अदाकारी के अजीमुश्शान बादशाह दिलीप कुमार अब इस दुनिया में नहीं रहे। दुनिया भर में फैले अपने लाखों-लाख चाहने वालों को उन्होंने 7 जुलाई को अपना आखिरी अलविदा कह दिया। पिछले एक महीने से वे लगातार बीमार थे। वे उम्र के जिस पड़ाव पर थे, जिस्मानी तकलीफें और बीमारियाँ लाजमी थीं। बीते साल 11 दिसंबर को ही उन्होंने अपना 98वां जन्मदिन मनाया था।
हिंदोस्तानी सिनेमा में दिलीप कुमार वे अदाकार थे, जिनका जीते जी लेजेंड का मर्तबा है। दिलों को जीतने वाले इस शानदार अदाकार ने अपनी अदाकारी से एक नया इतिहास रचा था। फ़िल्मों में अदाकारी को छोड़े उन्हें तीन दशक का लंबा अरसा हो गया था, लेकिन उनकी अदाकारी का जादू आज भी उनके चाहने वालों के सिर चढ़कर बोलता है।
'मेथड एक्टिंग'
दिलीप कुमार ने किसी अदाकारी के स्कूल में ट्रेनिंग नहीं ली, लेकिन अदाकारी का अपना एक ऐसा जुदा तरीका ईजाद किया, जिसे 'मेथड एक्टिंग' कहते हैं। उनकी अदाकारी का यह अंदाज पूरे देश-दुनिया में खूब पसंद किया गया।
नेहरू पीरियड के हीरो
भारतीय सिनेमा में उनके समकालीन से लेकर मौजूदा पीढ़ी तक के नायक-महानायक उन्हें अभिनय-कला के शिखर पुरुष के तौर पर देखते थे और उनसे प्रेरणा लेते हैं।
एक दौर था, जब फिल्मों में एक्टिंग करना अच्छा नहीं माना जाता था, मगर दिलीप कुमार की शख्सियत के जादू ने अदाकारी को भी एक मो’तबर फन बना दिया। ये उनकी अदाकारी का ही करिश्मा है कि वे फ़िल्मी दुनिया में 'ट्रेजेडी किंग' और शहंशाहे-जज्बात के तौर पर मशहूर हुए।
दिलीप कुमार, नेहरू पीरियड के हीरो थे। उनकी 57 फिल्मों में से 36 फिल्में ऐसी हैं, जो साल 1947 से 1964 के दरमियान बनी थीं। 'शहीद', 'मेला', 'नया दौर', 'पैगाम', 'मुगल-ए-आजम', 'गंगा जमुना' और 'लीडर' जैसी फ़िल्मों ने दिलीप कुमार को नेहरू-दौर के मसलों और नौजवानों के जज्बात का तर्जुमान बना दिया।
दिलीप कुमार ने अपने 60 साल के फ़िल्मी कैरियर में बमुश्किल 60 फिल्में ही की होंगी, लेकिन इन फ़िल्मों में भी ज़्यादातर ऐसी हैं, जिनमें उनकी अदाकारी को लोग बरसों तक याद रखेंगे। उन्हें कोई भुला नहीं पायेगा।
हिट फ़िल्में
दिलीप कुमार का फ़िल्मों में अदाकारी का सिलसिला साल 1944 में आए 'ज्वार भाटा' से शुरू हुआ और तीन साल के छोटे से वक्फे में उन्होंने अपनी पहली कामयाब फिल्म 'जुगनू' दे दी। इसके बाद का दौर, दिलीप कुमार की कामयाबी का दौर है।
पूरे दो दशक तक लगातार उन्होंने फिल्म बॉक्स ऑफिस पर राज किया। एक के बाद एक उन्होंने कई सुपर हिट फिल्में 'मेला', 'शहीद' (साल-1948), 'अंदाज' (साल-1949), 'दीदार' (साल-1951), 'आन', 'दाग' (साल-1952), 'आजाद', 'उड़न खटोला', 'देवदास' (साल-1955), 'नया दौर' (साल-1957), 'मधुमति', 'यहूदी' (साल-1958), 'पैगाम' (साल-1959), 'कोहिनूर', 'मुगल-ए-आजम' (साल-1960), 'गंगा जमुना' (साल-1961), 'लीडर' (साल-1964), 'दिल दिया दर्द लिया' (साल-1966), 'राम और श्याम' (साल-1967) दीं।
सातवे दशक में उनकी रफ़्तार कुछ कम हुई, लेकिन बीच-बीच में बतौर चरित्र अभिनेता वे फ़िल्मों में आते रहे। इन फिल्मों में 'क्रांति' (साल-1981), 'शक्ति', 'विधाता' (साल-1982), 'मशाल' (साल-1984), 'कर्मा' (साल-1986) और 'सौदागर' (साल-1991) आदि बेहद कामयाब हुईं।
