loader

‘रामभक्त रंगबाज़’: इस खौलते सांप्रदायिक वक़्त में उंगली रखना भी गुनाह!

राकेश कायस्थ का उपन्यास 'रामभक्त रंगबाज़' कल सुबह ही मिला था और आज पढ़ कर ख़त्म किया- बस इसलिए नहीं कि इस उपन्यास का वास्ता मेरे बचपन और मेरे मोहल्ले से है, बल्कि इसलिए भी कि बहुत दिलचस्प ढंग से बुना गया यह उपन्यास उन सवालों पर बहुत गंभीरता से उंगली रखता है जिन पर बोलना इस खौलते हुए सांप्रदायिक समय में लगभग गुनाह बना दिया गया है। उपन्यास याद दिलाता है कि आज नफ़रत के जो छोटे-बड़े पौधे पूरे पर्यावरण को ज़हरीला बनाते दिख रहे हैं, उनको हवा और पानी मुहैया कराने का काम किन तत्वों और ताक़तों ने किया था- यह भी कि तब भी कुछ लोग उनका प्रतिरोध कर रहे थे और अब भी कर रहे हैं।

वैसे मेरे लिए इस उपन्यास में सुखद अचरज की वजहें और भी रहीं। मैं उम्मीद कर रहा था कि उपन्यास मेरे लिए बहुत कुछ प्रत्याशित होगा- यानी एक जानी-पहचानी ज़मीन से उठाए गए उन प्रसंगों से बना होगा जिनमें कुछ का मैं क़रीबी गवाह रहा और कुछ में साझेदार भी रहा। लेकिन राकेश ने यहां लेखकीय परिपक्वता दिखाई है। 

ताज़ा ख़बरें

दरअसल, आमतौर पर लेखक यथार्थ को जस का तस रखने के मोह में कुछ इस तरह फंसे होते हैं कि वे भूल जाते हैं कि वे एक ऐसी कहानी लिख रहे हैं जिसे सार्वभौमिक भी होना है। कभी-कभी यथार्थ के इस चित्रण से वह कहानी लिख भी ली जाती है, लेकिन असली कथा लेखन अपने लक्ष्यों तक तब पहुंचता है जब उस यथार्थ को एक आकार देने के लिए उसमें कल्पना का ज़रूरी अंश मिलाया जाता है, चरित्रों और घटनाओं को ज़रूरत के हिसाब से आपस में फेंटा भी जाता है। तो कई जगह मोहल्ला भी पहचान में आता है और किरदार भी, कुछ जगहों पर तो उनके नाम भी जस के तस रख दिए गए हैं। 

1990 में रांची के शांति जुलूस में अशोक कुमार अंचल, पराग (यानी मैं), विद्याभूषण- यह सब उपन्यास में भी मौजूद हैं। इसके अलावा मोहल्ले के कई किरदार नाम सहित उपस्थित हैं। लेकिन उनको गढ़ते हुए उचित लेखकीय छूट ली गई है। इस वजह से भी यह उपन्यास मोहल्ले की कुछ ‌वास्तविक घटनाओं को जोड़ते हुए भी उनसे बिल्कुल स्वतंत्र है। 
उपन्यास के केंद्र में एक मुसलिम किरदार है जो पूरी तरह रामभक्त है। लेकिन राम के नाम पर चल रही राजनीति उसको कैसे अपने और दूसरे समुदाय में भी अकेला करती चलती है

और इसके बावजूद कैसे अपना सम्मान और अपनी हैसियत बचाए रखता है, कैसे मोहल्ला पहले उस पर शक करता है और फिर उसके साथ खड़ा रहता है- इन सब को राकेश कायस्थ ने बहुत विश्वसनीय ढंग से गूंथा है। ऊपर से वैचारिक नज़र आने वाली सांप्रदायिक राजनीति भीतर से कितनी खोखली होती है, हिंदू एकता के नारों के पीछे कैसी दरारें होती हैं, कैसे सामाजिक सच्चाइयाँ राजनीतिक मंसूबों को अंगूठा भी दिखाती हैं और कैसे समाज फिर भी बंटता-कटता चला जाता है- इसका मार्मिक चित्रण उपन्यास में है- उस दौर के मंडल और कमंडल वाले टकराव की सूक्ष्म परतें भी यहां खूब मिलती हैं।

