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कृश्न चंदर : कब इंसान के भीतर शैतान जाग उठता है...!

आज यानी 23 नवंबर को उर्दू और हिंदी के ख्यात लेखक कृश्न चंदर का जन्‍मदिन है। 

उर्दू अदब, ख़ास तौर से उर्दू अफसाने को जितना कृश्न चंदर ने दिया, उतना शायद ही किसी दूसरे अदीब ने दिया हो। इस मामले में सआदत हसन मंटो ही उनसे अव्वल हैं, वरना सभी उनसे काफ़ी पीछे। उन्होंने बेशुमार लिखा, हिंदी और उर्दू दोनों ही ज़बानों में समान अधिकार के साथ लिखा।

कृश्न चंदर की ज़िंदगी के ऊपर तरक्कीपसंद तहरीक का सबसे ज़्यादा असर पड़ा। यह अकारण नहीं है कि उनके ज़्यादातर अफसाने समाजवाद से प्रेरित हैं। वह एक प्रतिबद्ध लेखक थे। उनके सम्पूर्ण साहित्यिक लेखन को उठाकर देख लीजिए, उसमें हमेशा एक उद्देश्य, एक विचार मिलता है। किसी उद्देश्य के बिना उनकी कोई रचना पूरी नहीं होती थी। कृश्न चंदर ने अपनी कलम के ज़रिये हमेशा दीन-दुखियारों के दुःख-दर्द, उम्मीदों-नाकामियों की बात की। साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता पर प्रहार किए।

23 नवम्बर, 1914 को अविभाजित भारत के वजीराबाद, ज़िला गूजराँवाला में जन्मे कृश्न चंदर का बचपन और जवानी का शुरुआती हिस्सा कश्मीर में बीता। यही वजह है कि उनकी भाषा पर डोगरी और पहाड़ी का साफ़ असर दिखलाई देता है। साल 1936 से ही कृश्न चंदर ने लिखना शुरू कर दिया था। उनके लिखने की शुरुआत एक लघु कथा से हुई। लघु कथा एक पत्रिका में प्रकाशित हुई और इसकी ख़ूब तारीफ़ भी हुई।

ख़ास ख़बरें

लेखक के रूप में कृश्न चंदर का आगे का विकास लाहौर में हुआ। लाहौर उस समय कला और संस्कृति का एक बड़ा केंद्र माना जाता था। यह वह ज़मीन थी जहाँ से फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, बलराज साहनी, देवानंद और चेतन आनंद जैसे कलमकार और कलाकार निकले। लाहौर के बारे में ख़ुद कृश्न चंदर ने लिखा है, ‘लाहौर वह जगह है जहाँ मैं पैदा हुआ था, जहाँ मैंने शिक्षा ग्रहण की, जहाँ मैंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की, और जहाँ मुझे प्रसिद्धि मिली। मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए लाहौर को भुला पाना नामुमकिन है। यह हमारे दिलों में किसी गहने की तरह चमकता है और हमारी आत्मा में ख़ुशबू की तरह ज़िंदा है।’

अपनी नौजवानी के दिनों में कृश्न चंदर ने सियासत में भी हिस्सा लिया। वे बाक़ायदा सोशलिस्ट पार्टी के मेंबर भी रहे। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में वे एक बार शहीद-ए-आजम भगत सिंह के साथ गिरफ्तार हो, जेल भी गए थे।

बँटवारे के बाद कृश्न चंदर लाहौर से हिंदुस्तान आ गए। बँटवारे के बाद मिली आज़ादी को कृश्न चंदर हमेशा त्रासद आज़ादी मानते रहे और उसी की नुक्ता-ए-नज़र में उन्होंने अपनी कई कहानियाँ और रचनाएँ लिखीं।

उनकी कहानी ‘पेशावर एक्सप्रेस’ भारत-पाक बँटवारे की दर्दनाक दास्ताँ को बयाँ करती है। इस कहानी में उन्होंने बड़े ही ख़ूबसूरती से इस ख्याल को पिरोया है,

‘कब आदमी के भीतर का शैतान जाग उठता है और इंसान मर जाता है।’

देश के बँटवारे के कुछ दिन बाद ही उन्होंने एक और बँटवारा देखा। साल 1948 में भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का बँटवारा। कश्मीर के बँटवारे ने उन्हें इस मुद्दे पर अपना पहला उपन्यास ‘शिकस्त’ लिखने के लिए प्रेरित किया। कश्मीर को अगर हकीकी तौर से जानना है, तो ‘शिकस्त’ एक लाजवाब उपन्यास है। कृश्न चंदर ने इस उपन्यास में अपनी पूरी आत्मा उडे़ल दी है।

