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बीएचयू: फ़िरोज़ का विरोध संस्कृत ही नहीं, बनारस की आत्मा पर भी चोट है

संस्कृत की महानता उसके विस्तार में है। उसके व्यापक स्वरूप में है। उसकी निरंतर स्वीकार्यता में है। संस्कृत को तालाब मत बनाइए, नहीं तो पानी सड़ जाएगा। काशी में संस्कृत के नाम पर हठवादिता और धर्मांधता के इस खेल को जड़ से उखाड़ने के लिए काशी को ही आगे आना होगा। यह काशी का उत्तरदायित्व भी है, संस्कार भी और धर्म भी।
हेमंत शर्मा

यह बनारस को क्या हो गया है? फ़िरोज़ ख़ान का प्रकरण बनारस की आत्मा में पल रहे घाव सरीखा है। यह बनारस की आत्मा पर चोट करने जैसा है। जिस बनारस में कोई डेढ़ सौ साल पहले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने यह एलान किया हो- ‘इन मुसलमान हरिजनन पे कोटिन हिंदुन वारिए,’ वहाँ फ़िरोज़ खान के संस्कृत पढ़ाने का विरोध अगर हमारी सांस्कृतिक दरिद्रता नहीं तो और क्या है? भारतेन्दु परम वैष्णव थे। फिर भी उन्होंने रहीम, रसखान और दारा शिकोह जैसे मुसलमानों के कृतित्व पर करोड़ों हिन्दू न्योछावर करने की बात कर दी। आख़िर क्यों ऐसी महान सांस्कृतिक विरासत वाले बनारस में एक फ़िरोज़ ख़ान के संस्कृत पढ़ाने से हिन्दू कर्मकांड या धर्म ख़तरे में पड़ रहा है? संस्कृत नष्ट हुई जा रही है? आख़िर कौन हैं ये बनारस की तसवीर बिगाड़ने वाले? महादेव की नगरी के खांटी समरस और मंगलकारी चरित्र पर सवालिया निशान लगाने वाले? संस्कृत को चोट पहुँचाने वाले? संस्कृति को नष्ट करने वाले? क्या इस जघन्य अपराध का प्रायश्चित हो सकेगा?

दरअसल, भाषा की ऐसी धार्मिक बाड़ेबंदी कुछ लफंगों की हिन्दुत्व के नाम पर एक बेईमान पहल है। क़ायदे से तो संस्कृत के ऐसे विद्वान मुसलमान का सार्वजनिक तौर पर सम्मान किया जाना चाहिए। ऐसे मुसलमान को जो देवभाषा में निष्णात है, जन-स्मृति और लोकगर्व के 'शो केस' में सजा कर रखा जाना चाहिए। पर इसके उलट बीएचयू में धर्म के नाम पर यह जो कुछ भी घट रहा है, पाप है। अनीति है। अन्याय है। मैं शर्मिन्दा हूँ बीएचयू की अपनी दस बरस की पढ़ाई पर।

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संस्कृत के बहाने निजी खुन्नस निकालने की ऐसी ही कट्टर सोच बनारस में साल 1655 के आसपास दिखी थी। उस दौर में जब औरंगज़ेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का फ़रमान सिर्फ़ इसलिए जारी किया था कि उसका सगा भाई दारा शिकोह वहाँ संस्कृत पढ़ता था। उस घटना के साढ़े तीन सौ साल बाद एक बार फिर उसी मानसिकता ने आचार्य फ़िरोज़ ख़ान (बीएचयू में प्रोफ़ेसर को आचार्य कहते हैं) पर हमला किया है। यह चोट फ़िरोज़ ख़ान पर नहीं है। यह चोट संस्कृत पर है। वह भाषा जिसे हिंदुओं के अपने ही समाज ने रोजमर्रा के व्यवहार से कब का बहिष्कृत कर दिया है, अब उसके बचे-खुचे अवशेषों को भी इस तरह से मिटाने की साज़िश हो रही है। यह वक़्त संभलने का है। जागने का है। फ़िरोज़ ख़ान के बहाने संस्कृत और संस्कृति दोनों की ही 'अस्मिता' के साथ खड़े होने का है।

