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अमृत महोत्सव: देशभक्ति के प्रमाणपत्र की बार-बार माँग क्यों?

देश के एक सौ चालीस करोड़ नागरिकों की कल्पना का तिरंगा तो पीएम द्वारा किए गए आह्वान के काफ़ी पहले से पटना में सचिवालय के बाहर महान मूर्तिकार देवीप्रसाद राय चौधरी की अभिकल्पना का मूर्त रूप धारण किए सात युवा शहीदों की जीवनाकार कांस्य प्रतिमा में अंकित है। देशभक्ति के जज़्बे से रोमांचित कर देने वाली यह प्रतिमा उन सात युवा छात्रों के संकल्प का दर्शन कराती है जिन्हें ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान तिरंगा फहराने के प्रयास में 11 अगस्त 1942 को अंग्रेजों द्वारा निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया था। सात युवाओं में तीन कक्षा नौ में पढ़ाई करते थे। पच्चीस अन्य युवा गम्भीर रूप से घायल हो गए थे।

तिरंगे की भारतीय कहानियाँ खून और आंसुओं से लिखी हुईं और देश भर में बिखरी पड़ी हैं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान किए गए देशभक्ति के संघर्ष को इस समय राष्ट्रवाद के गोला-बारूद में ढाला जा रहा है। आज़ादी प्राप्ति के अमृतकाल को विभाजन की विभीषिका की पीड़ादायक स्मृतियों से रंगकर साम्प्रदायिक विद्वेष की होली मनाई जा रही है।

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सत्ताएँ जब जनता को उसके सपनों की समृद्धि हासिल करवाने में नाकामयाब हो जाती है तो वे बजाय अपनी विफलताओं को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर पश्चाताप करने के या तो समाज के कमजोर वर्ग के ख़िलाफ़ शस्त्र धारण करने का उद्घोष करने वाली धर्म संसदों की आड़ में छुपने लगती हैं या फिर अपने नागरिकों के हाथों में झंडे थमा देती हैं। झंडा तब राष्ट्र के नागरिकों की अंतरात्मा और आकांक्षाओं के स्थान पर व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक बन जाता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने आज़ादी के अमृत महोत्सव के दौरान तेरह से पंद्रह अगस्त तक हर घर में तिरंगा फहराने का आह्वान नागरिकों से किया है। प्रधानमंत्री ने यह अपील भी की है कि सभी लोग अपने सोशल मीडिया अकाउंट में तिरंगे की डीपी (डिस्प्ले पिक्चर) लगाकर इस राष्ट्रीय अभियान को और सशक्त बनाएँ। सरकार तिरंगे के लिए खादी का कपड़ा ही होने की अनिवार्यता पहले ही समाप्त कर चुकी है। अब हाथ या मशीन से बना हुआ कपास/ पॉलिएस्टर/ऊन/रेशमी खादी का तिरंगा भी घरों पर चौबीसों घंटे फहराया जा सकता है। बताया गया है कि तिरंगा तैयार करने से ही साढ़े सात सौ करोड़ रुपए का कारोबार होने का अनुमान है।

प्रधानमंत्री को पूरा अधिकार है कि वे समय-समय पर देश के नागरिकों का आह्वान करते रहें। हमारे कई पूर्व प्रधानमंत्री भी ऐसा करते रहे हैं पर केवल राष्ट्रीय संकटों के दौरान अथवा किसी महत्वपूर्ण अवसर पर। देश में अन्न-संकट के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के आह्वान पर पूरा देश सप्ताह में एक दिन उपवास रखता था।

चीनी आक्रमण के दौरान पंडित नेहरू के आह्वान पर देशवासियों द्वारा किए गए त्याग की अनेक कथाएँ हैं। नागरिक अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहते थे। उनका उत्साह स्व-स्फूर्त रहता था। तत्कालीन सत्ताओं ने न तो कभी नागरिकों के राष्ट्रप्रेम की परीक्षाएँ लीं और न ही अपने आह्वानों को राष्ट्रीय उत्सवों में परिवर्तित किया।

याद यह भी किया जा सकता है कि आज़ादी के पचास साल पूरे होने पर ‘स्वर्ण जयंती’ वर्ष को तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किस तरह से मनाया था, देश को किस तरह की सौग़ातें उन्होंने रजत जयंती के नाम से दी थीं या, आज़ादी की साठवीं वर्षगाँठ या ‘हीरक जयंती’ के अवसर पर पंद्रह साल पहले देश में किसकी सरकार थी और तब क्या हुआ था? ‘हीरक जयंती’ शब्द का उपयोग तो पचहत्तरवीं वर्षगाँठ के लिए भी किया जाता है।

