बड़ी दिलचस्प बात है कि जिस देश की 60 फ़ीसदी आबादी रोजाना तीन डॉलर यानी 210 रुपये से कम की आमदनी में अपना गुजारा करती है, वहाँ एक अनुमान के मुताबिक़ 2019 के आम चुनाव में प्रति वोटर आठ डॉलर यानी 560 रुपये ख़र्च होने जा रहा है।
कहने को तो भारत आर्थिक तौर पर एक विकासशील (वास्तव में ग़रीब) देश है, लेकिन चुनावी ख़र्च के मामले में इस बार यह कई विकसित (जैसे अमेरिका) देशों को पीछे छोड़ने जा रहा है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के एक अनुमान के मुताबिक़ 11 अप्रैल से 19 मई तक सात चरणों में संपन्न होने जा रहे 2019 के लोकसभा चुनाव में 50,000 से 60,000 करोड़ रुपए ख़र्च होने का अनुमान है।
चुनाव पर दलों का बेतहाशा ख़र्च
यह सच है कि क़रीब छह हफ़्ते तक चलने वाले इन चुनावों में 543 लोकसभा सीटों के लिए क़रीब 90 करोड़ मतदाता हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण के समुद्री तट तक करोड़ों लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। इस महाचुनाव में वोट डालने के लिए 11 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की आवश्यकता होगी और क़रीब 10 लाख मतदान केंद्र स्थापित किए जाएँगे। इस विशाल चुनावी कवायद में सरकारी खज़ाने के करोड़ों रुपए ख़र्च होना स्वाभाविक है। लेकिन पार्टियों व उम्मीदवारों द्वारा किए जाने वाले बेतहाशा ख़र्च की प्रमुख वजहों में सोशल मीडिया, आवागमन, रैलियाँ और हर तरह के विज्ञापन का बढ़ा हुआ ख़र्च है।
एक अनुमान के मुताबिक़, विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा सोशल मीडिया पर इस बार 5000 करोड़ रुपए तक ख़र्च किए जा सकते हैं, जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया पर मात्र 250 करोड़ रुपए ख़र्च किए गए थे।
पहले आम चुनाव में हुआ था इतना कम ख़र्च
आजकल के चुनावों में अनैतिक ख़र्च का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी आँकड़ों के अनुसार 1952 में हुए पहले आम चुनाव का ख़र्च 10 करोड़ से भी कम आया था, यानी प्रति मतदाता पर क़रीब 60 पैसे का ख़र्च। यह ठीक है कि उस समय यह रकम मामूली नहीं थी, लेकिन ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ आज विभिन्न दलों की ओर से 50-55 करोड़ रुपए मात्र एक संसदीय सीट में बहा दिए जाते हैं।
- शुरुआती दो-तीन आम चुनावों तक दिग्गज उम्मीदवार भी बैलगाड़ियों, साइकलों, ट्रकों पर प्रचार करते देखे जा सकते थे। फटेहाल नेताजी की आर्थिक मदद ख़ुद कार्यकर्ता किया करते थे। लेकिन आज के नेता हेलिकॉप्टरों या निजी विमानों से सीधे रैलियों में उतरते हैं और करोड़ों रुपए ख़र्च करके लाखों लोगों की भीड़ जुटाते हैं।
ब्रांडिंग पर ज़्यादा जोर देने से ख़र्च बढ़ता गया
रैलियों में ज़्यादा भीड़ जुटाने के साथ भीड़ के खाने-पीने और पत्रम-पुष्पम की व्यवस्था का चलन छोटे शहरों में भी शुरू हो गया है। प्रचार के साथ-साथ ब्रांडिंग पर ज़्यादा जोर देने की वजह से चुनाव में ख़र्च बढ़ता ही जा रहा है। किस जगह पर कौन-सी ड्रेस पहनें और किस चुनावी क्षेत्र में किस तरह से बात करें, जैसी तमाम चीजों पर नेताओं का मुख्य ध्यान रहता है। दिलचस्प बात यह है कि इस सब में पार्टी से ज़्यादा पैसा उम्मीदवार ख़र्च करते हैं और इस पर पार्टियों को ज़रा भी ऐतराज नहीं होता। इसका असर यह होता है कि जिसके पास पैसा नहीं है, उसको पार्टी का टिकट ही नहीं मिलता और लोकतांत्रिक मूल्यों की सीधे हत्या हो जाती है।
- इस प्रक्रिया में शासन-प्रणाली से साधनहीन जनप्रतिनिधियों की अपने आप छँटनी हो जाती है और विधानसभाएँ तथा संसद 'करोड़पति क्लब' बनती चली जाती है। फिर यह क्लब अपने हितों को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाता है और देश के संसाधनों का दोहन करता है।
कितना ख़र्च कर सकते हैं उम्मीदवार?
