वेद प्रताप वैदिक अब नहीं हैं- यक़ीन नहीं आता। कुछ दिन पहले जंगपुरा में हम मिले थे। एक जन्म दिन पार्टी में। उस दिन वे सामान्य नहीं थे। कुछ उद्विग्न थे। हिंदी समाचार पत्रों की भाषा को लेकर दुखी थे। कह रहे थे, "हर अख़बार का मैनेजमेंट तो एक जैसा ही होता है। लेकिन इन पत्रकारों और संपादकों को क्या हो गया है? वे करोड़ों पाठकों को भाषा के नाम पर कैसे ठग सकते हैं?
अगर हिंदी का शब्द नहीं हो तो एक बार अँगरेज़ी का शब्द स्वीकार किया जा सकता है। मगर, हिंदी में जब अँगरेज़ी से बेहतर शब्द हैं तो उनका इस्तेमाल क्यों नहीं होता? यदि हिंदी नहीं सूझे तो उर्दू का शब्द उठा लो। वह भी हमारे हिन्दुस्तान से जन्मी है, पर हमारे हिंदी संपादक और पत्रकार सुधरना ही नहीं चाहते"। इसी पर हम देर तक माथा पच्ची करते रहे। यह हमारी अंतिम मुलाक़ात थी। इसके बाद एकाध बार फ़ोन पर बात हुई। पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के रिश्तों के बारे में। अक़्सर हम ऐसे विषयों पर आपस में चर्चा करते रहते थे। अब हमेशा के लिए ये चर्चाएँ थम गई हैं। सिर्फ़ यादों की तस्वीर बाक़ी है।
बात संभवतया 1981 के आख़िर की है। मैं उन दिनों नई दुनिया का सह संपादक था। राजेंद्र माथुर हमारे प्रधान संपादक थे। वैदिक जी उन दिनों नवभारत टाइम्स में थे। वे चूँकि पत्रकारिता के इंदौर घराने से ही निकले थे इसलिए महीने दो महीने में इंदौर आते रहते थे। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई थी। उनके संपादन में प्रकाशित ग्रन्थ पत्रकारिता के विविध आयाम मैं पढ़ चुका था। मैंने उसकी तारीफ़ की। उन्होंने कहा कि तमाम सावधानी के बाद भी इसमें कई त्रुटियाँ रह गई हैं। अगले संस्करण में इनको दूर करूँगा। और वे मुस्कुरा दिए। इतने में प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर आ गए। वैदिक जी उनका बड़ा सम्मान करते थे। माथुर जी उनसे लगभग दस साल बड़े थे। दोनों के बीच यह इंदौरी रिश्ता हरदम बना रहा।
असल में उनके भीतर हिंदी प्रेम तो कॉलेज के दिनों में ही जाग गया था। जाने माने हिंदी प्रेमी और मूर्धन्य संपादक राहुल बारपुते, सरोज कुमार, कृष्ण चंद पंत और प्रभाष जोशी की सोहबत ने उनके राष्ट्रभाषा प्रेम को और निखारा। कुछ समय उन्होंने नई दुनिया में काम किया। इसके बाद वे दिल्ली आ गए। जेएनयू से उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के मामलों पर अपनी पीएचडी की। अपना शोध प्रबंध उन्होंने हिंदी में दाख़िल किया था। लेकिन विश्वविद्यालय उनसे अँगरेज़ी में शोध प्रबंध चाहता था। विरोध में वैदिक जी धरने पर बैठ गए। उनके धरने को व्यापक समर्थन मिला। अंततः विश्वविद्यालय को झुकना पड़ा और वैदिक जी जीत गए।
वैदिक जी ने ‘भाषा’ की भाषा चमका दी। देखते ही देखते कमोबेश प्रत्येक हिंदी समाचार पत्र भाषा का मुरीद हो गया। भाषा के टेलिप्रिंटर अखबारों के न्यूज़ रूम का अनिवार्य अंग बन गए। वैदिक जी की पत्रकारिता का यह सुनहरा दौर था।
टेलिप्रिंटर में हिंदी भाषा के फॉन्ट भी इसी कालखंड में सुधरे। मुझे याद है कि एक दिन मैं नई दुनिया में काम कर रहा था तो वैदिक जी ने मुझे समाचार संपादक पद पर काम करने का ऑफर दिया। लेकिन तब तक मुझे राजेंद्र माथुर जी ने नव भारत टाइम्स के लिए चुन लिया था। इसलिए मैंने विनम्रतापूर्वक उस निमंत्रण को नामंज़ूर कर दिया। लेकिन नवभारत टाइम्स के दिनों में उनके साथ गपशप का भरपूर मौक़ा मिला। वे देश में हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए समर्पित हो गए थे। हाल के वर्षों में वे सम सामयिक विषयों पर क़रीब क़रीब रोज़ ही एक आलेख लिख रहे थे। स्वतंत्र पत्रकार होने के नाते कह सकता हूँ कि प्रतिदिन लिखना आसान नहीं होता। लेकिन वैदिक जी के लिए यह चुटकियों का काम था। उनके आलेख पाठकों को झकझोरते थे।
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