आख़िर यह कैसा दोहरा रवैया है कि एक तरफ़ तो हम संस्कृत विद्वान और पुरावेत्ता के.के. मुहम्मद को राष्ट्रवाद का आइकॉन मानते हैं क्योंकि उन्होंने सच बोलकर रामलला के लिए इंसाफ़ की राह प्रशस्त की और दूसरी ओर बनारस में यह भेदभाव? आख़िर संस्कृत विद्वान आचार्य फ़िरोज़ ख़ान अपनी ज्ञान संपदा से किसे सींचने जा रहे हैं? उनके ज्ञान की खाद पाकर जो नई पौध उर्वर होगी, वह किस सभ्यता या फिर संस्कृति का प्रतिनिधित्व करेगी? इस बात पर कोई ग़ौर करने को तैयार नहीं है कि आचार्य फ़िरोज़ ख़ान संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन के ज़रिए उसी सनातन संस्कृति के उन्नयन का ज़रिया बनेंगे जिसके नाम पर भेदभाव की यह विषबेल तैयार की जा रही है।

फ़िरोज़ ख़ान के विरोध में जिस तरह से यह मुहिम चलाई जा रही है, वह घोर अवमूल्यन के ख़तरनाक संकेत की ओर इशारा करती है। जिस बनारस के लिए ग़ालिब 'चराग ए दैर' यानी मंदिर का चिराग लिख गए, उसी बनारस में फ़िरोज़ ख़ान के संस्कृत पढ़ाने का विरोध यही साबित करता है कि गंगा सचमुच प्रदूषित हो चुकी है। गंगा से ही हमारी सभ्यता और संस्कृति बनती थी। जिस संस्कृत की स्मृतियों में 'जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते' का उदघोष कर मानव जाति को जन्म के आधार पर समानता और कर्म के आधार पर उच्चता का पाठ पढ़ाया गया हो, उसके शिक्षार्थियों की यह दरिद्र स्थिति चौंकाने वाली है। 

जिस काशी में नजीर बनारसी ने गंगा के पानी में वजू करते हुए उम्र गुजार दी हो, उस बनारस में फ़िरोज़ ख़ान के संस्कृत पढ़ाने के विरोध से बड़ी समाजिकता की भयावह तसवीर और क्या होगी!

दुर्भाग्य की बात है कि यह सब उस बनारस में हो रहा है जहाँ एक चांडाल ने आदि शंकराचार्य की आँखें खोल दी थीं। भेदभाव और छुआछूत की रस्सियों में जकड़े आचार्य शंकर को अद्वैत का असली पाठ समझा दिया था। इसी काशी में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ने सनातनी कर्मकांड के भस्मासुर के सिर पर हाथ रखने का साहस किया था। उसे जड़ता से निकालकर चेतन की पवित्रता की ओर अग्रसर किया था। ऐसी काशी में संस्कृत को धार्मिक कट्टरता की विषबेल से जोड़ने वाली ये बंजर पैदावारें पहली नज़र में ही विजातीय लगती हैं। कबीर की 'जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान' का संचार करने वाली इस काशी में ऐसे विजातीय तत्व कहाँ से आ गए? समस्या की मूल जड़ तो यही है।

संस्कृत को बढ़ावा देना ग़ुनाह!

