उर्दू अदब में फै़ज़ अहमद फै़ज़ का मुकाम एक अज़ीमतर शायर के तौर पर है। वे न सिर्फ उर्दूभाषियों के पसंदीदा शायर हैं, बल्कि हिंदी और पंजाबी भाषी लोग भी उनसे उतनी ही शिद्दत से मुहब्बत करते हैं। गोया कि फ़ैज़ भाषा और क्षेत्रीयता की सभी हदें पार करते हैं। एक पूरा दौर गुजर गया, लेकिन फ़ैज़ की शायरी आज भी हिंद उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर छाई हुई है। उनकी नज्मों-गजलों के मिसरे और अशआर लोगों की जुबान पर मुहावरों और कहावतों की तरह चढ़े हुए हैं। सच मायने में कहें, तो फ़ैज़ अवाम के महबूब शायर हैं और उनकी शायरी हरदिल अजीज।
प्रगतिशील लेखक संघ के बानी सज्जाद जहीर, फ़ैज़ की मक़बूलियत के बारे में कहते हैं, ‘‘मैं समझता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान बल्कि इन मुल्कों के बाहर भी जहां फ़ैज़ के बारे में लोगों की जानकारी है, उनकी असाधारण लोकप्रियता और लोगों को उनसे गहरी मुहब्बत का एक कारण उनके काव्य की खूबियों के अलावा यह भी है कि लोग फ़ैज़ की जिंदगी और उनके अमल, उनके दावों और उनकी कथनी में टकराव नहीं देखते।’’
फ़ैज़ सच्चे वतनपरस्त और अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे। दुनिया भर के जन संघर्षों के साथ उन्होंने हमेशा एकजुटता व्यक्त की। जहां-जहां साम्राज्यवादी ताकतों ने दीगर मुल्कों को अपनी नीतियों का निशाना बनाया, फ़ैज़ ने उन मुल्कों की हिमायत में आवाज़ उठाई।
अविभाजित भारत में सियालकोट जिले के छोटे से गांव कालाकादिर में 13 फरवरी, 1911 को पैदा हुए फ़ैज़ की शुरुआती तालीम मदरसे में हुई। बचपन में ही उन्होंने अरबी और फारसी की तालीम मुकम्मल कर ली थी। अदबी रुझान फ़ैज़ को विरसे में मिला। उनके वालिद सुल्तान मोहम्मद खान की अदब में गहरी दिलचस्पी थी।
बचपन से ही शायरी का जुनून
उर्दू के अज़ीम शायर इकबाल और सर अब्दुल कदीर से उनके नजदीकी मरासिम (संबंध) थे। जाहिर है कि परिवार के अदबी माहौल का असर फ़ैज़ पर पड़ना लाजिमी था। स्कूली तालीम के दौरान ही उन्हें शेर-ओ-शायरी से लगाव हो गया। शायरी का जुनून उनके सिर चढ़कर बोलता था। शायरी की जानिब फ़ैज़ की इस दिलचस्पी को देखकर, स्कूल के प्रिंसिपल ने एक दिन उन्हें एक मिसरा दिया और उस पर गिरह लगाने को कहा। फ़ैज़ ने उनके कहने पर पांच-छः अशआर की गजल लिख डाली। जिसे बाद में इनाम से भी नवाज़ा गया। इस वाकिआत के साथ ही उनके नियमित लेखन का सिलसिला शुरू हो गया।
स्कूली तालीम के बाद फ़ैज़ की आगे की पढ़ाई सियालकोट के ‘मरे कॉलेज’ और लाहौर के ‘ओरियंटल कॉलेज’ में हुई। जहां उन्होंने अरबी और अंग्रेजी दोनों जबानों में एम.ए. किया। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की फैमिली बड़ी थी। फैमिली में पांच बहनें और चार भाई थे। परिवार की आर्थिक मुश्किलों को देखते हुए, तालीम पूरी होते ही उन्होंने साल 1935 में एम.ए.ओ. कॉलेज, अमृतसर में नौकरी ज्वाईन कर ली और वे अंग्रेजी के लेक्चरर हो गए।
प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े
अमृतसर में नौकरी के दौरान फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मुलाकात महमूदुज्जफर, डॉ. रशीद जहां और डॉ. मोहम्मद दीन तासीर से हुई। बाद में उनके दोस्तों की फेहरिस्त में सज्जाद जहीर का नाम भी जुड़ा। यह वह दौर था, जब हिंदुस्तान में बरतानवी हुकूमत के ख़िलाफ़ आज़ादी का आंदोलन चरम पर था और हर हिंदुस्तानी अपनी-अपनी तरह से इस तहरीक में हिस्सेदारी कर रहा था।
