प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनवरी, 2019 में अंडमान निकोबार के पोर्ट ब्लेयर में सेलुलर जेल का मुआयना किया था और उस कोठरी में गए थे, जहां विनायक दामोदर सावरकर ने कुछ समय बिताया था। साल 2018 में उन्होंने 'मन की बात' कार्यक्रम में सावरकर की जम कर तारीफ़ की और उन्हें स्वतंत्रता सेनानी, कवि, चिंतक, समाजसेवी कहा। लेकिन मोदी यह भूल गए थे कि सावरकर पर महात्मा गाँधी की हत्या की साजिश रचने और इसके लिए लोगों को उकसाने का आरोप लगा था, उन पर मुक़दमा चला था और सिर्फ़ तकनीकी कारणों से उन्हें सज़ा नहीं हुई थी।
गोडसे के गुरु थे सावरकर
सावरकर उन आठ लोगों में से एक थे, जिन पर महात्मा गाँधी की हत्या में शामिल होने का आरोप लगा था और मुक़दमा चलाया गया था। मुक़दमे के दौरान पेश किए गए दस्तावेज़ के मुताबिक़, मुख्य अभियुक्त नाथूराम गोडसे सावरकर को सालों पहले से जानता था, उनसे पूरी तरह प्रभावित था और उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उसने हत्या की योजना बनाई और अंत में कामयाब हुआ। उसने 28 फरवरी 1938 को सावरकर को चिट्ठी लिखी।
गोडसे ने सावरकर को लिखा कि किस तरह सावरकर के रत्नागिरी जेल से छूटने और हिन्दू महासभा के प्रमुख का पद स्वीकार कर लेने के बाद उन युवाओं के मन में आशा का संचार हुआ है जो यह मानते हैं कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है।
विनायक दामोदर सावरकर
सावरकर ने गोडसे को दिए रुपये
गोडसे को 'हिन्दू राष्ट्र' नामक अख़बार शुरू करने के लिए सावरकर ने 15,000 रुपये दिए। यह उस समय बहुत छोटी रकम नहीं थी। गोडसे के अख़बार के मास्टहेड पर सावरकर की तस्वीर लगी होती थी। उसने इसका मैनेजर नारायण आप्टे को बनाया था, वही आप्टे जो गाँधी हत्या में गोडसे के साथ था और बाद में उसी के साथ उसे फाँसी दी गई थी। गाँधी हत्या की जाँच करने वाले बंबई के डीसीपी जमशेद नागरवाला की रिपोर्ट के अनुसार, सावरकर गोडसे को इतना मानते थे कि उसे 'पंडित गोडसे' कह कर पुकारते थे, अपने आधिकारिक दौरों पर भी साथ ले कर जाते थे। ऐसी अंतिम साथ-साथ यात्रा दोनोंं ने अगस्त 1947 में यानी गाँधी की हत्या से पाँच महीने पहले की थी।
जमशेद नागरवाला ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सावरकर को हत्या की पूरी योजना की जानकारी थी। उन्होंने लिखा, 'सूत्रों से हमें पता चला कि महात्माजी की जान लेने की योजना सावरकर के उकसाने पर रची गई थी और सावरकर ने राजनीति से दूर रहने और बीमार पड़ने का सिर्फ स्वाँग रचा था।'
'सावरकर के उकसावे पर रची गई थी साजिश'
इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है, 'आरएसएस के अंदर के गुप्त संगठन हिन्दू राष्ट्र दल पर मुख्य अभियुक्त गोडसे की अच्छी पकड़ थी, संगठन के लोग सावरकर की विचारधारा को मानते थे और हिन्दुओं के सैन्यीकरण के पैरोकार थे।' स्वयं सावरकर ने आप्टे और गोडसे के हिन्दू राष्ट्र दल में होने की बात मानी थी, पर यह कहा था कि इस संगठन से सिर्फ़ उनकी वैचारिक सहानुभूति थी। अदालत में पहली पंक्ति में गोडसे और आप्टे। अंतिम पंक्ति में काली टोपी और चश्मा लगाए हुए सावरकर।
सावरकर ने पाहवा की थपथपाई पीठ
महात्मा गाँधी की हत्या के 10 दिन पहले 20 जनवरी, 1948 को गोडसे, आप्टे और मदनलाल पाहवा ने बिड़ला हाउस के प्रार्थना कक्ष में विस्फोटक डाल दिया। गाँधी जी देर से आने के कारण बच गए थे। पाहवा पकड़ा गया था। इसके बाद पाहवा को जानने वाले जगदीश चंद्र जैन ने बंबई प्रेसीडेन्सी के तत्कालीन गृह मंत्री मोरारजी देसाई से मिल कर कहा था कि वे पाहवा को जानते थे। जैन ने बाद में पुलिस को बताया:
