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जोश मलीहाबादी आख़िर क्यों पाकिस्तान चले गये?

जोश मलीहाबादी का 5 दिसम्बर को जन्मदिन था।

उर्दू अदब में जोश मलीहाबादी वह आला नाम है, जो अपने इंक़लाबी कलाम से शायर-ए-इंक़लाब कहलाए। जोश का सिर्फ़ यह एक अकेला शे’र, “काम है मेरा तगय्युर (कल्पना), नाम है मेरा शबाब (जवानी)  मेरा नाम ‘इंकलाबो, इंकलाबो, इंकिलाब’’ ही उनके तआरुफ और अज्मत को बतलाने के लिए काफ़ी है। वरना, उनके अदबी खजाने में ऐसे-ऐसे क़ीमती हीरे-मोती हैं, जिनकी चमक कभी कम नहीं होगी।

उत्तर प्रदेश में लखनऊ के नज़दीक मलीहाबाद में 5 दिसम्बर, 1898 में पैदा हुए शब्बीर हसन खां, बचपन से ही शायरी के जानिब अपनी बेपनाह मुहब्बत के चलते, आगे चलकर जोश मलीहाबादी कहलाए। शायरी उनके खून में थी। उनके अब्बा, दादा सभी को शेर-ओ-शायरी से लगाव था। घर के अदबी माहौल का ही असर था कि वे भी नौ साल की उम्र से ही शायरी कहने लगे थे और महज तेईस साल की छोटी उम्र में उनकी गजलों का पहला मजमुआ ‘रूहे-अदब’ शाया हो गया था। 

जोश मलीहाबादी की जिंदगानी का शुरुआती दौर, मुल्क की गुलामी का दौर था। जाहिर है कि इस दौर के असरात उनकी शायरी पर भी पड़े। हुब्बुलवतन (देशभक्ति) और बगावत उनके मिजाज का हिस्सा बन गई। उनकी एक नहीं, ऐसी कई गजलें-नज्में हैं, जो वतनपरस्ती के रंग में रंगी हुई हैं। ‘मातमे-आजादी’, ‘निजामे लौ’, ‘इंसानियत का कोरस’, ‘जवाले जहां बानी’ के नाम अव्वल नम्बर पर लिए जा सकते हैं।

 ‘‘जूतियां तक छीन ले इंसान की जो सामराज

क्या उसे यह हक पहुंचता है कि रक्खे सर पै ताज।’’ 

ख़ास ख़बरें

इंकलाब और बगावत में डूबी हुई जोश की ये गजलें-नज्में, जंग-ए-आजादी के दौरान नौजवानों के दिलों में गहरा असर डालती थीं। वे आंदोलित हो उठते थे। यही वजह है कि जोश मलीहाबादी को अपनी इंकलाबी गजलों-नज्मों के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा। लेकिन उन्होंने अपना मिजाज और रहगुजर नहीं बदली। 

दूसरी आलमी जंग के दौरान जोश मलीहाबादी ने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी के फरजंदों के नाम’, ‘वफादाराने-अजली का पयाम शहंशाहे-हिंदोस्तां के नाम’ और ‘शिकस्ते-जिंदां का ख्वाब’ जैसी साम्राज्यवाद  विरोधी नज्में लिखीं। 

“क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें

उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे

इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें

संभलो कि वो ज़िंदाँ गूँज उठा झपटो कि वो क़ैदी छूट गए

उट्ठो कि वो बैठीं दीवारें दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें।’’ 

जोश मलीहाबादी को लफ्जों के इस्तेमाल पर महारत हासिल थी। अपनी शायरी में जिस तरह से उन्होंने उपमाओं और अलंकारों का शानदार इस्तेमाल किया है, उर्दू अदब में ऐसी कोई दूसरी मिसाल ढूंढे से नहीं मिलती।

