साहिर लुधियानवी की शायरी में जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा खींचती है, वह उनका यथार्थ बोध है। अपने सारे रोमान के बावजूद यह शायर जैसे हक़ीक़त से आँख मूंदने को तैयार नहीं होता। वह सारे परदे हटा देता है और अपने पाठक या श्रोता को मजबूर करता है कि वे सच को बिल्कुल सच की तरह देखें। जहां इक़बाल लिखते हैं, ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’, वहीं साहिर पूछते हैं, ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहां हैं?’
साहिर लुधियानवी पर 'उद्भावना': कल कौन आएगा तुमसे बेहतर कहने वाला?
- साहित्य
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- 8 Dec, 2021

साहिर लुधियानवी पर पिछले दिनों 'नया पथ' का विशेषांक आया था। अब 'उद्भावना' का आया है। ये दोनों निश्चय ही बहुत समृद्ध अंक हैं।
यह तल्खी जैसे साहिर के मिज़ाज का हिस्सा है। सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि उनके एक संग्रह का नाम भी ‘तल्ख़ियां’ है। हिंदी-उर्दू में खोज लीजिए, शायद ही कोई शायर मिलेगा जो इतने तल्ख़ लहजे में सच्ची बात कहता हो और फिर भी शायरी के पैमानों से सूत भर भी हिलता न हो। 1958 में आई फ़िल्म ‘फिर सुबह होगी’ में साहिर की यह तल्ख़ी व्यंग्य की ऐसी चुभन के साथ आती है जो किसी को तार-तार कर सकती है। उन जैसा गीतकार ही लिख सकता है- चीनो अरब हमारा / हिंदोस्तां हमारा / रहने को घर नहीं है / सारा जहां हमारा। खोली भी छिन गई है / बेंचें भी छिन गई हैं / सड़कों पे घूमता है अब कारवां हमारा / जेबें हैं अपनी ख़ाली, क्यों देता वरना गाली / वो संतरी हमारा वो पासबां हमारा।‘