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पेशावर से मुंबई
फ़िल्मों से दिलीप कुमार का सक्रिय ताल्लुक साल 1991 तक रहा। बाद में सियासी मशरुफ़ियत और अपनी बढ़ती उम्र के मद्देनज़र उन्होंने फ़िल्मों से पूरी तरह किनारा कर लिया।
अविभाजित भारत के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के अहम शहर पेशावर में एक पठान परिवार में 11 दिसम्बर, 1922 को जन्मे यूसुफ़ ख़ान ने कभी ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि वे एक दिन एक्टर दिलीप कुमार बनेंगे। उनका ऐसा कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं था।
उनके अब्बा मोहम्मद सरवर खान मुम्बई में क्रॉफर्ड मार्केट में फलों के थोक व्यापारी थे। बचपन में एक फ़कीर ने जरूर उनके बारे में यह भविष्यवाणी की थी, 'यह बच्चा बहुत मशहूर होने और गैर-मामूली ऊंचाइयों पर पहुंचने के लिए पैदा हुआ है।'
बहरहाल, उनके परिवार के पेशावर से मुम्बई में शिफ्ट हो जाने के बाद, यह बात आई-गई हो गई। माटुंगा के खालसा कॉलेज में दिलीप कुमार ने ग्रेजुएशन किया। कॉलेज में उनकी मुलाक़ात राज कपूर से हुई, जो जल्द ही अच्छी दोस्ती में बदल गई। दिलीप कुमार की डैशिंग पर्सनालिटी देखकर अक्सर राज कपूर उनसे यह बात कहा करते थे, 'तुसीं एक्टर बन जाओ ! तुसीं हो बड़े हैंडसम !'
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नौकरी की तलाश!
मगर दिलीप कुमार, राज कपूर की इस बात को कभी संजीदगी से नहीं लेते थे। वे सोचते, एक्टिंग ! न बाबा न यह उनके वश की बात नहीं ! राज कपूर और उनके परिवार का शुरू से ही करीबी रिश्ता था। राज के दादा बशेशरनाथ से उनके अब्बा का तआल्लुक पेशावर से ही था, जो मुम्बई में भी जारी रहा।
ग्रेजुएशन के बाद दिलीप कुमार एक छोटी सी नौकरी की तलाश में थे ताकि अपने बड़े परिवार का खर्चा उठाने में अपने अब्बा का सहारा बन सकें। लेकिन उनकी किस्मत में कुछ और ही मंजूर था, जो उन्हें 'बॉम्बे टॉकीज' खींच ले गई।
अदाकारा देविका रानी ने उन्हें फ़िल्म 'ज्वार भाटा' के लिए हीरो चुन लिया।
परिवार के उसूलों के ख़िलाफ़ फ़िल्मों में काम करना यूसुफ़ ख़ान के लिए नया था। देविका रानी ने उन्हें नया नाम भी दे दिया। कुमुदलाल गांगुली यानी अशोक कुमार की तर्ज पर यूसुफ़ ख़ान, दिलीप कुमार हो गए।
'ज्वार भाटा' से शुरुआत
पहली फिल्म 'ज्वार भाटा' ने भले ही बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं दिखाया, पर आगे चलकर उनकी कई बाकमाल, बेमिसाल फिल्में आईं।
बॉम्बे टॉकीज में नौकरी के दौरान दिलीप कुमार की मुलाक़ात जाने माने अभिनेता अशोक कुमार, निर्माता-निर्देशक एस. मुखर्जी, अमिय चक्रवती से हुई, जिनसे उन्होंने अदाकारी के बारे में बहुत कुछ सीखा। सीनियरों की सीख और अपने तजुर्बे से वे इस नतीजे पर पहुंचे, कि एक्टर को अपने इंस्टिंक्ट (सहज बुद्धि) को मजबूत करना चाहिए। क्योंकि असली और नकली के दोहरेपन को दिमाग से नहीं सुलझाया जा सकता।
सिर्फ आपके इंस्टिंक्ट्स ही आपको स्क्रीनप्ले की भावनाओं को अपने दिलोदिमाग में उतारकर ऐसा अभिनय करने की प्रेरणा देते हैं, जो सच्चाई और विश्वसनीयता में लिपटा हुआ हो-इस जानकारी के बावजूद कि यह सब नकली है, नाटक है !