खास बात इस उपन्यास का शिल्प भी है। राकेश मूलतः व्यंग्यकार रहा है, इसलिए इस उपन्यास में स्थितियों के चित्रण में अपनी तरह का 'विट' है। इस 'विट' की वजह से आपको कभी श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'राग दरबारी' की याद आ सकती है और कभी ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास 'बारहमासी' की। उपन्यास पढ़ते हुए ही यह ध्यान आ रहा है कि हिंदी में व्यंग्य तो बहुत लिखा जा रहा है लेकिन ऐसे व्यंग्य उपन्यास बहुत कम हैं जो अपनी मारक महीनी में समय और समाज का धागा खोल कर रख दें। 'रामभक्त रंगबाज़' यह काम करता है।

हिंदी में संप्रदायिकता को विषय बनाकर कई उपन्यास लिखे गए हैं। गीतांजलि श्री के 'हमारा शहर उस बरस' और दूधनाथ सिंह के 'आखिरी कलाम' की याद तत्काल आती है। राकेश ने भी हमारा शहर उस बरस ही लिखा है, लेकिन एक बिल्कुल अलग अंदाज़ में। 

गीतांजलि श्री के उपन्यास में जिस सांप्रदायिकता को हम अपनी रगों में बहता महसूस करते हैं, राकेश कायस्थ के उपन्यास में उसे अपने माहौल में बनता और बनाया जाता देखते हैं। यह कहानी 1990 के एक महीने की है। उसके बाद माहौल और ख़राब हुआ है- यह बात लेखक से अलक्षित नहीं रह जाती। उपन्यास में कई मार्मिक प्रसंग हैं, कई अर्थपूर्ण वाक्य भी। उपन्यास में नायक का बेटा अब देश छोड़ने को तैयार है। वह अपने ब्लॉग में लिखता है, 'मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का मंदिर दो ढांचों को गिरा कर बनाया जा रहा है। पहला ढांचा अयोध्या में था और दूसरा दिल्ली में। पहला ढांचा मैंने देखा नहीं, उससे मेरा कोई भावनात्मक लगाव नहीं है। लेकिन 'दूसरे ढांचे' पर मेरा वजूद टिका था। वह मेरी हिफ़ाज़त की गारंटी था। वही जब धराशायी हो रहा है तो मुझ जैसों के लिए क्या बचा?'

ख़ास ख़बरें

यह एक मार्मिक सवाल है- एक व्यक्ति का नहीं, पूरे मुल्क का। हालांकि इस सवाल के कुछ छोटे-छोटे जवाब उपन्यास में मिलते हैं- पूजा और आभा जैसे उन किरदारों की मार्फ़त, जो मजहब और राजनीति के पार चमकने वाली मनुष्यता को न सिर्फ़ पहचान पाती हैं बल्कि उसे बचाए रखने का हर जतन करती हैं।

'प्रजातंत्र के पकौड़े' के बाद यह राकेश कायस्थ का दूसरा उपन्यास है- बताता हुआ कि उसके लेखन में लगातार गहराई आ रही है। बहुत दिलचस्प और पठनीय भाषा इस उपन्यास को बिल्कुल प्रवाहमान बनाए रखती है। मेरे लिए अपने विगत के कुछ पृष्ठों को पलटने के अतिरिक्त आकर्षण के अलावा इस उपन्यास में काफी कुछ है जिसके लिए इसे पढ़ा जाना चाहिए।

(प्रियदर्शन की फ़ेसबुक वाल से)

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
प्रियदर्शन
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

साहित्य से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें