फ़ैज़ को बख़्श दें। साहित्य, संगीत, अदब को नफ़रत और घृणा से बाहर रखें। फै़ज़ अहमद फ़ैज़ अदब की दुनिया में शायरी के ज़रिए क्रांति का प्रतीक हैं। फै़ज़ की क़लम जब भी चली, मजलूमों के लिए चली। गुरबत में रहने वालों के लिए चली। तानाशाही के ख़िलाफ़ चली। लोकतंत्र के लिए चली। उनकी क़लम सदा ही कविता की दुनिया में इंक़लाब के रंग भरती चली।
सरकारों और व्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखना कवियों का पुण्य मक़सद होता था। इसमें नफ़रत और धर्म मत ढूँढिए। जो लोग साहित्य को नहीं जानते, कविता के धर्म से अनजान हैं, साहित्य के बिम्ब प्रतीकों को नहीं समझते वही इस तरह की मूर्खता और कटुता की बात करते हैं। सो हिंदू, मुसलमान का झगड़ा वोट बैंक तक ही रखना चाहिए। साहित्य को इस दलदल में न घसीटें तो बेहतर होगा। फ़ैज़ और उनकी मशहूर नज़्म के साथ आज हो रहा है, अगर यही सोच चार सौ साल पहले कबीर के वक़्त होती तो कबीर भी आज थाने में बंद होते। क्योंकि वे भी ‘जो घर फूँकें आपना चले हमारे साथ’ की उद्धोषणा कर रहे थे। इस सूफ़ीवादी एलान को भी हिंसा फैलाने की सामग्री मान लिया जाता।
इस धार्मिक जातीय उन्माद से तो तुलसी दास भी नहीं बचते। इस हिसाब से उन पर दलित एक्ट के तहत मुक़दमा चलता। वे जेल में होते। उन पर स्त्रियों के प्रति अभद्र टिप्पणी का भी मुक़दमा चलता क्योंकि रामचरित मानस के सुंदरकांड में उन्होंने ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी’ लिखा है। दलितों और स्त्रियों के संगठनों तुलसी दास को कहीं का न छोड़ते। हालाँकि अवधी बोलने-समझने वाले 'ताड़ना' शब्द का असली अर्थ समझाते हैं। पर शब्दों की बाजीगरी के ज़रिए समाज तोड़ने का उन्मादी वर्ग यहाँ भी तिल का ताड़ बना देता। यह कोशिश कुछ वक़्त तक वामपंथी आलोचकों ने की भी थी पर उस वक़्त साहित्य समाज में इतनी संकीर्णता और कटुता नहीं थी।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म न तो हिंदू विरोधी है और न इसलाम विरोधी। वह फ़ासिज़्म विरोधी है, और फ़ासिज़्म की न कोई जाति होती है, न धर्म। अगर आप फ़ासिज़्म के पाले में खड़े होंगे, तो फ़ैज़, दुष्यन्त, नागार्जुन और दिनकर आपको अंगारे की तरह दिखेंगे। कविता की यही ताक़त है। जब भी तानाशाही, एकाधिकारवाद की तरफ़ बढ़ेगी उसे रोकने के लिए फ़ैज़ आ खड़े होंगे, नागार्जुन खड़े होंगे, दिनकर खड़े होंगे, दुष्यन्त खड़े होंगे, सर्वेश्वर खड़े होंगे।
आईआईटी कानपुर में फ़ैज़ की एक नज़्म पर उठा विवाद इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि आईआईटी देश के सबसे उत्कृष्ट शैक्षिक संस्थानों में से एक जाना जाता है। यह भारतीय मेधा का प्रतीक है। जब देश के सबसे प्रगतिशील शैक्षिक संस्थान ऐसे मानसिक दारिद्र्य से घिर जाएँगे तो आम शैक्षणिक केंद्रों का क्या होगा? अफसोस इस बात का भी है कि फ़ैज़ की जिस नज़्म ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ पर विवाद उठा है वह पाकिस्तान के भीतर ज़ोर-ज़ुल्म और सैनिक तानाशाही के ख़िलाफ़ इंसाफ़ और क्रांति का शंखनाद था।
इस नज़्म को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने 1979 में लिखी थी। इसकी प्रासंगिकता को समझने के लिए दो साल और पीछे लौटना होगा। यह बात 1977 की है। भारत में इमरजेंसी का ख़ात्मा हुआ था। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में लोकतंत्र की बहाली हुई थी और पाकिस्तान आर्मी ने लोकतंत्र का गला घोट फ़ौजी हुकूमत बनवायी थी। सेना प्रमुख जिया उल हक ने पाकिस्तान में प्रधानमंत्री भुट्टो का तख्ता पलट दिया था। जम्हूरियत और इंसानियत के हिमायती फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ इससे काफ़ी दुखी हुए। विरोध में उन्होंने ‘हम देखेंगे’ नज़्म लिखी, जो जिया उल हक की तानाशाही के ख़िलाफ़ विद्रोह और क्रांति का परचम थी। नज़्म की ताक़त से जिया उल हक बेचैन हो उठे। इस नज़्म पर पाबंदी लगी। मगर नज़्म कब रुकती है। फ़ैज़ के जीते जी यह नज़्म पाकिस्तान के भीतर मुक्ति का हथियार बन गई।
