देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी मित्रों के 'डीपीटी' के अंतिम संस्कार से लौट रहा हूं। मन उदास और खिन्न है। यारों का यार चला गया। पर मेरी यह सोच तो डीपीटी के स्वभाव के ख़िलाफ़ है। बीते तीन साल से वह मौत की आहट सुन रहे थे और उस आहट को लगातार उत्सव में तब्दील कर रहे थे। हर रोज उनकी मौत से ठन रही थी। लेकिन मित्रों के साथ छन रही थी। उनके याराना और उनकी बैठकी को यह आहट भी नहीं रोक पाई।
ऐसे थे डीपीटी!, ''बीमारी का पता चला तो पार्टी दी, जाते वक्त बोले- मुझे कैंसर है''
- श्रद्धांजलि
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- 5 Jan, 2020

देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी मित्रों के 'डीपीटी' चले गये। 'डीपीटी' के व्यक्तित्व को शब्दों में बाँध पाना बेहद मुश्किल होगा। उनकी याददाश्त अचूक थी। वह दोस्तों के दोस्त थे। हिंदी, ऊर्दू और संस्कृत के उदाहरण डीपीटी की जुबान से रसधारा से बहते थे। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यापक रहे डीपीटी को व्यक्ति और समाज का जबरदस्त अध्ययन था।
आज बहुत कुछ याद आ रहा है। वह साल 2016 की सर्दियां थीं। डीपीटी का फ़ोन आया, "हेमंत जी परसों मित्रों के साथ रसरंजन हैं। वीणा को भी लाइएगा। कोई 15-20 मित्र हैं। कुछ मित्र नेपाल और पाकिस्तान से भी आ रहे हैं। लिखिए पहले, आप भूल जाते हैं।" मैंने कहा, "आऊंगा" उन्होंने कहा, "पहले लिखिए"। मैंने पूछा, "अवसर क्या है?" उन्होंने कहा, "बहुत रोज से बैठकी नहीं हुई है।"
मैं सपत्नीक गया। पुष्प गुच्छ के साथ। याददाश्त पर जोर डाला तो पाया कि डीपीटी का जन्मदिन तो सर्दियों में ही होता है। वही होगा।