ऐसे ही हंगामाखेज माहौल में सज्जाद जहीर और उनके चंद दोस्तों ने साल 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। फ़ैज़ भी लेखकों के इस आंदोलन से जुड़ गए। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद फ़ैज़ की शायरी में एक बड़ा बदलाव आया। उनकी शायरी की अंतर्वस्तु का कैनवास व्यापक होता चला गया।
इश्क, प्यार-मुहब्बत की रूमानियत से निकलकर, फ़ैज़ अपनी शायरी में हकीकतनिगारी पर जोर देने लगे। वे इश्क से इंकलाब, रूमान से हकीकत और गम-ए-यार से गम-ए-रोजगार की तरफ आये। उनकी नज्में इश्किया तौर पर शुरू होकर इंसान के दुनियावी सरोकार से जाकर मिलने लगीं।
तरक्कीपसंद ख़यालों वाली शायरी
इसके बाद ही उनकी यह मशहूर गजल सामने आई, ‘‘और भी दुख हैं, जमाने में मुहब्बत के सिवा/राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा/मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरी महबूब न मांग।’’ फ़ैज़ की शायरी में ये प्रगतिशील, जनवादी चेतना आखिर तक कायम रही। कमोबेश उनकी पूरी शायरी, तरक्कीपसंद ख़यालों का ही आइना है। उनकी पहली ही किताब ‘नक्शे फरियादी’ की एक गजल के कुछ अशआर देखिए,‘‘आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी/यासो-हिर्मान के दुःख-दर्द के मानी सीखे/जेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा/सर्द आहों के, रूखे-जर्द के मानी सीखे।’’
साल 1941 में ‘नक्शे फरियादी’ के प्रकाशन के बाद फ़ैज़ का नाम उर्दू अदब के अहम शायरों में शुमार होने लगा। मुशायरों में भी वे शिरकत करने लगे। एक इंकलाबी शायर के तौर पर उन्होंने जल्द ही मुल्क में शोहरत हासिल कर ली। अपने कलाम से उन्होंने बार-बार मुल्कवासियों को एक फैसलाकुन जंग के लिए ललकारा।
‘शीशों का मसीहा कोई नहीं’ शीर्षक नज्म में वे कहते हैं,‘‘सब सागर शीशे लालो-गुहर, इस बाजी में बद जाते हैं/उठो, सब खाली हाथों को इस रन से बुलावे आते हैं।’’ फ़ैज़ की ऐसी ही एक दीगर गजल का शेर है,‘‘लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं/इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।’’
मुल्क में आज़ादी की जद्दोजहद चल रही थी कि दूसरी आलमी जंग शुरू हो गई। जर्मनी ने रूस पर हमला कर दिया तब लगा कि अब ब्रिटेन भी नहीं बचेगा। भारत में फासिज्म की हुकूमत हो जाएगी। लिहाजा फासिज्म को हराने के ख्याल से फ़ैज़ लेक्चरर का पद छोड़कर फ़ौज़ में कप्तान हो गए।
बंटवारे से दुखी थे फ़ैज़
बाद में वे तरक्की पाकर कर्नल के ओहदे तक पहुंचे। लाखों लोगों की कुर्बानियों के बाद आखिरकार, वह दिन भी आया जब मुल्क आज़ाद हुआ। पर यह आज़ादी हमें बंटवारे के तौर पर मिली। मुल्क दो हिस्सों में बंट गया। भारत और पाकिस्तान! बंटवारे से पहले हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने पूरे मुल्क को झुलसा कर रख दिया।
रक्तरंजित और जलते हुए शहरों को देखते हुए फ़ैज़ ने ‘सुबहे-आज़ादी’ शीर्षक से एक नज्म लिखी। इस नज्म में बंटवारे का दर्द जिस तरह से नुमाया हुआ है, वैसा उर्दू अदब में दूसरी जगह मिलना बमुश्किल है, ‘‘ये दाग-दाग उजाला, ये शबगजीदा सहर/वो इंतिजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं/ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरजू लेकर/चले थे यार कि मिल जाएगी, कहीं न कहीं।’’
इस नज्म में फ़ैज़ यहीं नहीं रुक जाते, बल्कि वे आगे कहते हैं,‘‘नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई/चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई।’’ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ मुल्क की खंडित आजादी से बेहद गमगीन थे। यह उनके तसव्वुर का हिंदोस्तान नहीं था। नाउम्मीदी भरे माहौल में भी उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। आगे चलकर दोनों मुल्क एक हो जाएंगे।
