रंगशिल्पी बंसी कौल की असामयिक विदाई अकेले हिंदी रंगकर्म के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय डिज़ाइन कला के लिए भी गहरे सदमे का सबब है। वह जैसे शानदार रंग निर्देशक थे, वैसे ही अद्भुत कला निर्देशक भी। बी वी कारंथ के बाद वह इब्राहिम अल्काज़ी के दूसरे ऐसे शिष्य थे जिन्होंने अपने गुरु के हिंदी रंगकर्म की पाश्चात्य पेंचबंदी को तोड़ कर हिंदी रंगकर्म को उसकी मिट्टी से रचने की पहल की।
बंसी कौल : रंगकर्म की एक और भयानक क्षति
- श्रद्धांजलि
- |
- |
- 7 Feb, 2021

बंसी कौल ने अंततः ड्रामा स्कूल से निकलने के 11 साल बाद भोपाल में जमने का फ़ैसला करते हैं। यहाँ 1984 में उन्होंने 'रंग विदूषक' नाट्य संस्था की स्थापना की। ...ऐसे दौर में जबकि हिंदी रंगकर्म का आकार निरंतर संकुचित होता जा रहा है और ज़रूरत उसके भीतर लोक नाट्य के नए-नए तत्वों और विचारों के समावेश की है, तब बंसी कौल का चले जाना एक वटवृक्ष के ढह जाने के समान है।
कश्मीर में जन्मे और वहाँ पढ़ने-लिखने के बाद सिनेमा पोस्टर के पेंटर के तौर पर अपना कलागत जीवन शुरू करने वाले बंसी विशाल दरख़्तों से लबरेज़ कुदरती सीनरी के चित्रांकन में महारथ हासिल करते-करते कैसे 'नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा' में दाखिला पा गए, इसे सोच कर वह ख़ुद भी हैरान होते रहे हैं। 'स्कूल' में 3 साल की पढ़ाई और 'स्टेज क्राफ्ट' में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद जब वह वहाँ से निकले तो बी वी कारंथ की तर्ज़ पर उन्होंने भी हिंदी रंग पट्टी को अपनी कर्मभूमि बनाया। उन्हीं की तरह वह भी शुरुआती दौर में अवध की सरज़मीं पर कूदे। आगे चलकर कारंथ ने भोपाल और मालवा को मध्यांतर कर्म के रूप में चुना तो बंसी के लिए यही उर्वरा धरती उनका मध्यांतर रही।