कांग्रेस से अलग हो चुके पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी अलग पार्टी बनाने का एलान कर दिया है। नई पार्टी के पंजीकरण और चुनाव चिन्ह हासिल करने के लिए उनकी ओर से चुनाव आयोग में आवेदन भी किया जा चुका है। उन्होंने कहा है कि चुनाव चिन्ह आबंटित होने के बाद वे अपनी नई पार्टी का औपचारिक एलान करेंगे और उनकी पार्टी बीजेपी के साथ तालमेल करके पंजाब में विधानसभा चुनाव लड़ेगी।
उनकी इस पहलकदमी को कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया कांग्रेस के लिए नुकसानदेह बता रहा है लेकिन पंजाब के मौजूदा राजनीतिक हालात बताते हैं कि अगर कैप्टन अपने इस एलान पर सचमुच अमल करते हैं, यह कांग्रेस के बहुत बड़ी राहत की बात होगी।
ऐसा पहली बार नहीं होगा कि अमरिंदर सिंह कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाएंगे। अपने करीब पांच दशक के राजनीतिक सफर में वे पहले भी ऐसा प्रयोग कर चुके हैं और इसके असफल होने पर कांग्रेस में लौटे थे।
अलग पार्टी बनाने का पहला प्रयोग उन्होंने 1992 में शिरोमणि अकाली दल से अलग होकर किया था। गौरतलब है कि कैप्टन ने 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार यानी स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई से क्षुब्ध होकर कांग्रेस छोड़ दी थी और अकाली दल में शामिल हो गए थे। अलग होकर ही उन्होंने अपनी नई पार्टी बना कर खुद को आजमाया था लेकिन बुरी तरह नाकामी हाथ लगने पर फिर से कांग्रेस में लौट आए थे।
मनप्रीत बादल की बग़ावत
मनप्रीत बादल पंजाब के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले प्रकाश सिंह बादल के भतीजे हैं और 2007 में बनी बादल सरकार में वित्त मंत्री थे। इस तरह अपने चाचा की सरकार में उनकी हैसियत नंबर दो के मंत्री की थी। वे चाहते थे कि प्रकाश सिंह बादल के बाद पार्टी की कमान उनके हाथ में आए और वे मुख्यमंत्री बनें लेकिन उनको पता था कि ऐसा होगा नहीं और अकाली दल की कमान सुखबीर बादल के हाथ में ही जाएगी। इसलिए उन्होंने अपने चाचा के खिलाफ बगावत करके पंजाब पीपल्स पार्टी बनाई थी और 2012 का विधानसभा का चुनाव लड़ा था।
मनप्रीत बादल के अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने का अकाली दल को यह फायदा हुआ था कि सरकार विरोधी वोट उनकी पार्टी और कांग्रेस के बीच बंट गए थे, जिससे अकाली दल अपने वोट घटने के बावजूद लगातार दूसरी बार सत्ता में आ गया था। मनप्रीत बादल की पार्टी एक भी सीट नही जीत पाई थी।
तो जो काम 2012 में अकाली दल के लिए मनप्रीत बादल ने किया था, वही काम इस बार कांग्रेस के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह करेंगे। अगर अमरिंदर सिंह अकेले चुनाव लड़ने का फैसला करते तो शायद कांग्रेस को फायदा पहुंचने की संभावना नहीं रहती, क्योंकि आखिर साढ़े चार साल तक तो पंजाब में उन्होंने ही सरकार चलाई है, इसलिए सरकार से नाराज वोट उनको नहीं मिलते।
लेकिन चूंकि वे बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरेंगे, इसलिए सरकार विरोधी वोटों का एक हिस्सा उनके खाते में भी जाएगा। ऐसा होने पर सीधा फायदा कांग्रेस को होगा।
पंजाब में कांग्रेस का मुख्य मुकाबला अकाली दल और आम आदमी पार्टी से है। अगर इन दोनों पार्टियों में से किसी भी एक की तरफ सरकार विरोधी वोटों का ध्रुवीकरण होता तो कांग्रेस को नुकसान होता।
सियासी गणित
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के पास जाट सिख वोट के अलावा दूसरी पूंजी नहीं है और वही वोट अकाली दल की भी पूंजी है और उसी वोट का एक हिस्सा आम आदमी पार्टी के साथ भी रहा है। अगर कैप्टन और बीजेपी का गठबंधन इस वोट बैंक में सेंध लगाता है और चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में दलित मुख्यमंत्री बनाए जाने से अगर 32 फीसदी दलित वोट एकमुश्त कांग्रेस को मिलता है और 31 फीसदी ओबीसी वोट का कुछ हिस्सा भी कांग्रेस के साथ जाता है तो वह दोबारा चुनाव जीत सकती है।
सूबे में मुसलिम और ईसाई आबादी तीन फीसदी से कुछ ज्यादा है। उसका वोट भी कांग्रेस के साथ ही जाएगा।
सतर्क है कांग्रेस
हालांकि अमरिंदर सिंह अपनी नई पार्टी की संभावनाओं को लेकर बहुत ज्यादा आशान्वित हैं। उन्हें लगता है कि उनकी नई पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ आ जाएगा। हालांकि इस बात की संभावना बहुत कम है, फिर भी कांग्रेस सतर्क है। पार्टी के नए प्रभारी और प्रदेश कांग्रेस के पदाधिकारी उन नेताओं की सूची बना रहे हैं, जो कांग्रेस छोड़कर कैप्टन की पार्टी में जा सकते हैं।
कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि कैप्टन के साथ जाने वाले संभावित नेताओं की सूची बहुत लंबी नहीं है। जो नेता विभिन्न कारणों से नाराज हैं उनमें से भी बहुत कम कैप्टन के साथ जाना चाहते हैं।
परनीत कौर कांग्रेस में ही रहेंगी!
पार्टी के विधायकों में तो दो-तीन ही ऐसे हैं जो कैप्टन के साथ जा सकते हैं। इस सिलसिले में कांग्रेस के एक नेता का कहना है कि अगर कैप्टन में हिम्मत होती तो वे पत्नी और पटियाला से कांग्रेस की सांसद परनीत कौर से ही इस्तीफा दिलवा कर उनको उपचुनाव लड़ाने और जिताने की चुनौती स्वीकार कर लेते। अगर कैप्टन ऐसा करते तो कांग्रेस को नुकसान हो सकता था और ज्यादा लोग पार्टी छोड़ कर उनके साथ जा सकते थे। लेकिन ऐसा करने के बजाय कैप्टन ने तो अपनी अलग पार्टी का एलान करने के साथ ही यह भी साफ कर दिया है कि उनकी पत्नी कांग्रेस की सांसद हैं और वे कांग्रेस नहीं छोड़ रही हैं।
कैप्टन के इस बयान के बाद तो कांग्रेस के दूसरे नेताओं के उनके साथ जाने की संभावना और भी कम हो गई है।
अपनी राय बतायें