राकेश कायस्थ का उपन्यास 'रामभक्त रंगबाज़' कल सुबह ही मिला था और आज पढ़ कर ख़त्म किया- बस इसलिए नहीं कि इस उपन्यास का वास्ता मेरे बचपन और मेरे मोहल्ले से है, बल्कि इसलिए भी कि बहुत दिलचस्प ढंग से बुना गया यह उपन्यास उन सवालों पर बहुत गंभीरता से उंगली रखता है जिन पर बोलना इस खौलते हुए सांप्रदायिक समय में लगभग गुनाह बना दिया गया है। उपन्यास याद दिलाता है कि आज नफ़रत के जो छोटे-बड़े पौधे पूरे पर्यावरण को ज़हरीला बनाते दिख रहे हैं, उनको हवा और पानी मुहैया कराने का काम किन तत्वों और ताक़तों ने किया था- यह भी कि तब भी कुछ लोग उनका प्रतिरोध कर रहे थे और अब भी कर रहे हैं।