दिलीप कुमार जब फ़िल्मों में आये, तब अदाकार काफी लाउड और नाटकीय अभिनय करते थे। 'पारसी थियेटर' का फ़िल्मों पर असर बाकी था। दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के उन अभिनेताओं में से एक हैं, जिन्होंने इस परिपाटी को तोड़ा।
लीक से हट कर
उन्होंने बड़े ही सयंत तरीके से अपने किरदारों को निभाया। वे बड़े आहिस्तगी से अपने संवाद बोला करते थे। डायलॉग के बीच में उनकी लंबी चुप्पी, जानबूझकर चुप रह जाने की अदा दर्शकों को काफी पसंद आती थी।
दिलीप कुमार ने फिल्मों में जो भी किरदार निभाये, डूबकर किए। खामोशी की आवाज और अपनी आँखों के अभिनय से उन्होंने फिल्मों में यादगार एक्टिंग की है। उनके अंदर एक्टिंग में टाइमिंग की जबर्दस्त समझ थी। यही नहीं अदाकारी में वे बेहद परफेक्शनिस्ट थे।
फ़िल्म ‘कोहिनूर’ में ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ गाने में सितार बजाने के लिए, उन्होंने उस्ताद अब्दुल हालिम ज़ाफर ख़ान साहब से महीनों सितार बजाना इसलिए सीखा कि वे सितार बजाते हुए स्वाभाविक दिखें।
रोल मॉडल
दिलीप कुमार ने जो भी फ़िल्में की, उसमें अपनी ओर से हमेशा यह कोशिश की इन फ़िल्मों में ऐसी कहानी हो, जिसमें अवाम के लिए एक बेहतर पैगाम हो। मनोरंजन के अलावा वे फ़िल्मों से कुछ सीखकर अपने घर जाएं।
अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “मैंने इस बात की भरपूर से कोशिश की है कि मैं एक अच्छा रोल मॉडल बनूं। मैं इस बात से पूरी तरह यकीन करता हूं कि एक कलाकार को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों की जानकारी होनी चाहिए और उसे इसके प्रति सजग होना चाहिए। उसे अपने प्रशंसकों के चरित्र-निर्माण का ध्यान रखना चाहिए। जो उसके काम और शख्सियत से प्रेरणा लेते हैं।’’
दिलीप कुमार की कोई भी फ़िल्म उठाकर देख लीजिए, इनमें उनका यह उद्देश्य ओझल होता नहीं दिखाई देगा।
'गंगा जमुना' वह फ़िल्म थी, जिसमें दिलीप कुमार ने अदाकारी करने के अलावा इस फिल्म का निर्देशन और स्क्रिप्ट लिखी। अलबत्ता फिल्म में निर्देशक के तौर पर नितिन बोस का नाम था। भोजपुरी ज़बान के बावजूद यह फिल्म सुपर हिट साबित हुई।
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नई किस्म की फ़िल्में!