1984 में फ़ैज़ नहीं रहे। 1985 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक़ ने देश में मार्शल लॉ लगा दिया। पाकिस्तान में इसलामी क़ानून का पूरी तरह राज हो गया। महिलाओं के साड़ी पहनने पर भी पाबंदी लग गई। ऐसे में फ़ैज़ की नज़्म एक बार फिर से गूँज उठी। लाहौर के कज्जाफी स्टेडियम में पाकिस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका इक़बाल बानो ने जब एक लाख लोगों की मौजूदगी में काली साड़ी पहनकर इसे गाया तो सब झूम उठे। पूरा स्टेडियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजता रहा। फ़ैज़ उस वक़्त जीवित नहीं थे। मगर उनकी नज़्म और भी ज़्यादा ताक़तवर हो उठी थी।
फ़ैज़ की ग़ैरमौजूदगी में भी उनकी नज़्म पाकिस्तान हुकूमत की चूलें हिला रही थी। ऐसी नज़्म को कुछ लोग अगर हिंदू विरोधी समझ रहे हैं तो उनकी बुद्धि पर तरस खाना चाहिए। वे करुणा के पात्र हैं।
इस नज़्म की एक-एक लाइन क्रांति और इंक़लाब का प्रतीक है। फ़ैज़ इस नज़्म में लिखते हैं कि जब अर्ज़-ए- ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाये जाएँगे, हम अहल-ए-सफा-मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएँगे। इसका अर्थ समझना बेहद ज़रूरी है। फ़ैज़ यहाँ कह रहे हैं कि जब ताक़तवर तानाशाह की सत्ता के सब प्रतीक गिरा दिए जाएँगे। उस वक़्त वह कमज़ोर, पीड़ित, प्रताड़ित लोग जो दिल के साफ़ हैं पर अधिकारों से वंचित हैं, उन्हें हम सत्ता के मसनद पर बिठाएँगे। फ़ैज़ आगे लिखते हैं कि सब ताज उछाले जाएँगे, सब तख़्त गिराए जाएँगे। इसका अर्थ समझाने की ज़रूरत ही नहीं है। फ़ैज़ सीधे-सीधे क्रांति की आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। तानाशाही के नाश और जम्हूरियत की स्थापना की मुहिम छेड़ रहे हैं। हम देखेंगे नज़्म में आख़िरी हिस्से में वह लिखते हैं, बस नाम रहेगा अल्लाह का। यही विवाद की जड़ है। ‘उठेगा अनल-हक़ का नारा’ इसी पर नासमझी भरा एतराज़ उठाया गया। अनल-हक़ का मतलब है मैं ख़ुदा हूँ। यानी हमारी परंपरा में यही तो अहं ब्रह्मास्मि है। यही आचार्य शंकर का अद्वैत है।
अनल-हक़ यानी अहं ब्रह्मास्मि
ईरान के मंसूर अल हल्लाज 900 ई. के मशहूर सूफ़ी थे, जिन्होंने 'अनल-हक़' का नारा दिया था। अनल-हक़ का अर्थ है अहं ब्रह्मास्मि। यह भारत के अद्वैत सिद्धांत और वैदिक विचारधारा की तरह है, जिसमें क्रिएटर और क्रिएशन को अलग नहीं माना गया है बल्कि वो एक है। वो भगवान का ही एक रूप है। यह इसलामिक विचार ही नहीं है। अनल-हक़ सूफ़ी विचार से आया है। इसलाम और ईसाईयत में भगवान मालिक हैं और इंसान रियाया (जनता) है। इंसान उसके दरबार में है और ख़ुदा उसको देख रहा है और उस पर फ़ैसला करेगा। अनल-हक़ के मायने हैं कि 'मैं ही ख़ुदा हूँ' या फिर मेरे अंदर ख़ुदा है जबकि इसलाम में पैगंबर मुहम्मद साहब या फिर किसी नबी को ख़ुदा का दर्जा नहीं दिया गया है। ऐसे में कोई अपने आपको कैसे ख़ुदा कह सकता है। इसी वजह से मंसूर अल हल्लाज को फाँसी पर लटकाया गया। जिस शब्द के लिए इसलामिक कठमुल्लाओं ने मंसूर साहब को हाथ-पॉंव काट कर फॉंसी पर लटका दिया, उसी को अब दूसरे कठमुल्ला इसलामिक बता कर हिन्दू धर्म के ख़िलाफ़ बता रहे हैं।
