देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी मित्रों के 'डीपीटी' के अंतिम संस्कार से लौट रहा हूं। मन उदास और खिन्न है। यारों का यार चला गया। पर मेरी यह सोच तो डीपीटी के स्वभाव के ख़िलाफ़ है। बीते तीन साल से वह मौत की आहट सुन रहे थे और उस आहट को लगातार उत्सव में तब्दील कर रहे थे। हर रोज उनकी मौत से ठन रही थी। लेकिन मित्रों के साथ छन रही थी। उनके याराना और उनकी बैठकी को यह आहट भी नहीं रोक पाई।