तो अब यह साफ़ हो गया है कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने सत्ता में बने रहने के लिए अपने राष्ट्र के हितों और अंतरराष्ट्रीय मान्य लोकतान्त्रिक सिद्धांतों को ताक में रख दिया है। वे घोषित आतंकवादियों को बचाने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी की दुहाई दे रहे हैं। उन्हें एक लोकतांत्रिक देश की संप्रुभता मानवीय मूल्य याद नहीं आते।
यदि उनका यह व्यवहार उचित मान लिया जाए तो जब अमेरिकी कमांडो ने पाकिस्तान में ख़तरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मारा तब कनाडा ने अमेरिका का विरोध क्यों नहीं किया? अमेरिका के इस प्यारे पड़ोसी को पाकिस्तान की संप्रभुता की चिंता नहीं हुई। यही नहीं, इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को जिस तरह मारा गया, वह क्या इराक़ की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं था? इराक़ के बारे में जो ख़ुफ़िया सूचनाएँ इन पाँच देशों ने साझा की थीं, क्या वे ग़लत साबित नहीं हुईं? क्या यह सच नहीं है कि खालिस्तान के लिए कनाडा और ब्रिटेन की धरती से पृथकतावादियों और उग्रवादियों को दशकों से प्रोत्साहन दिया जाता रहा और भारत के ढेरों विरोध पत्रों को कूड़ेदान में फेंक दिया गया?
जस्टिन ट्रुडो के पिता भी प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनके कार्यकाल में ख़ालिस्तानी उग्रवादी संगठनों को पनाह दी जाती रही। इसका अर्थ यही है कि वर्तमान कनाडाई प्रधानमंत्री अपने पिता पियरे ट्रुडो की राह पर चल पड़े हैं और उग्रवादियों के दबाव में काम कर रहे हैं। हालाँकि पियरे उग्रवादियों के दबाव में नहीं थे पर उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। उस दौर में अमेरिका, कनाडा और काफी हद तक ब्रिटेन का रुख़ पाकिस्तान के पक्ष में झुका हुआ था। सोलह साल तक प्रधानमंत्री रहते हुए पियरे ट्रुडो भारत विरोधी तत्वों को भरपूर समर्थन देते रहे।
दरअसल, जस्टिन की सरकार खालिस्तान का खुल्लमखुल्ला समर्थन करने वाले न्यू डेमोक्रेटिक दल की बैसाखी पर टिकी हुई है। यह दल जगमीत सिंह की अगुआई में चल रहा है। जस्टिन ट्रुडो की लिबरल पार्टी अल्पमत में थी और इस न्यू डेमोक्रेटिक दल ने समर्थन दिया तो जस्टिन ने सरकार बनाई। कनाडा की संसद में 338 स्थान हैं। पिछले चुनाव के बाद जस्टिन की पार्टी के पास केवल 157 सांसद हैं। उनके पास बहुमत नहीं होने से ख़ालिस्तान समर्थक पार्टी के 24 सांसदों से समर्थन लेने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। कंज़र्वेटिव पार्टी को केवल 121 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। अब अगले चुनाव 2025 में होने हैं और जस्टिन ट्रुडो की लोकप्रियता में बेहद गिरावट आई है। बेशक पहला निर्वाचन उनके लिए बहुमत लेकर आया था मगर बाद में वे चुनाव दर चुनाव जनाधार खोते गए।
ट्रुडो बहामा के द्वीप पर अपने एक मुस्लिम अरबपति मित्र के न्यौते पर सपरिवार सैर सपाटे के लिए गए थे। इसका कनाडा में बड़ा विरोध हुआ था। वहाँ के क़ानून के मुताबिक़ कोई प्रधानमंत्री इस तरह का उपकार नहीं ले सकता। ट्रुडो इसके लिए अप्रत्यक्ष रूप से माफ़ी माँग चुके हैं।
भारत ने जुलाई में कनाडा के उच्चायुक्त को तलब किया और कहा कि अपने देश में भारत विरोधी ख़ालिस्तानी गतिविधियाँ रोकें। कनाडा ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इसके बाद समूह जी-20 की बैठक के बाद जस्टिन ट्रुडो का रवैया किसी से छिपा नहीं रहा। बेहद आक्रामक मुद्रा में ट्रुडो नज़र आए और भारत के साथ उन्मुक्त कारोबार की प्रक्रिया स्थगित कर दी। ट्रुडो संसद में निज्जर की हत्या के पीछे भारत का हाथ बताते हैं और एक राजनयिक को अपने देश से निकाल देते हैं। जवाब में भारत ने भी यही उत्तर दिया। अब ट्रुडो सारे दूसरे देशों से समर्थन मांग रहे हैं पर उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही है। अमेरिका तथा ब्रिटेन से उन्हें बड़ी उम्मीदें थीं। इन दोनों राष्ट्रों ने भी कनाडा के प्रति कोई प्रेमभाव नहीं प्रदर्शित किया। इस मामले में तो ब्रिटेन ने उलटे झटका दिया। उसने न केवल भारत के समर्थन में खुलकर बयान दिया बल्कि बाईस पाकिस्तानियों को भारत विरोधी हिंसा के लिए दोषी माना। अब उनके ख़िलाफ कार्रवाई हो रही है।
ब्रिटेन के लेस्टर में अब घर घर सर्वेक्षण हो रहा है और वहाँ रहने वालों के बारे में कड़ी जाँच कराई जा रही है। कभी टीवी और रेडियो के प्रस्तोता रहे जस्टिन ट्रुडो के लिए यह सबक़ है। उन्हें समझना चाहिए कि सियासत मज़ाकिया ढंग से लेने का विषय नहीं है। भारत के ख़िलाफ़ 1947 के बाद से कोई देश यह आरोप नहीं लगा सकता कि उसने उसके नागरिकों को मारा है जबकि ख़ुद कनाडा के ख़िलाफ़ अमेरिका से मिलकर ऐसी गतिविधियों में सहयोग का आरोप है।
(साभार - लोकमत)
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