पढ़ाई पूरी करने के बाद कृश्न चंदर ने अपनी पहली नौकरी ऑल इंडिया रेडियो में की। पहली पोस्टिंग लाहौर में हुई और उसके बाद दिल्ली आना हुआ। कुछ दिन वह ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ में भी रहे। ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी के दौरान उनकी मुलाक़ात अपने दौर के कई मशहूर लेखकों मसलन सआदत हसन मंटो, राशिद, मीराजी, अहमद नदीम कासमी, उपेन्द्रनाथ अश्क, शाहिद अहमद देहलवी, निराग हसन ‘हसरत’, डॉ. तासीर से हुई। जिनके साथ रहकर उन्होंने बहुत कुछ सीखा।

फ़िल्मों में कैसे पहुँचे कृश्न चंदर

कृश्न चंदर का फ़िल्मों में जाना कैसे हुआ, इसके पीछे भी एक दिलचस्प वाकया है। लखनऊ में नौकरी के दौरान कृश्न चंदर की कहानी ‘सफेद खून’ एक पत्रिका में छपी, जिसे एक फ़िल्म निर्माता डब्ल्यू. जैड. अहमद ने पढ़ा, तो उन्होंने कृश्न चंदर से फ़िल्म के लिए लिखने की पेशकश की। पेशकश को मंजूर करते हुए कृश्न चंदर ने अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दिया और पुणे आकर ‘शालीमार पिक्चर्स’ में शामिल हो गए। उन्होंने अपनी इसी कहानी ‘सफेद ख़ून’ पर फ़िल्म ‘मन का मीत’ की स्टोरी लिखी, जो बेहद कामयाब रही। उनकी बाक़ी ज़िंदगी मायानगरी मुंबई में ही गुजरी।

कृश्न चंदर ने कहानियाँ, उपन्यास, व्यंग्य लेख, नाटक यानी साहित्य की सभी विधाओं में ख़ूब काम किया। मगर उनकी मुख्य पहचान कहानीकार के तौर पर ही बनी। दूसरी आलमी जंग के दौरान बंगाल में पड़े भीषण अकाल पर लिखी ‘अन्नदाता’ उनकी कालजयी कहानी है। इस कहानी के लिखने के साथ ही उर्दू अदब में उनकी पहचान एक तरक्कीपसंद अफ़सानानिगार के रूप में होने लगी थी। ‘अन्नदाता’ का अंग्रेज़ी ज़बान में भी तर्जुमा हुआ। जो कि हिंदी से भी ज़्यादा मक़बूल हुआ। इस कहानी के साथ ही कृश्न चंदर अंतरराष्ट्रीय अदबी दुनिया में एक बेहतरीन अफसानानिगार के तौर पर तस्लीम कर लिए गए।

‘अन्नदाता’ के बाद उन्होंने कई शाहकार अफसाने लिखे। ‘गड्डा’, ‘दानी’, ‘पूरे चांद की रात’, ‘आधे घंटे का खुदा’ जैसी उनकी कई दूसरी कहानियाँ भी उर्दू अदब में क्लासिक मानी जाती हैं। कृश्न चंदर की ज़्यादातर कहानियाँ ऐसे इंसानों पर केंद्रित हैं, जिनको दूसरे लोग आम तौर पर नोटिस भी नहीं करते। मसलन, कहानी ‘कालू भंगी’ में वे बड़े ही मार्मिकता से समाज में सबसे ज़्यादा हाशिए पर रहने वाले दलित समुदाय के एक शख्स ‘कालू’ की ज़िंदगी की दर्दनाक दास्ताँ को बयाँ करते है। कृश्न चंदर में हर इंसान को बराबरी और सम्मान देने का एक अद्भुत गुण था।

व्यवस्था पर भी तीखे प्रहार 

उन्होंने अपनी कहानियों में व्यवस्था पर भी तीखे प्रहार किए। लालफीताशाही और अफसरशाही ने देश की व्यवस्था को कैसे चौपट किया है, यह उनकी कहानी ‘जामुन का पेड़’ में दिलचस्प तरीक़े से आया है। व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गई यह कहानी सरकारी महकमों की कार्यशैली, अफसरों के काम करने के तौर-तरीक़ों और लालफीताशाही पर गंभीर सवाल उठाती है। यह एक ऐसे शख्स की कहानी है, जो सरकारी परिसर के लॉन में लगे एक जामुन के पेड़ के नीचे दब जाता है। सुबह जब माली को इस बात की ख़बर होती है, तो वह इसकी जानकारी अपने ऑफिस में देता है। तमाम सरकारी कर्मचारी और अधिकारी जामुन के पेड़ के नीचे दबे इस शख्स को निकालने के बजाय एक-दूसरे महकमे और मंत्रालयों पर ज़िम्मेदारियाँ डालकर, अपने कर्त्तव्य से बचते रहते हैं। जैसे-तैसे इस शख्स को पेड़ के नीचे से निकालने का सरकारी आदेश आता है, लेकिन तब तक उसकी दर्दनाक मौत हो जाती है।