फ़ैज़ की ख़ूबी यही है कि वह अपने न रहने के बाद और भी ज़्यादा पढ़े गए। फ़ैज़ एशियाई मूल के उन शायरों में शुमार हैं जिन्हें दुनिया भर में सबसे ज़्यादा पढ़ा गया है।
फ़ैज़ ताक़त के नशे में पागल हुकूमतों के ख़िलाफ़ बग़ावत और प्रतिरोध के प्रतीक हैं। उनकी इस नज़्म में अल्लाह और बुत का भी ज़िक्र आता है, जिस पर बवाल मचाया जा रहा है। ऐसे मूर्ख यह भूल जाते हैं कि अल्लाह और ख़ुदा की बात तो हिंदुस्तान के भी कई नामचीन शायरों ने की है।
दुष्यंत कुमार अपनी मशहूर नज़्म ‘कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए, कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए’ में लिखते हैं-
‘ख़ुदा ख़ुदा न सही
आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है
नज़र के लिए’।
अब क्या इस गुनाह में दुष्यंत कुमार को भी हिंदू विरोधी बता दिया जाएगा? अब आइए बुत पर। फ़ैज़ लिखते हैं, सब बुत उठवाए जाएँगे। यह फ़ैज़ काबा के लिए कह रहे हैं, हिन्दू धर्म के लिए नहीं। वैसे भी कविता में शब्दों का कोई फ़िक्स अर्थ नहीं होता। समय संदर्भों के अनुसार कविता और शायरी का अर्थ विस्तार होता रहता है। इसलिए विरोध से पहले ज़ुबान समझिए, भाषा का मिजाज़ समझिए। फिर कोई टिप्पणी कीजिए। उर्दू के मशहूर शायर मोमिन लिखते हैं-
उम्र सारी कटी इश्के बुतां में मोमिन
आख़िरी वक़्त में क्या खाक मुसलमाँ होंगे।
यहॉं बुत का मतलब अलग है। अब इस गुनाह के लिए आप मोमिन को ग़ैर मुसलमान घोषित कर देंगे?
तब तो दिनकर भी देश तोड़ने वाले हुए। हमने उन्हें राष्ट्रकवि माना था तो क्या अब राष्ट्रद्रोही कहते! उनकी यह कविता देखें-
‘लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’
फिर तो इमरजेंसी से पहले और बाद में दूसरी आज़ादी का यह क्रान्ति गीत भी देश तोड़ने वाला शब्दबम माना जाएगा।
‘जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है,
तिलक लगाने तुम्हें जवानों क्रान्ति द्वार पर आई है।
आज चलेगा कौन देश से भ्रष्टाचार मिटने को,
बर्बरता से लोहा लेने, सत्ता से टकराने को।
आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है।
पर्वत की दीवार कभी क्या रोक सकी तूफ़ानों को,
क्या बन्दूक़ें रोक सकेंगी बढ़ते हुए जवानों को?
चूर–चूर हो गयी शक्ति वह, जो हमसे टकराई है।
उठे जवानों तुम्हें जगाने क्रांति द्वार पर आई है।’
अगर अदब को लेकर यही सोच होती तो फिर तो बाबा नागार्जुन भी निश्चित तौर पर जेल में होते जिन्होंने इंदिरा जी के बारे में लिखा था-
‘छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको
काले चिकने माल का मस्का लगा आपको
किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको
अन्ट-शन्ट बक रही जनून में
शासन का नशा घुला ख़ून में
फूल से भी हल्का
समझ लिया आपने हत्या के पाप को
इन्दु जी, क्या हुआ आपको
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!’
सत्ता को चुनौती देते नागार्जुन की एक और कविता जो इन हालातों में राष्ट्रविरोधी क़रार दी गयी होती-
‘खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक़
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक़’
ऐसे ही हिंदी के गाँधीवादी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने तय किया कि वे आपातकाल के विरोध में हर रोज़ सुबह-दोपहर-शाम कविताएँ लिखेंगे। उनकी यह कविता भी सरकार विरोधी है जिसे इन हालातों में अब राष्ट्रविरोघी भी पढ़ा जा सकता है।
‘बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएँ
कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये।’
सोचिए चार कौए की ये उपमा उग्रता का चश्मा पहनकर भवानी दादा का क्या हाल करती!