कई बार जाना पड़ा जेल
बंटवारे के बाद फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘पाकिस्तान टाइम्स’, उर्दू दैनिक ‘इमरोज’ और हफ्तावार अख़बार ‘लैल-ओ-निहार’ के एडिटर की जिम्मेदारी संभाली।
पाकिस्तान में भी फ़ैज़ का संघर्ष खत्म नहीं हुआ। यहां भी वे सरकारों की ग़लत नीतियों की लगातार मुखालिफत करते रहे। इस मुखालिफत के चलते उन्हें कई मर्तबा जेल भी हुई।
बदले नहीं फ़ैज़
साल 1951 में वे रावलपिंडी साजिश केस में जेल की सलाखों के पीछे भेज दिए गए। साल 1955 में जैसे-तैसे रिहा हुए, तो साल 1958 में पाकिस्तान में फ़ौज़ी हुकूमत कायम होने पर उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। एक साल जेल में रहने के बाद, उन्हें रिहा किया गया। बावजूद इसके उन्होंने अपने ख़याल नहीं बदले।
जेल की हिरासत में ही उनके गजलों-नज्मों के दो मजमुए ‘दस्ते-सबा’ और ‘जिंदानामा’ शाया हुए। कारावास में एक वक्त ऐसा भी आया, जब जेल एडमिनिस्ट्रेशन ने उन्हें परिवार-दोस्तों से मिलवाना तो दूर, उनसे कागज-कलम तक छीन लिए। फ़ैज़ ने ऐसे ही शिकस्ता माहौल में लिखा,‘‘मता-ए-लौह-ओ-कलम छिन गई, तो क्या गम है/कि खूने-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने/जबां पे मुहर लगी है, तो क्या कि रख दी है/हरेक हलक-ए-जंजीर में जबां मैंने।’’
फ़ौज़ी हुक्मरानों के ख़िलाफ़ लड़े
‘जिंदानामा’ की ज्यादातर नज्में फ़ैज़ ने मंटगोमरी सेंट्रल जेल और लाहौर सेंट्रल जेल में लिखीं। कारावास के दौरान फ़ैज़ की लिखी गई गजलों और नज्मों ने दुनिया भर की अवाम को मुतासिर किया। तुर्की के महान कवि नाजिम हिकमत की तरह उन्होंने भी कारावास और देश निकाला जैसी यातनाएं भोगी। निर्वासन का दर्द झेला, लेकिन फिर भी वे फ़ौज़ी हुक्मरानों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के गीत गाते रहे। ऐसे ही एहतिजाज की उनकी एक नज्म है,‘‘निसार मैं तेरी गलियों पे ए वतन कि जहां/चली है रस्म की कोई न सर उठाके चले/जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले/नजर चुरा के चले, जिस्मों-जां को बचा के चले/.........यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क/न उनकी रस्म नयी है, न अपनी रीत नयी/यूं ही हमेशा खिलाये हैं, हमने आग में फूल/न उनकी हार नयी है, न अपनी जीत नयी।’’
फ़ैज़ की सारी जिंदगी को यदि उठाकर देखें, तो उनकी जिंदगी कई उतार-चढ़ाव और संघर्षों की मिली-जुली दास्तान है। बावजूद इसके उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। उनकी जिंदगानी में और उनके इंतिकाल के बाद भी उन पर कई किताबें प्रकाशित हुईं।
‘दस्ते-तहे-संग’, ‘वादी-ए-सीना’, ‘शामे-शहरे-यारां’, ‘सारे सुखन हमारे’, ‘नुस्खहा-ए-वफा’, ‘गुबारे अयाम’ जहां उनके दीगर शे’री मजमुए हैं, तो वहीं ‘मीजान’ और ‘मताए-लौहो-कलम’ किताबों में उनके निबंध संकलित हैं। फ़ैज़ ने रेडियो नाटक भी लिखे। जिनमें दो नाटक-‘अजब सितमगर है’ और ‘अमन के फरिश्ते’ काफी मकबूल हुए। उन्होंने ‘जागो हुआ सबेरा’ नाम से एक फिल्म भी बनाई, जो लंदन के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में पुरस्कृत हुई।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एफ्रो-एशियाई राइटर एसोसिएशन की मैगजीन ‘लोटस’ के भी चार साल तक एडिटर रहे। साल 1962 में उन्हें ‘लेनिन विश्व शांति सम्मान’ से नवाजा गया। फ़ैज़ पहले एशियाई शायर बने, जिन्हें यह आला एजाज हासिल हुआ।
भारत और पाकिस्तान के तरक्कीपसंद शायरों की फेहरिस्त में ही नहीं, बल्कि समूचे एशिया उपमहाद्वीप और अफ्रीका की आज़ादी और समाजवाद के लिए किए गए संघर्षों के संदर्भ में भी फ़ैज़ सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक शायर हैं।
