श्याम बेनेगल ने अपनी पहली ही फिल्म अंकुर के क्लाइमेक्स में एक बच्चे को पत्थर मारकर काँच तोड़ते हुए व्यवस्था के प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर दिखाया था। बेनेगल ने एक नितांत नयी सी प्रगतिशील सोच के साथ भारतीय सिनेमा में मानवीय समस्याओं के प्रस्तुतिकरण के प्रचलित रूपकों को तोड़ने का जो सिलसिला पहली ही फिल्म से शुरू किया, उनके समूचे काम में उसकी निरंतरता ने उन्हें समानांतर सिनेमा के एक दिग्गज के तौर पर स्थापित किया।
दमन के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज़ है श्याम बेनेगल का सिनेमा
- श्रद्धांजलि
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- 24 Dec, 2024

ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म बावर्ची में एक संवाद है- इट इज़ सो सिंपल टु बी हैप्पी, बट इट इज़ सो डिफिकल्ट टु बी सिंपल। सरल होना सचमुच बहुत कठिन है। श्याम बेनेगल इस अर्थ में बहुत विरल इंसान थे।
14 दिसंबर 1934 को हैदराबाद में जन्मे और वहाँ की मिलीजुली तहज़ीब के बीच पले-बढ़े श्याम बेनेगल ने नब्बे वर्ष के दीर्घ जीवन में इतना ज्यादा, इतना विविधतापूर्ण काम किया है, इतनी व्यापकता का काम किया है कि उस सब को समेटते हुए कुछ भी तात्कालिक तौर पर लिखना बहुत कठिन काम है। उनके काम में बहुत विस्तार है। अँकुर, चरनदास चोर, निशांत, मंथन, कोंडुरा, भूमिका, जुनून, कलयुग, आरोहण, मंडी, त्रिकाल, सुसमन, अंतर्नाद, सूरज का सातवाँ घोड़ा, मम्मो, सरदारी बेगम, द मेकिंग ऑफ़ महात्मा, समर, हरी-भरी, ज़ुबैदा, नेताजी सुभाष चंद्र बोस: द फॉरगॉटेन हीरो, वेलकम टु सज्जनपुर, वेल डन अब्बा, मुजीब: द मेकिंग ऑफ़ ए नेशन उनकी फ़ीचर फिल्में हैं।