यह बनारस को क्या हो गया है? फ़िरोज़ ख़ान का प्रकरण बनारस की आत्मा में पल रहे घाव सरीखा है। यह बनारस की आत्मा पर चोट करने जैसा है। जिस बनारस में कोई डेढ़ सौ साल पहले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने यह एलान किया हो- ‘इन मुसलमान हरिजनन पे कोटिन हिंदुन वारिए,’ वहाँ फ़िरोज़ खान के संस्कृत पढ़ाने का विरोध अगर हमारी सांस्कृतिक दरिद्रता नहीं तो और क्या है? भारतेन्दु परम वैष्णव थे। फिर भी उन्होंने रहीम, रसखान और दारा शिकोह जैसे मुसलमानों के कृतित्व पर करोड़ों हिन्दू न्योछावर करने की बात कर दी। आख़िर क्यों ऐसी महान सांस्कृतिक विरासत वाले बनारस में एक फ़िरोज़ ख़ान के संस्कृत पढ़ाने से हिन्दू कर्मकांड या धर्म ख़तरे में पड़ रहा है? संस्कृत नष्ट हुई जा रही है? आख़िर कौन हैं ये बनारस की तसवीर बिगाड़ने वाले? महादेव की नगरी के खांटी समरस और मंगलकारी चरित्र पर सवालिया निशान लगाने वाले? संस्कृत को चोट पहुँचाने वाले? संस्कृति को नष्ट करने वाले? क्या इस जघन्य अपराध का प्रायश्चित हो सकेगा?
बीएचयू: फ़िरोज़ का विरोध संस्कृत ही नहीं, बनारस की आत्मा पर भी चोट है
- विचार
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- 22 Nov, 2019

संस्कृत की महानता उसके विस्तार में है। उसके व्यापक स्वरूप में है। उसकी निरंतर स्वीकार्यता में है। संस्कृत को तालाब मत बनाइए, नहीं तो पानी सड़ जाएगा। काशी में संस्कृत के नाम पर हठवादिता और धर्मांधता के इस खेल को जड़ से उखाड़ने के लिए काशी को ही आगे आना होगा। यह काशी का उत्तरदायित्व भी है, संस्कार भी और धर्म भी।
दरअसल, भाषा की ऐसी धार्मिक बाड़ेबंदी कुछ लफंगों की हिन्दुत्व के नाम पर एक बेईमान पहल है। क़ायदे से तो संस्कृत के ऐसे विद्वान मुसलमान का सार्वजनिक तौर पर सम्मान किया जाना चाहिए। ऐसे मुसलमान को जो देवभाषा में निष्णात है, जन-स्मृति और लोकगर्व के 'शो केस' में सजा कर रखा जाना चाहिए। पर इसके उलट बीएचयू में धर्म के नाम पर यह जो कुछ भी घट रहा है, पाप है। अनीति है। अन्याय है। मैं शर्मिन्दा हूँ बीएचयू की अपनी दस बरस की पढ़ाई पर।