अवाम की आवाज़ बने
उनकी शायरी जहां इंसान को शोषण से मुक्त कराने की प्रेरणा देती है, तो वहीं एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना का सपना भी जगाती है। उन्होंने अवाम के नागरिक अधिकारों के लिए और सैनिक तानाशाही के ख़िलाफ़ जमकर लिखा। ‘लाजिम है कि हम देखेंगे’, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे’, ‘दरबारे-वतन में जब इक दिन’, ‘आज बाजार में पा-बा-जौलां चलो’ उनकी ऐसी ही कुछ इंकलाबी नज्में हैं। इन नज्मों को एक स्वर में गाते हुए नौजवान जब सड़कों पर निकलते हैं, तो हुकूमतें हिल जाती हैं। ‘‘अब टूट गिरेंगी जंजीरें, अब जिंदानों की खैर नहीं/जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे/कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं, सर भी बहुत/चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल ही पे डाले जाएंगे।’’
जुल्म के ख़िलाफ़ लिखते रहे
अपनी जिंदगानी में ही फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ समय और मुल्क की सरहदें लांघकर, एक इंटरनेशनल शायर के तौर पर मकबूल हो चुके थे। दुनिया के किसी भी कोने में जुल्म होते, उनकी कलम मचलने लगती। अफ्रीका के मुक्ति संघर्ष में उन्होंने जहां ‘अफ्रीका कम बैक का’ नारा दिया, तो वहीं बेरूत में हुए नरसंहार के ख़िलाफ़ भी उन्होंने ‘एक नगमा कर्बला-ए-बेरूत के लिए’ शीर्षक से एक नज्म लिखी। गोया कि दुनिया में कहीं भी नाइंसाफी होती, तो वे अपनी नज्मों और गजलों के जरिए प्रतिरोध दर्ज कराते थे।
वंचितों के करीब रहे
साल 1982 में एक वक्तव्य में फ़ैज़ ने कहा था,‘‘मेरे तईं अमन, आज़ादी, युद्धबंदी और एटमी होड़ की मुखालिफत ही प्रासंगिक है। इस विशाल भाईचारे में से मेरे और मेरे दिल के सबसे नजदीक वे अवाम हैं जो अपमानित, निष्कासित और वंचित हैं, जो गरीब, भूखे और परेशान हैं। इसी वजह से मेरा लगाव फिलिस्तीन, दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, चिली के अवाम और अपने मुल्क के अवाम और मुझ जैसे लोगों से है।’’
फ़ैज़ की शायरी आज भी दुनिया भर में चल रहे लोकतांत्रिक संघर्ष को एक नई राह दिखलाती है। तानाशाह हुकूमतें, उनकी शायरी से खौफ खाती हैं। स्वाधीनता, जनवाद और सामाजिक समानता फ़ैज़ की शायरी का मूल स्वर है।
वे अपनी सारी जिंदगी इस कसम को बड़ी मजबूती से निभाते रहे, ‘‘हम परवरिशे-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे/जो दिल पे गुजरती है, रकम करते रहेंगे।......हां, तलखी-ए-अय्याम (दिनों की कटुता) अभी और बढ़ेगी/हां, अह्ले सितम मश्के-सितम करते रहेंगे/मंजूर ये तलखी, ये सितम हमको गवारा/दम है तो मदावा-ए-अलम (दुःख का इलाज) करते रहेंगे।’’
एक मुकम्मल जिंदगी जीने के बाद फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने 20 नवम्बर, 1984 को इस दुनिया से रुखसती ली। फिलिस्तीनी लीडर यासिर अराफात ने फ़ैज़ के इंतिकाल के बाद उन्हें अपनी खिराज-ए-अकीदत पेश करते हुए कहा था,‘‘फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हमें छोड़ गए, लेकिन हमारे दिलों में मुहब्बत का अमिट नक्श छोड़ गए। उन्होंने इंकलाबियों, दानिश्वरों और फनकारों की आने वाली नस्लों के लिए बेनजीर सरमाया छोड़ा है।’’
अवाम का यह महबूब शायर जिस्मानी तौर पर भले ही हमसे जुदा हो गया हो, लेकिन उनकी शायरी हमेशा जिंदा रहेगी और प्रेरणा देती रहेगी,‘‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे/बोल कि जबां अब तक तेरी है/......बोल कि सच जिंदा है अब तक/बोल जो कुछ कहना है कह ले।’’
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