भारतीय रंगमंच को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई पहचान दिलाने वाले विजय तेंदुलकर, देश के महान नाटककारों में से एक थे। उन्होंने अपने नाटकों में जोखिम उठाकर हमेशा नये विचारों को तरजीह दी। रंगमंच में वर्जित समझे जाने वाले विषयों को अपने नाटक की विषयवस्तु बनाने का साहस उनमें था। नाटक में नैतिकता-अनैतिकता, श्लीलता-अश्लीलता के सवालों से वह लगातार जूझते रहे, मगर इन सवालों से घबराकर उन्होंने कभी अपना रास्ता नहीं बदला, बल्कि हर बार उनका इरादा और भी मज़बूत होता चला गया।
इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि शाब्दिक हिंसा और अश्लील संवादों का इल्जाम झेलने वाला उनका नाटक ‘गिद्ध’, लंबे अरसे तक रंगमंच पर खेले जाने की बाट जोहता रहा। बावजूद इसके उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी। आख़िरकार ‘गिद्ध’ खेला गया और उसे ज़बर्दस्त कामयाबी मिली। कमोबेश यही हालात उनके नाटक ‘सखाराम बाइंडर’, ‘मच्छिंद मोरे के जानेमन’ और ‘बेबी’ के प्रदर्शन के वक़्त भी बने। इन नाटकों में कथित अश्लील दृश्यों एवं हिंसक शब्दावली के प्रयोग पर शुद्धतावादियों ने कड़े एतराज़ उठाए। लेकिन उन्हें हर बार मुँह की खानी पड़ी।
विजय तेंदुलकर ने अपने नाटकों में अश्लील दृश्यों और अश्लील हिंसक शब्दावली का प्रयोग महज सनसनी फैलाने और चर्चित होने के लिए नहीं किया, बल्कि कथ्य की मांग और प्रस्तुति की गुणवत्ता को लिहाज में रखकर ही उन्होंने ऐसा किया। लिहाजा उनके नाटक दर्शकों में उत्तेजना, जुगुप्सा पैदा नहीं करते। विजय तेंदुलकर के नाटक न सिर्फ़ बोल्ड हैं, बल्कि अपने समय से भी आगे हैं। जिसका खामियाजा उन्हें समय-समय पर भुगतना पड़ा।
उनके नाटक एक ओर सामाजिक पाखंड को चुनौती देते हैं तो दूसरी ओर राजनीतिक सत्ता को। ‘सखाराम बाइंडर’, ‘गिद्ध’ आदि नाटकों में जिस तरह से उन्होंने परंपरावादी और पुराने मूल्यों से जकड़े समाज पर कटाक्ष किए हैं, वह अद्भुत है।
विजय तेंदुलकर के नाटकों पर अश्लीलता और शाब्दिक हिंसा के इल्जाम लगाने वाले यह भूल जाते हैं कि तेंदुलकर के नाटकों से कहीं ज़्यादा अनैतिकता, अश्लीलता, शाब्दिक हिंसा हमारे सार्वजनिक जीवन में है, जिसका सामना हम खामोशी से आये दिन करते रहते हैं।
पश्चिमी नाटकों का प्रभाव
6 जनवरी, 1928 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जन्मे विजय धोंडोपंत तेंदुलकर ने बचपन से ही नाटकों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी। पश्चिमी नाटकों का उन पर ज़बर्दस्त असर था। चौदह साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला नाटक निर्देशित किया। इसके बाद उनका यह सिलसिला लगातार जारी रहा। नाटक के अलावा वह अख़बारों में लेखन भी करते थे, मगर उनका पहला शौक नाटक ही था। तेंदुलकर के शुरुआती नाटक मंच पर कोई कमाल नहीं दिखा पाए। आख़िरकार साल 1956 में उनका नाटक ‘श्रीमंत’ आया और इस नाटक को दर्शकों-आलोचकों दोनों ने ही काफ़ी पसंद किया। इस नाटक के साथ ही मराठी रंगमंच पर उनकी पहचान एक नाटककार के तौर पर बन गई।
फिर तो उनकी क़लम से एक से बढ़कर एक शाहकार नाटक निकले। मसलन ‘शांतता! कोर्ट चालू आहे’ (खामोश अदालत जारी है), ‘जाति ही पूछो साधु की’, ‘गिद्ध’, ‘बेबी’, ‘कमला’, ‘मच्छिंद मोरे के जानेमन’, ‘सखाराम बाइंडर’ और इन सबसे खास ‘घासीराम कोतवाल’।
‘घासीराम कोतवाल'
