का सारा कामकाज निजी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है। सरकार पहले से ही कृषि उत्पादों की ख़रीद कम कर रही है, वह धीरे-धीरे उसे पूरी तरह बंद कर सकती है। ऐसे में किसान पूरी तरह निजी कंपनियों के रहमो-करम पर निर्भर हो जाएंगे।
सीमांत व छोटे ही नहीं, देर-सबेर मझोले व बड़े किसान भी कॉरपोरेट घरानों के निशाने पर आएंगे। ये आशंकाएं जताई जा रही है। यदि पंजाब के किसान इसका विरोध कर रहे हैं और दिल्ली की कंपकंपाती ठंड में यदि धरने पर बैठे हों तो उसका कारण समझा जा सकता है।
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