साहिर लुधियानवी की शायरी में जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा खींचती है, वह उनका यथार्थ बोध है। अपने सारे रोमान के बावजूद यह शायर जैसे हक़ीक़त से आँख मूंदने को तैयार नहीं होता। वह सारे परदे हटा देता है और अपने पाठक या श्रोता को मजबूर करता है कि वे सच को बिल्कुल सच की तरह देखें। जहां इक़बाल लिखते हैं, ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’, वहीं साहिर पूछते हैं, ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहां हैं?’