साल 1970 में लिखे गए ‘घासीराम कोतवाल’ ने तो भारतीय रंगमंच में हलचल मचा दी। नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ में विजय तेंदुलकर ने मराठी लोक संगीत और पारंपरिक रंगकर्म को आधार बनाते हुए, जिस तरह उसमें आधुनिक रंगमंच की तकनीकी बारीकियों का इस्तेमाल किया, वह मराठी रंगमंच में पहला प्रयोग था। इस नाटक ने मराठी रंगमंच की पूरी तसवीर ही बदल कर रख दी और आज वह अपने आप में एक इतिहास है। ख़ुद विजय तेंदुलकर अपने इस नाटक के बारे में कहते थे, ‘घासीराम कोतवाल’ एक किंवदंती है, एक दंतकथा है। दंतकथा का एक अपना रचना विधान होता है। झीने यथार्थ को जब हम अपनी नैतिकता से रंजित कर कल्पना की सहायता से फिर से जीवित करते हैं, तो एक दंतकथा बन जाती है। दंतकथा गप्प भी है, और देखने की दृष्टि हो, तो एक दाहक अनुभव भी। दाहक अनुभव ही रचनात्मक साहित्य बन पाता है, इसमें कोई शक़ नहीं है।’
‘घासीराम कोतवाल’ की लोकप्रियता का ही सबब था कि इसका अनुवाद हिंदुस्तान की तकरीबन सभी जबानों में किया गया और हर जगह इसे कामयाबी मिली। हिंदुस्तानी रंगमंच के इतिहास में ‘घासीराम कोतवाल’ ऐसा नाटक है, जिसके सबसे ज़्यादा प्रदर्शन हुए हैं।
छह हज़ार से ज़्यादा बार इस नाटक का मंचन हुआ है। आज भी यह नाटक देश के अलग-अलग हिस्सों में सफलता से खेला जा रहा है। ‘घासीराम कोतवाल’ के अलावा साल 1972 में लिखे गये नाटक ‘सखाराम बाइंडर’ ने भी नाट्य जगत में नये आयाम स्थापित किए। अपने बोल्ड कथानक की वजह से सेंसर बोर्ड ने इस नाटक पर पाबंदी लगा दी थी। मामला अदालत में गया, जहाँ से जीत मिलने के बाद ही इस नाटक का दोबारा मंचन हुआ।
नाटक का नाम भले ही ‘सखाराम बाइंडर’ हो मगर इसकी केन्द्रीय पात्र स्त्री है। औरत की ज़िंदगानी और उसके संघर्ष तेंदुलकर ने ‘सखाराम बाइंडर’ के धूर्त किरदार के मार्फत दिखाने की कोशिश की है। पितृसत्ता के ख़िलाफ़ स्त्री मुक्ति की कामना नाटक की मुख्य विषय-वस्तु है। नाटक में तेंदुलकर ने घर की चार दीवारी में कैद स्त्री के शोषण को बख़ूबी दिखाया है। वह भी उसी रूप में, जिस रूप में वह वास्तव में है। उनका एक और नाटक ‘जाति ही पूछो साधु की’ भारतीय समाज में फैले जातीय विद्वेष और इससे पनपी हिंसा को उभारता है।
लेखन के अलावा तेंदुलकर का समानांतर सिनेमा से भी जुड़ाव बना रहा। कला फ़िल्मों के दिग्गज निर्देशक श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी की चर्चित फ़िल्मों मसलन ‘मंथन’, ‘अर्द्धसत्य’, ‘आक्रोश’ और ‘निशांत’ की उन्होंने पटकथायें लिखीं। श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘मंथन’ की पटकथा के लिए साल 1977 में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। नाटक, साहित्य और फ़िल्मों के अलावा उन्होंने टेलीविजन के लिए सोप ओपेरा भी लिखे। उनके टेलीविजन धारावाहिक ‘स्वयंसिद्धा’ ने दूरदर्शन पर ख़ूब लोकप्रियता बटोरी।
अपने दौर की कड़वी सच्चाइयों को बयाँ करने का माद्दा, उनमें औरों से कहीं ज़्यादा था। अपने लेखन पर विजय तेंदुलकर का कहना था, ‘मैं आदर्शों में यक़ीन करने वाला लेखक नहीं हूँ। मैं अपने खुरदरे यथार्थ के साथ ही ठीक हूँ। लोग कहते हैं कि मेरे लेखन में पत्रकारिता की छाप है। पर मैं इसमें कोई बुराई नहीं देखता।’
भारतीय रंगमंच में यथार्थवाद का यह चितेरा नाटककार, 19 मई 2008 को मंच से अचानक नेपथ्य में चला गया। ज़िंदगी के कटु यथार्थ को अनूठे अंदाज़ में पेश करने वाले विजय तेंदुलकर, अपने यथार्थवादी और विचारोत्तेजक नाटकों के लिए हमेशा याद किए जाएँगे।
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