धर्मयुग के संपादक और हिंदी के जाने-माने कवि-लेखक धर्मवीर भारती ने भी आपातकाल के दिनों में एक कविता लिखी- मुनादी। यह कविता आने वाले दिनों में जन प्रतिरोध के नारे में बदलती नज़र आई। कविता कुछ इस तरह शुरू होती है-
खलक ख़ुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर खासो-आम को आगाह किया जाता है
कि ख़बरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमज़ोर आवाज़ में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
सिर्फ़ इस कविता के नाम पर धर्मवीर भारती के साथ समय का ऐसा दौर असहिष्णुता की कैसी मुनादी करता, यह बताने की ज़रूरत नहीं है।
फ़ैज़ को समझने के लिए उनके जीवन के बारे में भी जानना बेहद ज़रूरी है। पंजाब के नरोवल में जन्मे फ़ैज़़ अहमद फ़ैज़़ पत्रकार भी रहे, शायर भी थे और उन्होंने ब्रिटिश आर्मी में बतौर फ़ौज़ी सेवाएँ भी दीं। उन्होंने जब शायरी लिखनी शुरू की तो उनकी कोशिश दबे-कुचलों की आवाज़ को उठाना ही था। यही कारण रहा कि उनकी लेखनी में बग़ावती सुर की भरमार दिखी।
आज़ादी मिलने के वक़्त उन्होंने बँटवारे का जो दर्द देखा, उस पर 'सुबह-ए-आज़ादी' नाम की अपनी नज़्म में लिखा-
ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं...
यानी उनकी आज़ादी के सपने में बँटवारा नहीं था। उनकी ये नज़्म सच्ची आज़ादी का अधूरा दस्तावेज़ बन गयी है। जिस भी मुल्क में आज़ादी के परवाने सही मायने में मुक्ति का ज़िक्र करते हैं, यही नज़्म गुनगुनाई जाती है।
सत्ता की तानाशाही के ख़िलाफ़ फ़ैज़ की ये मुहिम कोई जिया उल हक़ के ज़माने की बात नहीं थी। उनकी ये मुहिम पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान के ज़माने से ही शुरू हो गयी थी। साल 1951 में उनके तख्तापलट की साज़िश का खुलासा हुआ तो काफ़ी नेताओं, पत्रकारों की गिरफ़्तारियाँ हुईं। इनमें फ़ैज़़ अहमद फ़ैज़़ भी शामिल थे, जिनपर आरोप था कि वह कुछ लोगों के साथ मिलकर पाकिस्तान में वामदलों की सरकार लाना चाहते हैं। इस आरोप में 1951 में गिरफ़्तार किए गए फ़ैज़़ अहमद फ़ैज़़ को चार साल जेल में रखा गया। फिर उन्हें देश से निकाल दिया गया। कई साल उन्होंने लंदन में बिताए और क़रीब 8 साल के बाद पाकिस्तान वापस लौटे। इस बीच क़लम की धार और तेज़ हो चली थी।
फ़ैज़ के प्रशंसकों में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी थे जिन्होंने फ़ैज़ से मिलने के लिए प्रोटोकॉल तोड़ दिया था। यह बात 1977-78 की है। तब अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे। उस दौरान वो पाकिस्तान के आधिकारिक दौरे पर गए। विदेश मंत्री के प्रोटोकॉल के मुताबिक़ उनकी सारी मुलाक़ातें पहले से फ़िक्स थीं। फिर भी उन्होंने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से मिलने की इच्छा जताई और प्रोटोकॉल तोड़कर फ़ैज़़ से मिलने उनके घर गए। अटल जी ने वहॉं फ़ैज़ की रचनाएँ सुनीं। उन्हें भारत आने का न्योता दिया। फ़ैज़ भारत आए भी और दिल्ली, इलाहाबाद, सहित कई शहरों में गए। इलाहाबाद में उनकी मुलाक़ात फ़िराक़ से हुई। वहॉं जश्ने फ़ैज़ का आयोजन हुआ। वाजपेयी ने इस दौरान फ़ैज़ की एक बहुचर्चित नज़्म की ये पंक्तियाँ भी पढ़ीं।
‘मक़ाम ‘फ़ैज़़’ कोई राह में जँचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले’
यानी कोई भी मकाम इस राह में समझ ही नहीं आया। यार की गली से निकले तो फाँसी के तख्ते की ओर चले। बिना पढ़े, बिना समझे फ़ैज़ पर सवाल उठाने वाले ऐसे लोगों के लिए फ़ैज़ का ही एक शेर बड़ा मौजूँ है-
‘वो बात सारे फसाने में जिसका ज़िक्र न था,
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है।’
फ़ैज़ की अममून ऐसी ही बातें लोगों को नागवार गुजरती आई हैं, जिसे उन्होंने कभी कहा ही नहीं है। फ़ैज़ वाक़ई अनमोल हैं। वे हक़-हुकूक, इंसाफ़ और इंसानियत की दुनिया का गौरव हैं। मुहब्बत और इंक़लाब का ऐसा शायर सदियों में कहीं पैदा होता है।
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