श्याम बेनेगल नहीं रहे। अभी हाल में अपनी जिंदगी के 90वें पड़ाव को पार करते हुए अपने साथियों और चहेतों से घिरे हुए श्याम बाबू के चेहरे पर वही मुस्कान थी जो इनके व्यक्तित्व को उभारती थी, फिल्म जगत में उनके हिमालय सी शख्सियत को और बुलंदी देती थी। बीमार चल रहे थे मगर फिर भी सवालों के जवाब में नई फ़िल्मों के विषयवस्तु की बात कर रहे थे, और उनके चाहने वाले दुआ कर रहे थे कि तबीयत संभले और श्याम बेनेगल एक और फिल्म इस देश दुनिया और समाज को भेंट करें...।
1989। जाने माने फिल्मकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता रमेश शर्मा श्याम बेनेगल पर डॉक्यूमेंट्री शूट कर रहे थे, और हम नौसिखिए इंटरव्यू के दौरान लॉग शीट हाथ में लिए फटी फटी आंखों से श्याम बाबू को देख रहे थे। जी हाँ, समानांतर सिनेमा के ज़रिये उभरे श्याम बेनेगल तब भी लगभग डेढ़ दशक से एक के बाद एक शाहकार फ़िल्में बना कर एक सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर चुके थे।
1974 मंथन। फिल्म क्या थी भारत के समाज में फैली हुई सामंती व्यवस्था, जाति-पात की ऊंच-नीच और उसमें शोषित होते निचले वर्ग के दर्द की एक दिल को छू लेने वाली कहानी थी। लेकिन मुहावरा बिलकुल नया था। फिल्म में कोई भी सितारा नहीं था, थे तो केवल प्रतिभाशाली अदाकार जिनकी कोई पहले से बनी हुई छवि नहीं थी। स्टूडियो में बना हुआ नकली दिखने वाला गांव नहीं था। भारतीय सिनेमा में जिस यथार्थवाद को हमने सत्यजित रे की शुरुआती फिल्मों में देखा था वह इटालियन नियो रियलिज्म और फिर फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा से निकली क्रांतिकारी फिल्म और अन्य कलात्मक सिलसिलों का एक संगम था। ये वही मुहावरा था जिसे आगे चलकर भारतीय न्यू वेव या समानांतर सिनेमा को परिभाषित कर रहा था। भारतीय दर्शक वर्ग के लिए ये फिल्म उन कुछ एक फिल्मों में से थी, जिसने आगे चलकर हिंदी में अच्छे सिनेमा के मानक ही बदल दिए। इसी मिजाज और यही तेवर हमें उनकी अगली दो फिल्मों- निशांत और मंथन में भी देखने को मिली। ये सिनेमा एक स्थूल और उंघते हुए समाज को जगाने की कोशिश थी, इनमें औरत की सिस्की थी, वर्णवाद से शोषित समाज का अर्तनाद भी था और सबके खिलाफत-बगावत करने की प्रेरणा भी थी और सबसे अछूते एक मध्यम पढ़े लिखे शहरी मध्यम वर्ग से दो चार करने की ईमानदार कोशिश भी थी।
हाल ही में मंथन की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। गुजरात के दो करोड़ किसानों के चंदे से बनी ये फिल्म वहाँ की दूध सहकारी संस्था के बनने की कालजयी दास्तां थी, जिसके जीते जागते और सच्चे पात्रों को सिनेमा के पर्दे पर चरितार्थ करना था। अमूल के जन्म की कहानी थी। वनराज भाटिया के सुर, प्रीति सागर के स्वर में, इस फिल्म का एक गीत ‘मेरो गाम’ आज भी सहकारिता आंदोलन का परिचय गीत है।
औरत के किरदार श्याम बेनेगल के सिनेमा के ठीक बीचों बीच होते थे, भले ही वो उनकी शुरुआती फिल्में हों या फिर बाद की।
अभिनेत्री हंसा वाडकर पर बनी भूमिका में स्मिता पाटिल की अभिनय क्षमता अपने उरूज पर थी। इस फिल्म में अलग-अलग समय को दर्शाने के लिए श्याम बेनेगल ने कई तकनीकी प्रयास किये जिन्हें बाद के फिल्मकारों ने भी इस्तेमाल किया। लेकिन तकनीकी उठा-पटक ने भी स्क्रिप्ट पर उनकी पकड़ को कभी ढीला नहीं होने दिया। मम्मो की फरीदा जलाल, और सरदारी बेगम की किरण खेर में बेनेगल ने दो अलग-अलग दुनिया में बसती औरतों की कहानी बयाँ की।
