सामाजिक न्याय का चक्का कैसे धीरे-धीरे घूमता हुआ अपना काम कर रहा है, इसे बीते हफ़्ते उत्तराखंड के चंपावत ज़िले की एक घटना से समझा जा सकता है। यहां के सूखीढांग इंटर स्कूल में एक दलित महिला को नौकरी से निकाल दिया गया जो मिड डे मील तैयार करती थी। कुछ ही दिन पहले उसकी नियुक्ति हुई थी। लेकिन स्कूल के क़रीब 40 सवर्ण छात्रों ने उसके हाथ का बना खाना खाने से इनकार कर दिया था।
भोजन माता को भारत माता समझिए
- विचार
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- 31 Jan, 2021

दलित महिला के हाथ का बना खाना खाने से इनकार कर देना कौन सी मानसिकता है? 21वीं सदी में भी जातीय श्रेष्ठता का अहंकार चरम पर है।
इस इनकार में छात्रों के अभिभावकों की सहमति भी शामिल थी। जबकि इस महिला की नियुक्ति कुछ ही दिन पहले कई उम्मीदवारों के बीच हुई थी। इस नियुक्ति पर एतराज़ करने वालों की एक दलील यह भी थी कि जब उम्मीदवारों में एक सवर्ण महिला थी तो दलित महिला को इस ज़िम्मेदारी के लिए क्यों चुना गया।
इन आपत्तियों के आगे सरेंडर करते हुए प्रशासन ने इस महिला की नियुक्ति रद्द करते हुए इसमें कुछ ‘नियमगत गड़बड़ियों’ का हवाला दिया। उसकी जगह एक सवर्ण महिला को चुन लिया गया।