गोडसे पाहवा और करकरे को लेकर सावरकर के घर गया था। उसने सावरकर से उसकी मुलाक़ात कराई, उसकी तारीफ़ की थी कि किस तरह वह हिन्दू राष्ट्र के लिए वह प्रतिबद्ध है और उसकी योजना में शामिल है। इस पर सावरकर ने पाहवा की पीठ थपथपाई थी और अच्छा काम करते रहने की सलाह दी थी।
'गाँधी-नेहरू को ख़त्म कर दो'
पाहवा के बाद उसे विस्फोटक देने वाला दिगंबर रामचंद्र बडगे भी गिरफ़्तार कर लिया गया। बडगे बाद में सरकारी गवाह बन गया थाऔर उसने पूरे मामले का खुलासा किया था। बडगे के मुताबिक़, तात्याराव (वे लोग सावरकर को सम्मान से तात्याराव कहते थे) ने पाहवा से कहा था कि महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और शहीद सुहरावर्दी को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए और उन्होंने यह ज़िम्मेदारी गोडसे और उसकी टीम को दी थी।
नाथूराम गोडसे की पिस्तौल।
पुलिस ने 20 जुलाई से 30 जुलाई 1948 तक बडगे से पूछताछ की। जज आत्मा चरण ने बडगे के बयान, वकीलों की ज़िरह वगैरह को ध्यान से सुनने के बाद कहा कि उन्हें उसकी कही बातों पर पूरा यक़ीन है और उसकी सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता।
बडगे के बयान से साफ़ था कि सावरकर की विचारधार से गोडसे, आप्टे, पाहवा और दूसरे लोग प्रभावित थे, सावरकर गोडसे को लंबे समय से जानता था, सावरकर ने गाँधी को ख़त्म कर देने की ज़रूरत बताई थी इन लोगों पर इसकी ज़िम्मेदारी डाली थी। जब गोडसे चलने लगा तो सावरकर ने 'यशस्वी होहुन या' (सफल होकर वापस आओ) का आशीर्वाद भी उन्हें दिया था।
कैसे छूटे सावरकर?
लेकिन एक पेच यह था कि बडगे सरकारी गवाह बन चुका था। इसलिए किसी दूसरे आदमी की ज़रूरत थी, जो उसकी कही बातों की पुष्टि करे। यह बिल्कुल तकनीकी कारण था और इसी आधार पर सावरकर को सज़ा नहीं हुई। पूरे मुकदमे के दौरान सावरकर ने किसी दूसरे अभियुक्त से बात नहीं की, किसी ओर देखा तक नहीं, उनसे मिलने से इनकार कर दिया। बाद में गोडसे को सावरकर के इस व्यवहार पर बहुत ही दुख हुआ। 'सावरकर ने रची थी साजिश'
गोडसे की फाँसी के 18 साल बाद यानी 1966 में सावरकर की मौत हो गई। इसके दो साल बाद यानी 1968 में जस्टिस जीवन लाल कपूर की अगुआई में एक आयोग का गठन हुआ और उस आयोग ने सावरकर की भूमिका की जाँच एक बार फिर की। इस बार सावरकर के अंगरक्षक अप्पा रामचंद्र कसर और गजानन विष्णु डामले को भी पेश किया गया। उन दोनों ने ही बडगे की कही बातों की पुष्टि की।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, 'ये सभी तथ्य मिल कर इस थ्योरी की पुष्टि करते हैं कि हत्या की साजिश सावरकर और उसके समूह ने रची थी और किसी भी दूसरी थ्योरी को खारिज करते हैं।'
लेकिन तब तक सावरकर की मृत्यु के दो साल बीत चुके थे। तो इस तरह तकनीकी कारणों से सावरकर को हत्या की साजिश रचने में सज़ा नहीं हुई था, हालाँकि बाद में वह साजिश साबित भी हो गई।
बीजेपी के साथ अजीब स्थिति यह है कि वह हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को मानती है और इसके लिए सावरकर को अपना आदर्श पुरुष समझती है, लेकिन बीते कुछ वर्षों से उसने स्वयं को महात्मा गाँधी से भी जोड़ने की कोशिश की है। नरेंद्र मोदी गाँधी को महान बताते हैं, लेकिन उनकी हत्या के अभियुक्त और सिर्फ़ तकनीकी आधार पर छूटे सावरकर की तारीफ़ भी करते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में संसद के सेंट्रल हॉल में गाँधी की तस्वीर के पास ही सावरकर की तस्वीर भी लगवा दी और उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी कर दिया। वे गाँधी की तस्वीर पर फूल चढ़ाते थे और सावरकर की प्रतिमा पर भी।
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