फ़िरोज़ ख़ान ने संस्कृत के अध्ययन में जीवन दिया है। शास्त्री, आचार्य, नेट, जेआरएफ़, पीएचडी… संस्कृत में एक के बाद दूसरी उपलब्धि हासिल करके वह इस पद पर पहुँचे हैं। फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों के तहत वाइस चांसलर की देखरेख में बनी चयन कमेटी ने किया है। यह सही है कि वह संस्कृत विभाग नहीं है। प्राच्य विद्या धर्म संकाय है पर उसमें भी जो आठ विषय पढ़ाए जाते हैं उसमें उन्हें संस्कृत ही पढ़ाना है। ग़ैर-हिन्दू कर्मकांड नहीं सिखाया जाना है। फ़िरोज़ ख़ान को कर्मकांड नहीं सिखाना है, संस्कृत पढ़ाना है। वह बीएचयू के प्राच्य विद्या धर्म संकाय का गौरव हैं। सोचिए, उस दौर में जब संस्कृत दिनों दिन हाशिए पर धकेली जा रही हो। जब संस्कृत और हिंदी के संस्कारों से निकली पीढ़ियाँ कर्ता और कर्म की बात तो दूर, मात्रा-पाई तक का फ़र्क समझ पाने में असफल सिद्ध हो रही हों। ऐसे वक़्त में एक मुसलिम व्यक्ति का संस्कृत के प्रति ऐसा अनुराग हमारी सभ्यता और संस्कृति दोनों के लिए वरदान है। मैं बात संस्कृत की कर रहा हूँ। पर बात संस्कृति की भी है। फ़िरोज़ ख़ान के अध्ययन के तार देखने में संस्कृत से जुड़े हैं मगर असलियत में वह हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं।

अच्छा होता कि इसी काशी में फ़िरोज़ ख़ान के नाम के जयकारे लगाए जाते! उनका सम्मान किया जाता! उनसे सीखा जाता! उनकी प्रेरणा देकर हम अपने परिवार के सदस्यों को संस्कृत की ओर उन्मुख करते! इस भाषा का प्रचार-प्रसार करते! इसे एक निश्चित घेरे से बाहर ले जाते!

मगर हम तो उल्टा ही इसे मारने पर तुले हुए हैं। जिस देश में रसखान ने श्रीकृष्ण की भक्ति में सवैये लिखे हों। रसखान को जहाँ आज भी कृष्ण भक्ति का प्रतीक माना जाता है। उनका रचा हुआ ‘मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन’ सदियों से हमारी चेतना में गूँजता आ रहा है। जहाँ मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में सबसे अधिक भजन सुने जाते हों। जहाँ बिस्मिल्लाह ख़ान की शहनाई हर हिन्दू घर में मंगल गान प्रतीक बन चुकी हो। जहाँ अमीर खुसरो के पद घर-घर गाए जाते रहे हों। ऐसी काशी को उसके सनातन धर्मपथ से विमुख करने की हर चेष्टा पतित और दुराग्रह पूर्ण है।

विचार से ख़ास

मुग़लों ने भी सीखी थी संस्कृत

यह भारतीय संस्कृति की ख़ासियत है कि वह हमेशा से बाहरी परिवेश के लोगों को अपनी ओर खींचती आई है। दारा शिकोह मुग़ल बादशाहों में सबसे काबिल और विद्वान शहजादा था। वह शहंशाह शाहजहाँ का सबसे बड़ा बेटा था। संस्कृत, फ़ारसी, लातीनी, सुरियानी और अरबी भाषाओं का ज्ञाता और लेखक था। दारा शिकोह ने रामायण, महाभारत, उपनिषदों का संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद किया था। दारा शिकोह ने काशी के ही एक विद्वान पंडितराज जगन्नाथ से संस्कृत सीखी। शाहजहाँ ने अपने पुत्र दारा शिकोह को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए अपने दरबार में उन्हें सम्मानित स्थान दिया था। पंडितराज जगन्नाथ दारा शिकोह के गुरु भी थे। उन्होंने दारा को संस्कृत की शिक्षा के साथ-साथ उनका मार्गदर्शन भी किया था। 1657 में जब दारा शिकोह ने 52 उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था, तब पंडितराज ही उसके मार्गदर्शक थे। दारा शिकोह ने उपनिषदों का अध्ययन किया और उनका फ़ारसी भाषा में ‘सिर्र-ए-अकबर’ नाम से अनुवाद कराया जिसका अर्थ होता है ईश्वरीय शब्द।