बेनेगल को खाली बैठना पसंद नहीं था... वो कैमरा, लाइट्स, अभिनेता और अभिनेत्रियों से हमेशा घिरे रहते थे। ये भी एक वजह थी कि उन्होंने टेलीविजन पर भी जम कर काम किया। पंडित नेहरू की कलातीत कृति, डिस्कवरी ऑफ इंडिया, का उतना विस्तृत चित्रण और 5000 साल पुरानी सभ्यता को एक, दो, ढाई घंटे की फिल्म में समेटना नामुमकिन था। भारत एक खोज एक महाकाव्य सी अलग-अलग खंडों में बनी। कथानक कुछ यूं तैयार किया गया कि सिनेमा की शैली के साथ-साथ भारत की समृद्ध शास्त्रीय और लोकपरंपराओं का बाकमाल प्रयोग हुआ। रंगमंच की शैली में सूत्रधार का इस्तेमाल हुआ, तो कथकली की शैली में दुशासन के वध की रोम हर्षक कथा सुनाई गई। धर्मवीर भारती की अंधा युग पर आधारित श्री कृष्ण और मां गांधारी के संकल्प का चित्रण हुआ।
श्याम बेनेगल की फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। लेकिन ये विस्तार कभी किसी दायरे में बंधे नहीं रहे। सामाजिक चेतना के पटल पर जो विषय होते थे, या फिर वो इस एक नई पौध का परिचय करवाना चाहते थे, अलग-अलग कालखंडों में बेनेगल का सिनेमा यही काम करता रहा, भले ही वो टेलीविजन हो या सिनेमा। एक नई पौध जिसमें किताब पढ़ने के धैर्य की कमी लगी, उनको बेनेगल ने अपने टीवी सीरियल के माध्यम से विश्व साहित्य से परिचय करवाया। कथा सागर का हर एपिसोड, टॉल्स्टॉय, डोस्टयेव्स्की, मौपासेंट, ओ हेनरी, समरसेट मौघम, लू शुन को सहज हिंदी में कलात्मकता के साथ रूपान्तरित करना श्याम बेनेगल के कार्यजीवन की एक बड़ी कामयाबी है।
1989 के बाद मैं कभी श्याम बेनेगल से दो चार नहीं हुआ। लेकिन मीडिया में रहते, कई बार दूसरे से उनका इंटरव्यू करवाया। श्याम बेनेगल लगभग हर विषय पर न सिर्फ अच्छी पकड़ रखते थे मगर धाराप्रवाह बोल भी सकते थे। विषय सिनेमा हो या सामाजिक उथल-पुथल, श्याम बाबू कहानी को निखार देते थे, और मुझे वही दिन याद आ जाता था- हंसी तो वही थी, पर चेहरे पर वक्त अपना निशान छोड़ने लगा था, जो टीवी मॉनिटर के मिड शॉट में और भी उभर आता था।
1934 में जन्मे श्याम बेनेगल के पिता की एक फोटोग्राफी की दुकान थी। एक सोलह एमएम का कैमरा था जिसे लेकर वो अपने 10 बच्चों के साथ ही खेल खेल में फिल्में बनाते थे। हां, महान फिल्मकार गुरुदत्त रिश्ते में बड़े भाई लगते थे, जिनका बचपन में गहरा असर पड़ा। 1948 में तेलंगाना के किसान आंदोलन ने पहली बार सामाजिक सरोकार की तरफ ध्यान आकर्षित किया, जिसकी गूंज आगे सिनेमा में देखने को मिली। मुंबई में विज्ञापन की कॉपी लिखने के चलते आए और खूब सारी विज्ञापन फिल्मों में अपना हाथ पकाया, अपना देखने का और बात को सिनेमाई तरीके से रखने का एक अनूठा अंदाज़ पैदा किया।
23 दिसंबर को श्याम बेनेगल इस दुनिया से चले गए। लेकिन श्याम बेनेगल की तासीर इतनी गहरी है और भारतीय सिनेमा को कुछ इस कदर प्रभावित कर चुकी है कि उनके जिस्म की मौत से उनकी शख्सियत का इंतकाल नहीं हो सकता। फिल्मकारों की आने वाली कई पीढ़ियां पर श्याम बेनेगल का प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष प्रभाव रहेगा। क्योंकि श्याम बेनेगल अपने जीते जी ही एक परंपरा बन चुके थे।
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