बीती सदी के साठ के दशक में लिखी गई यह नायाब कहानी, पिछले दिनों तब एक बार फिर चर्चा में आई, जब आईसीएसई ने ‘जामुन का पेड़’ को दसवीं क्लास के निर्धारित पाठ्यक्रम से अचानक हटा दिया।

कहानी को हटाने के पीछे काउंसिल के सेक्रेटरी और मुख्य कार्यकारी अधिकारी की अजब दलील थी, ‘यह कहानी दसवीं के विद्यार्थियों के लिए ‘उपयुक्त’ नहीं है।’

उर्दू कहानी को कृश्न चंदर की सबसे बड़ी देन टेक्निक है। उनकी कहानियों की टेक्निक, रिपोर्ताज की टेक्निक है। वे शब्द चित्रों के माध्यम से अपनी कहानियों में एक शानदार वातावरण बना दिया करते थे। यह वातावरण पाठकों पर जादू करता था। कृश्न चंदर की कोई भी कहानी उठाकर देख लीजिएगा, उनमें बुद्धि और भावना का लाजवाब तालमेल मिलेगा। मशहूर उर्दू आलोचक सैयद एहतिशाम हुसैन, कृश्न चंदर की कहानियों पर तंकीद करते हुए लिखते हैं, ‘कभी-कभी उनका मक़सद, उनकी कला पर छा जाता है।’ लेकिन कृश्न चंदर अपनी कहानियों के बारे में ख़ुद क्या सोचते हैं, यह उनके आत्मकथ्य में मिलता है। अपने आत्मकथ्य में वह लिखते हैं,

मेरी हर कहानी उस सफेद हत्थेवाले चाकू को हासिल करने की कोशिश है, जो कि बचपन में एक जागीरदार के बेटे ने मुझसे छीना था।’

प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर लिखते हैं,

‘उनकी कहानी-कला के विकास और उत्कर्ष का कारण यह भी है कि वह अपनी कहानियों पर मुनासिब आलोचना से कभी नाराज़ नहीं होते थे, बल्कि बड़ी विनम्रता के साथ उन्हें स्वीकार कर लेते थे। बाज लेखकों और शाइरों में वह जो एक घटिया क़िस्म का घमंड और अहंकार होता है, जो कि सामंती दौर की एक ग़ैर-जनतांत्रिक और मूर्खतापूर्ण परम्परा है और जिसे ध्वस्त करना प्रगतिशील आंदोलन के लिए ज़रूरी है, कृश्न चंदर में बिल्कुल नहीं।’

मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में कृश्न चंदर की कहानी कला का विश्लेषण करते हुए लिखा है,

‘कृश्न चंदर की कला की दो विशेषताएँ हैं-एक तो उनकी सार्वभौमिक दृष्टि और जागरूक बौद्धिकता। दूसरी उनकी विशिष्ट टेक्निक। जहाँ तक जागरूक बौद्धिकता का प्रश्न है, कृश्न चंदर को कथा क्षेत्र में वही स्थान प्राप्त है, जो अली सरदार जाफरी को काव्य क्षेत्र में। उनकी कहानियों की सर्जनात्मक दृष्टि विशाल भी है और स्पष्ट भी। वे जागरूक समाजवादी हैं। साथ ही उनका परिप्रेक्ष्य भी इतना विस्तृत है, जितना और किसी कथाकार का नहीं हुआ। वे कश्मीर के खच्चरवालों का भी उतना ही सजीव वर्णन करते हैं, जितना बंगाल के अकाल पीड़ितों और तेलंगाना के विद्रोही किसानों का। बंबई के फ़िल्म आर्केस्ट्राओं के दयनीय जीवन का भी विस्तृत चित्रण उन्होंने किया है। और बर्मा के मोर्चे पर लड़ते हुए अमेरिकी सैनिकों तथा कोरियाई युद्ध में आहुति देती हुई वीरांगनाओं का भी। किन्तु अपनी लगभग हर कहानी में सामाजिक क्रांति की आवश्यकता, बल्कि समाजवादी क्रांति की आवश्यकता चिल्ला-चिल्ला कर बोलती दिखाई देती है।’