भारत की प्राच्य विद्या, धर्म और संस्कारों में डूबे बाहरी लोगों की यह सूची इतिहास के गौरवशाली नक्षत्रों का हिस्सा है। भारत आने वाले प्रमुख अरब यात्रियों में अलबरूनी उर्फ़ अबूरेहान भी था। वह महमूद गज़नवी के साथ भारत आया था। भारत रहते हुए इसने खगोल विद्या, संस्कृत तथा रसायन शास्त्र आदि का विस्तृत अध्ययन किया। अलबरूनी प्रथम ज्ञात मुसलमान था जिसने संस्कृत पढ़ी। गहन अध्ययन करके उसने पुराणों की विवेचना भी की थी। उसने मत्स्य, आदित्य, विष्णु और वायु पुराण का अध्ययन किया। अलबरूनी ने ज्योतिष के अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद किया। ‘किताब-उल-हिन्द’ (तहकीक-ए-हिन्द) उसकी प्रसिद्ध रचना है। उसने जगह-जगह भगवद्गीता, विष्णु पुराण तथा वायु पुराण को उद्धृत किया है।

संस्कृत के साथ मुसलमानों की इस संगति की एक बेहद समृद्ध परंपरा है। आज के दौर के इन उन्मादी अज्ञानियों ने अगर वाक़ई कुछ पढ़ा-लिखा होता तो वे ऐसी सोच क़तई नहीं रखते।

अकबरशाह आंध्र प्रदेश के सूफी संत और संस्कृत विद्वान गेसूदराज के वंशज थे। इन्होंने संस्कृत में नायिका भेद पर ‘श्रृंगारमञ्जरी’ नामक ग्रन्थ लिखा। इन्हें बड़े साहब के नाम से भी जाना जाता है। अब्दुलर्रहीम खानखाना उर्फ़ रहीम भी संस्कृत के विद्वान थे। ‘खानखाना’ रहीम की उपाधि थी जिसे अकबर ने दिया था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे बहुभाषाविद्‌ थे और हिन्दी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली पर उन्हें दक्षता थी। अब्दुर्रहीम खानखाना ने अरबी, फ़ारसी के साथ ब्रज तथा संस्कृत में भी रचना की।

इसी तरह कश्मीर में सुल्तान जैनुल आबदीन (14वीं सदी) जैसे अनेक संस्कृत प्रेमी शासक हुए। उनकी प्रेरणा से महाभारत एवं राजतरंगिणी का संस्कृत से फ़ारसी में तथा कई अरबी और फ़ारसी पुस्तकों का हिन्दी भाषा में अनुवाद हुआ। बीजापुर के सुल्तान इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय (1500 -1627 ई.) ने फ़ारसी भाषा में ‘किताब-ए-नवरस’ नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है। यह संगीत और कला पर लिखित ग्रन्थ है। अकबर के ही शासनकाल में हाजी इब्राहिम ने शेखभवन की सहायता से अथर्ववेद का फ़ारसी में अनुवाद 'अथरबन' नामक शीर्षक से किया। शेख अबु अल फैज़ मध्यकालीन भारत के फ़ारसी कवि थे। फैज़ ने भगवद्गीता का फ़ारसी भाषा में अनुवाद, राजे-ए-मगफिरत के नाम से किया। अकबर के आदेश पर फैज़ ने बीजगणित के संस्कृतग्रंथ लीलावती का फ़ारसी अनुवाद किया। इसी तरह अब्दुल क़ादिर बदायूँनी ने सन् 1590 ईसवी में रामायण का फ़ारसी भाषा में अनुवाद किया। नाकिब ख़ान और थानेश्वर के शेखसुल्तान ने भी रामायण का फ़ारसी अनुवाद किया। महाभारत का भी फ़ारसी अनुवाद बदायूँनी और शेखसुल्तान ने किया। इसकी प्रति इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में सुरक्षित है।

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वर्तमान में भी मुसलिम हैं संस्कृत के विद्वान