‘‘सरशार हूँ सरशार है दुनिया मिरे आगे

कौनैन है इक लर्ज़िश-ए-सहबा मिरे आगे

.... ’जोश’ उठती है दुश्मन की नज़र जब मिरी जानिब

खुलता है मोहब्बत का दरीचा मिरे आगे।’’ 

अपनी शानदार गजलों-नज्मों-रुबाइयों से जोश मलीहाबादी देखते-देखते पूरे मुल्क में मकबूल हो गए। उर्दू अदब में मकबूलियत के लिहाज से वे इकबाल और जिगर मुरादाबादी की टक्कर के शायर हैं। यही नहीं, तरक्की पसंद तहरीक के वे अहम शायर थे। उन्होंने उर्दू में तरक्कीपसंद शायरी की दागबेल डाली। यही वजह है कि तरक्की पसंद तहरीक में जोश मलीहाबादी की हैसियत एक रहनुमा की है। उनके कलाम में सियासी चेतना साफ़ दिखलाई देती है और यह सियासी चेतना मुल्क की आज़ादी के लिए इंकलाब का आहृन करती है। सामंतवाद, सरमायेदारी और साम्राज्यवाद का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। पूंजीवाद से समाज में जो आर्थिक विषमता पैदा होती है, वह जोश ने अपने ही मुल्क में देखी थी। अंग्रेज हुकूमत में किसानों, मेहनतकशों को अपनी मेहनत की असल क़ीमत नहीं मिलती थी। वहीं सरमायेदार और अमीर होते जा रहे थे।

‘‘इन पाप के महलों को गिरा दूंगा मैं एक दिन

इन नाच के रसियों को नचा दूंगा मैं एक दिन

मिट जाएंगे इंसान की सूरत के ये हैवान

भूचाल हूं भूचाल हूं तूफान हूं तूफान।’’

उर्दू अदब के बड़े आलोचक एहतेशाम हुसैन, अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में जोश मलीहाबादी की शायरी का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं,

“जोश को प्राकृतिक, शृंगार-पूर्ण और राजनीतिक कविताएं लिखने पर समान रूप में अधिकार प्राप्त है। भारत के राजनीतिक जीवन में कदाचित् ही कोई ऐसी घटना हुई होगी, जिस पर उन्होंने कविता न लिखी हो। वह राष्ट्रीयता, हिंदू-मुसलिम एकता, देश-प्रेम, जनतंत्र, शांति और विचार स्वतंत्रता के उपासक हैं और इन विचारों को उन्होंने अपनी सहस्त्रों कविताओं में बड़ी रोचक और मनोरंजक शैलियों में प्रस्तुत किया है।’’ 

इस इंकलाबी शायर की अपनी जिंदगानी में पन्द्रह से ज़्यादा किताबें प्रकाशित हुईं। उनकी कुछ अहम किताबें हैं, ‘नकशोनिगार’, ‘अर्शोफर्श’, ‘शोला-ओ-शबनम’, ‘फिक्रो-निशात’, ‘हर्फो-हिकायत’, ‘रामिशो-रंग’, ‘सुंबुलो-सलासिल’, ‘सरोदो-खरोश’ और ‘सुमूमोसबा’ आदि।

जोश मलीहाबादी ने मुल्क की आजादी से पहले ‘कलीम’ और आजादी के बाद ‘आजकल’ मैगजीन का संपादन किया। फिल्मों के लिए कुछ गाने लिखे, तो एक शब्दकोश भी तैयार किया। लेकिन उनकी मुख्य पहचान एक शायर की है।

जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही जानदार-जोरदार उनकी जिंदगी थी। जोश साहब की जिंदगी में गर हमें दाखिल होना हो, तो सबसे बेहतर तरीका यह होगा कि हम उन्हीं के मार्फत उसे देखें-सुनें-जानें। क्योंकि जिस दिलचस्प अंदाज़ में उन्होंने ‘यादों की बरात’ किताब में अपनी कहानी बयां की है, उस तरह का कहन बहुत कम देखने-सुनने को मिलता है। बुनियादी तौर पर उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन साल 1970 में आया था। तब से इसके कई एडिशन आ चुके हैं, लेकिन पाठकों की इसके जानिब मुहब्बत और बेताबी कम नहीं हुई है। ‘यादों की बरात’ की मकबूलियत के मद्देनजर, इस किताब के कई जबानों में तजुर्मे हुए और हर जबान में इसे पसंद किया गया। बहरहाल, बात ‘यादों की बरात’ की। 