कहानियों की तरह कृश्न चंदर के उपन्यास भी खासे चर्चित रहे। ख़ास तौर पर ‘एक गधे की आत्मकथा’। इस उपन्यास में उन्होंने देश के तत्कालीन सियासी और समाजी सिस्टम को बड़े ही व्यंग्यात्मक शैली में चित्रित किया है। वहीं उनका छोटा सा उपन्यास ‘एक गधा नेफा में’ साल 1962 में भारत-चीन के बीच हुई जंग के पसमंजर में लिखा गया है। आज जब भारत-चीन के बीच एक बार फिर सीमा विवाद चरम पर है, ऐसे हालात में ‘एक गधा नेफा में’ की प्रासंगिकता और भी ज़्यादा बढ़ जाती है। साल 1964 में लिखे गए इस उपन्यास की सारी बातें, छप्पन साल बाद भी चीन की फितरत पर सटीक बैठती हैं। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, चीन और उसके हुक्मरानों के असली किरदार को अच्छी तरह से जाना-समझा जा सकता है।

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कृश्न चंदर उन मुट्ठी भर साहित्यिक दिग्गजों में से एक थे, जिन्होंने भारतीय फ़िल्म उद्योग को अपनी प्रतिभा से सजाया, संवारा। उन्होंने तकरीबन दो दर्जन फ़िल्मों के लिए पटकथा और संवाद लिखे। इनमें से ‘धरती के लाल’, ‘आंदोलन’, ‘एक दो तीन’, ‘ममता’, ‘मनचली’, ‘शराफत’, ‘दो चोर’ और ‘हमराही’ जैसी फ़िल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी मिली। फ़िल्म ‘धरती के लाल’ और ‘शराफत’ उनकी कहानी पर ही बनी हैं। उन्होंने अपने भाई मोहिंदर नाथ को बतौर अभिनेता स्थापित करने के लिए दो फ़िल्में भी बनाईं जो बॉक्स ऑफ़िस पर नाकामयाब रहीं। इस नाकामी के बाद उन्होंने एक लेखक यानी कलम का मज़दूर बने रहने का ही फ़ैसला किया। 

कृश्न चंदर की शख्सियत की एक और महत्वपूर्ण बात, लिखने को लेकर उनके भीतर एक ज़बर्दस्त आग्रह था। लिखने के बारे में वह ख़ुद कहा करते थे,

‘मैं एक जानवर हूँ। जो बस लिखना जानता है। यदि मैं ना लिखूँ तो जी भी नहीं पाऊँगा।’

वे सुबह जल्दी उठते, अख़बार पढ़ते, चाय पीते, नहाते और फिर नाश्ते के बाद लिखने के लिए बैठ जाया करते। सुबह नौ से बारह या एक बजे तक अकेले में बैठकर लिखना, यह उनकी रोज़ की आदत थी। यदि किसी दिन लिखना ना हो पाता, तो उन्हें लगता एक कोई बहुत ज़रूरी काम छूट गया है। लिखते समय वह अपने किरदारों से दिल से जुड़ जाते थे। किरदारों द्वारा सहे जा रहे दर्द और तकलीफ को वह ख़ुद महसूस करते थे। इस बारे में कृश्न चंदर ने एक जगह लिखा है, ‘मेरा हर चरित्र मुझ पर से होकर गुजरता है।’

8 मार्च, 1977 को मुंबई में जब कृश्न चंदर का निधन हुआ, तो उस वक़्त भी उनके हाथ में कलम मौजूद थी। निधन के वक़्त कृश्न चंदर एक व्यंग्य ‘अदब बराय-ए-बतख’ (बतख के लिए साहित्य) लिख रहे थे। व्यंग्य उन्होंने शुरू ही किया था, और उसकी सिर्फ़ एक लाइन ही लिखी थी कि दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में वे अपनी आत्मकथा पर भी काम कर रहे थे, लेकिन यह उनके जीते जी पूरी नहीं हो पाई। बाद में उनकी पत्नी सलमा सिद्दीकी जो ख़ुद एक अच्छी लेखिका थीं, ने इसे पूरा किया। राजपाल एंड संस से प्रकाशित इस आत्मकथा में उनकी ज़िंदगी का पूरा सफर तफ्सील से मिलता है।
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जाहिद ख़ान
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