यह सिर्फ़ इतिहास की ही बात नहीं। वर्तमान भी ऐसे कई अप्रतिम उदाहरणों से भरा पड़ा है। संस्कृत की विद्वान नाहिद आबिदी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर ज़िले की रहने वाली हैं। संस्कृत भाषा में उनके काम के मद्देनज़र उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। मिर्जापुर के केवी डिग्री कॉलेज से संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद नाहिद आबिदी ने महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ से पीएचडी की डिग्री हासिल की। साल 2005 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में पढ़ाया। साल 2014 में इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।  

संस्कृत भाषा से कुछ ऐसा ही प्रेम मुंबई के पंडित ग़ुलाम दस्तगीर को भी है। पंडित दस्तगीर बीते कई दशक से संस्कृत भाषा की सेवा में लगे हुए हैं। महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले में पैदा हुए पंडित दस्तगीर लंबे समय तक मुंबई के वर्ली हाई स्कूल में संस्कृत की शिक्षा देते रहे। ऐसे ही भगवद भक्ति में डूबे संगीत से भक्तों को मंत्र मुग्ध करने वाले जयपुर के पास बगरू के प्रख्यात संगीतज्ञ रमज़ान ख़ान हैं। वे फ़िरोज़ के पिता हैं। रमज़ान ख़ान का पूरा परिवार ही संस्कृत से जुड़ा रहा है। रमज़ान के घर की दीवारों पर भगवान कृष्ण की तसवीरें लगी हैं। रमज़ान 15 वर्षों से गोशाला से जुड़े हैं और रोज़ कई घंटे गोसेवा में गुज़ारते हैं। उन्हें सुंदरकांड, हनुमान चालीसा व कई भजन कंठस्थ हैं। 

रमज़ान ख़ान ने अपने चार पुत्रों वकील, शकील, फ़िरोज़ व वारिस को भी संस्कृत विद्यालय में शिक्षा ग्रहण कराई है। रमज़ान ने अपनी छोटी बेटी का जन्म दीपावली पर होने से उसका नाम लक्ष्मी रखा जबकि उनकी बड़ी बेटी का नाम अनीता है।

अब सोचिए कि अगर फ़िरोज़ ख़ान का विरोध करने वाली सोच के लोग ऐसी विभूतियों को भी मिले होते, तो उन पर क्या बीतती? यह विचार ही हृदय हिलाने के लिए काफ़ी है कि धर्मांधता का यह विकृत तांडव उस महान नगरी में हो रहा है जिसका नाम काशी है। संस्कृत की महानता उसके विस्तार में है। उसके व्यापक स्वरूप में है। उसकी निरंतर स्वीकार्यता में है। संस्कृत को तालाब मत बनाइए, नहीं तो पानी सड़ जाएगा। हमें उसे सतत प्रवाहिनी सलिला का रूप देना है। कबीर बहुत पहले ही चेता गए हैं कि ‘संसकीरत है कूप जल, भाखा बहता नीर’। इस दौर में भी कुएँ का पानी फिर भी पेय होता है मगर तालाब के पानी में यह संभावनाएँ भी ख़त्म हो जाती हैं। यह ज़िम्मेदारी उनकी भी है जो आज यह सब होता हुआ देखकर भी खामोश हैं। काशी में संस्कृत के नाम पर हठवादिता और धर्मांधता के इस खेल को जड़ से उखाड़ने के लिए काशी को ही आगे आना होगा। यह काशी का उत्तरदायित्व भी है, संस्कार भी और धर्म भी।

महामना मालवीय इसे सर्वविद्या की राजधानी बनाना चाहते थे ताकि देश और दुनिया की सारी भाषाएँ यहाँ फलती-फूलती रहे। भाषा की जाति और धर्म मत तय कीजिए। ऐसा कर आप संस्कृत की तौहीन करेंगे। हमारे यहॉं मंडन मिश्र का तोता भी संस्कृत बोलता था। कथाओं में मुर्ग़ा और कौवा, संस्कृत बोलते और समझते रहे हैं। फ़िरोज़ ख़ान तो इनसान हैं।

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हेमंत शर्मा
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