वेद प्रताप वैदिक अब नहीं हैं- यक़ीन नहीं आता। कुछ दिन पहले जंगपुरा में हम मिले थे। एक जन्म दिन पार्टी में। उस दिन वे सामान्य नहीं थे। कुछ उद्विग्न थे। हिंदी समाचार पत्रों की भाषा को लेकर दुखी थे। कह रहे थे, "हर अख़बार का मैनेजमेंट तो एक जैसा ही होता है। लेकिन इन पत्रकारों और संपादकों को क्या हो गया है? वे करोड़ों पाठकों को भाषा के नाम पर कैसे ठग सकते हैं?