कार्लोवी वैरी, चेकोस्लोवाकिया, बोस्टन और कैरो आदि अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में यह फिल्म दिखाई गई और इसे खूब पसंद किया गया। साल 1974 में आई 'सगीना', दिलीप कुमार की एक ऐसी फ़िल्म है, जो लीक से हटकर थी। इस फिल्म में निर्देशक तपन सिन्हा ने सर्वहारा मजदूर आंदोलन को दिखलाया था।
दिलीप कुमार की अदाकारी के दौर में उनके बारे में कई किदवंतियां प्रचलित थीं। मशहूर अफ़सानानिगार कृश्न चंदर ने अपने एक लेख ‘फ़िल्मों की आबरू : दिलीप कुमार’ में उनकी अदाकारी के बारे में लिखा था, "दिलीप कुमार का अपना रंग है, जुदा लहजा है। मख्सूस (विशेष) तर्जे-अदा है। दिलीप कुमार की अदाकारी की सत्ह आलमी सत्ह की है। यूं तो दिलीप ने तरबिया (सुखान्त) अदाकारी में भी अपने जौहर दिखाये हैं, लेकिन हुज्निया और अल्मीया (दुखांत) अदाकारी में दिलीप ने एक क्लासिक का दर्जा इख्तियार कर लिया है। इस मैदान में कोई उसे छू नहीं सका।"
नज़्म निगार और ड्रामानिगार नियाज हैदर भी दिलीप कुमार की अदाकारी के दीवाने थे। अपने लेख 'फिल्मी सल्तनत का मुगले-आज़म' में दिलीप कुमार की अदाकारी के फ़न की तारीफ करते हुए उन्होंने लिखा था, "दिलीप कुमार की किरदार निगारी ने नई नस्ल के लिए एक बड़ा वरसा (धरोहर) जमा कर दिया है। दिलीप कुमार की अदाकारी एक मक्तब (स्कूल) है, जिससे नई नस्ल के अदाकारों को हमेशा फै़ज़ पहुंचता रहा है और आइन्दा भी वह मुस्तफीद (लाभान्वित) होते रहेंगे।"
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू खुद, दिलीप कुमार की अदाकारी के मुरीद थे। वहीं दिलीप कुमार की नजरों में भी नेहरू के लिए बहुत एहतराम था। वे उनकी बहुत इज्जत किया करते थे।
नेहरू के साथ खड़े
नेहरू के समाजवादी ख्यालों से वे बेहद मुतासिर थे। नेहरू के एक इशारे पर वे उनके साथ खड़े हो जाते थे।
साल 1962 के लोकसभा चुनाव में जब नेहरू ने उनसे वी. के. कृष्ण मेनन के चुनाव प्रचार के लिए कहा, तो वे इंकार नहीं कर सके। दिलीप कुमार की धुआंधार चुनावी सभाओं का ही नतीजा था कि वीके कृष्ण मेनन ने आचार्य जेबी कृपलानी को चुनाव में क़रारी शिकस्त दी। इसके बाद दिलीप कुमार कांग्रेस पाटी से आगे भी जुड़े रहे।
उनके लिए सियासत में हिस्सेदारी का मतलब इंसानियत और अवाम की खिदमत था। जब भी देश में भूकंप, बाढ़ या अकाल जैसी आपदाएं आती, तो वे उसके लिए सरकारी राहत कोष के लिए चंदा इकट्ठा करने की मुहिम में जुट जाते।
बावजूद इसके वे सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे। रजनी पटेल और शरद पवार जो उनके अच्छे दोस्त थे, के इसरार पर उन्होंने मुम्बई का शेरिफ़ बनना मंजूर किया। आगे चलकर वे महाराष्ट्र से राज्यसभा के मेंबर भी चुने गए।
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पाकिस्तानी पुरस्कार!
भारत सरकार के बड़े नागरिक सम्मानों में से एक 'पद्मभूषण' और 'पद्म विभूषण' के अलावा साल 1998 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज़' से सम्मानित किया।
जब इस सम्मान का एलान हुआ, तो शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने यह फ़तवा जारी कर दिया कि दिलीप कुमार को यह सम्मान नहीं लेना चाहिए।
यहां तक कि उनकी वतनपरस्ती पर भी सवाल उठाए गए। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर दिलीप कुमार ने यह पुरस्कार स्वीकार किया।
दिलीप कुमार जैसी शख्सियत सदियों में एक बार पैदा होती हैं। अल्लामा इकबाल का यह शाहकार शे’र, शायद उन जैसी आला शख्सियतों के लिए ही लिखा गया है, 'हजारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है/बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदा-वर पैदा।'
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