वैसे, मौजूदा अनुमानित हज़ारों करोड़ के ख़र्च को मापने का कोई सटीक और विश्वसनीय पैमाना किसी के पास नहीं है। निश्चित तौर पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि कौन-सी पार्टी इसे किस-किस मद में कैसे ख़र्च करती है। नियम के मुताबिक़ एक उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में 50 लाख से 70 लाख रुपए तक ख़र्च कर सकता है। विधानसभा चुनाव के लिए यह सीमा 20 लाख से 28 लाख रुपए के बीच है। यह ख़र्च उस राज्य पर भी निर्भर करता है जहाँ से उम्मीदवार चुनाव लड़ रहा है। फिर भी इनका घोषित ख़र्च वास्तविक ख़र्च का 5-7% भी नहीं बैठता। इसे हम कर्नाटक के मई, 2018 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव से समझ सकते हैं, जिसमें विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और उनके उम्मीदवारों द्वारा वास्तविक तौर पर 9,500 से 10,500 करोड़ रुपए के बीच धन ख़र्च किया गया। यानी प्रति मतदाता 2100 रुपए का ख़र्च!
क्या पार्टियों के फंड में इतना पैसा है?
लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि आख़िर इतना पैसा कहाँ से आया? इसका क्या स्रोत है? क्या पार्टियों के फंड में इतना पैसा है? या फिर ग़लत तरीक़े से लाए गए धन का इस्तेमाल हो रहा है? यदि ऐसा है तो इसे कैसे रोका जा सकता है?
सच्चाई यह है कि यह ख़र्च गुप्त कॉरपोरेट फंडिंग, हवाला कारोबार और अप्रवासी नागरिकों की बेनामी मदद के दम पर किया जाता है। ग़ैर-सरकारी तौर पर अनुमानित मायावी राशि अनैतिक और बिना खाता-बही वाली ब्लैकमनी ही होती है।
माना कि चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के लिए ख़र्च की एक सीमा निर्धारित की हुई है, लेकिन असल में ख़र्च कितना होता है, यह पकड़ पाना उसके या आयकर विभाग के वश में भी नहीं है। पुराने जमाने के जनता से सीधे जुड़े कई नेता आपको बताएँगे कि वे तो 1500-2000 रुपए ख़र्च करके ही चुनाव जीत लेते थे। लेकिन आप आज के किसी दिग्गज माने जाने वाले प्रत्याशी से भी पूछिए कि चुनाव लड़ने में कितना ख़र्च हो रहा है, तो पता चलेगा कि जो निर्धारित राशि है उससे सैकड़ों गुना ज़्यादा ख़र्च किया जाना है, फिर भी जीत की कोई गारंटी नहीं है। इसलिए चुनाव में होने वाले घोषित-अघोषित और काले-सफेद ख़र्च को जब तक नहीं ढूंढा जाएगा, तब तक केवल सरकारी ख़र्च व प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग को बताए गए ख़र्च को जोड़ने मात्र से असली तसवीर सामने नहीं आने वाली है।
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