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साल 2020 के पीड़ादायक कोरोना काल में जब देश भारी संकट से गुज़र रहा था, प्रधानमंत्री मोदी ने आह्वान किया था कि 22 मार्च की शाम नागरिक अपने घरों के दरवाज़ों, खिड़कियों के पास या बॉलकनियों में खड़े होकर पाँच मिनट तक ताली-थाली बजाकर अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मियों की सेवाओं के प्रति धन्यवाद का ज्ञापन करेंगे। तमाम अभावों और कष्टों को भूलकर नागरिकों ने प्राणप्रण से प्रधानमंत्री की भावनाओं का सम्मान किया। उसके बाद क्या हुआ?

दवाओं, ऑक्सीजन की कमी और कोविड से निपटने की अपर्याप्त सरकारी कोशिशों की जानकारी और नागरिक मौतों के आँकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्टों में तलाश किए जा सकते हैं। कोविड के टीकों को लेकर हासिल की गई उपलब्धि की चर्चा तो प्रधानमंत्री दुनिया भर में गर्व के साथ करते हैं पर आज़ादी के अमृतकाल के ठीक पहले कोविड से हुई लाखों मौतों के सवाल पर वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के दावों को कोई चुनौती नहीं देते। ग़लत-सही आरोप यह है कि प्रधानमंत्री हरेक आह्वान को अपनी लोकप्रियता और सरकार की उपलब्धि में तब्दील करके उसे दुनिया के दूसरे मुल्कों के सामने भारत की ताक़त के रूप में पेश कर देते हैं।

पूछा जा सकता है कि देश के 140 करोड़ नागरिकों (जिनमें वे बाइस करोड़ मुसलिम भी शामिल हैं जिनकी भारतीयता और देशभक्ति को पिछले पचहत्तर सालों में शक की नज़रों से देखा जा रहा है) से उनकी राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बार-बार क्यों माँगा जाना चाहिए?

बहुत मुमकिन है कि मदरसों और मस्जिदों की छतों पर दूर से ही नज़र आ जाने वाले तिरंगे सरस्वती शिशु मंदिरों और हिंदू धार्मिक स्थलों से पहले ही लगा दिए गए हों। संदेह होता है कि अपने आह्वानों के परिपालन के आँकड़ों के माध्यम से प्रधानमंत्री नागरिकों के उनके प्रति प्रेम की परीक्षा लेते रहते हैं! जो नज़र आ रहा है वह यह भी है कि तिरंगे को राष्ट्र के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करने से अधिक देश के प्रति वफ़ादारी साबित करने का अवसर बनाया जा रहा है।

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एनडीए-शासित उत्तराखंड राज्य के भाजपा प्रमुख के हवाले से वायरल हुए वीडियो में अगर कोई सच्चाई है तो उनका कहना है, “यदि लोग अपने घरों पर तिरंगा नहीं फहराएँगे तो उनके राष्ट्रवाद पर सवाल उठाया जा सकता है। …मुझे उन घरों की तस्वीरें दिलवाएँ जहां तिरंगा नहीं फहराया गया हो। लोग देखना चाहेंगे कि कौन राष्ट्रवादी है और कौन नहीं !” नागरिक डरे हुए हैं। वे स्वीकार नहीं करना चाहते हैं कि तिरंगे को लेकर सरकार उन्हें डराने की भावना रखती है। पर ऐसा हो रहा है।

प्रधानमंत्री के आह्वान की इसे सबसे बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है कि तिरंगे को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ख़िलाफ़ आज़ादी के बाद से ही लगाए जा रहे रहे आरोप तात्कालिक रूप से ही सही ख़ारिज हो गए हैं। संघ ने तिरंगा भी फहरा लिया है और अपनी डीपी भी बदल ली है। ’मोदी हैं तो मुमकिन है’ मानकर चला जा सकता है कि प्रधानमंत्री का कोई नया आह्वान संघ की विचारधारा को भी बदलकर उदार बना देगा। हो सकता है तब अल्पसंख्यक सहित देश के सभी नागरिक देशप्रेम को लेकर बार-बार परीक्षा देते रहने के भार से मुक्त हो जाएँगे।

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श्रवण गर्ग
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