किताब में ईमानदारी और साफगोई

जोश मलीहाबादी ने यह किताब अपनी जिंदगी के आख़िरी वक़्त में लिखी थी। आज हम इस किताब के गद्य पर फिदा हैं, लेकिन शायर-ए-इंकलाब के लिए यह काम आसान नहीं था। खुद किताब में उन्होंने यह बात तस्लीम की है, “अपने हालाते-जिंदगी कलमबंद करने के सिलसिले में उन्हें छह बरस लगे और चौथे मसौदे में जाकर वे इसे मुकम्मल कर पाए।’’

हालाँकि, चौथे मसौदे से भी वे पूरी तरह से मुतमईन नहीं थे। लेकिन जब किताब आई, तो उसने हंगामा कर दिया। अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफगोई से शायद ही किसी ने इससे पहले लिखा हो। अपनी जिंदगी के बारे में वे पाठकों से कुछ नहीं छिपाते। यहाँ तक कि अपने इश्क भी, जिसका उन्होंने अपनी किताब में तफ्सील से जिक्र किया है। अलबत्ता जिनके इश्क में वे गिरफ्तार हुए, उनके नाम ज़रूर उन्होंने कोड वर्ड में दिए हुए हैं। मसलन एस. एच., एन. जे., एम. बेगम, आर. कुमारी।

पाँच सौ दस पेज की यह किताब पाँच हिस्सों में बंटी हुई है। पहले हिस्से में जोश की जिंदगी के अहम वाकए शामिल हैं, तो दूसरे हिस्से में वे अपने खानदान के बारे में पाठकों को बतलाते हैं। किताब के सबसे दिलचस्प हिस्से वे हैं, जब जोश अपने दोस्त, अपने दौर की अजीब हस्तियां और अपनी इश्कबाजियों का खुलासा करते हैं। जिन दोस्तों मसलन अबरार हसन खां ‘असर’ मलीहाबादी, मानी जायसी, ‘फानी’ बदायूंनी, आगा शायर कजलबाश, वस्ल बिलगिरामी, कुंवर महेंन्द्र सिंह ‘बेदी’, पं. जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, सरदार दीवान सिंह ‘मफ्तूं’, ‘फिराक’ गोरखपुरी, ‘मजाज’ वगैरह का उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया है, वे खुद सभी मामूली हस्तियां नहीं हैं, लेकिन जिस अंदाज में जोश उन्हें याद करते हैं, वे कुछ और खास हो जाते हैं। उनकी शख्सियत और भी ज्यादा निखर जाती है। उन शख्सियत को जानने-समझने के लिए दिल और भी तड़प उठता है।
josh malihabadi birth anniversary - Satya Hindi

किताब में सरोजनी नायडू का तआरुफ वे कुछ इस तरह से करते हैं,

“शायरी के खुमार में मस्त, शायरों की हमदर्द, आजादी की दीवानी, लहजे में मुहब्बत की शहनाई, बातों में अफसोस, मैदाने जंग में झांसी की रानी, अमन में आंख की ठंडक, आवाज में बला का जादू, गुफ्तगू में मौसिकी, जैसे-मोतियों की बारिश, गोकुल के वन की मीठी बांसुरी और बुलबुले-हिंदुस्तान, अगर यह दौर मर्दों में जवाहरलाल और औरतों में सरोजिनी की-सी हस्तियां न पैदा करता, तो पूरा हिंदुस्तान बिना आंख का होकर रह जाता।’’ (पेज नम्बर-367)

वह इस कारण पाकिस्तानी हो गए

जोश मलीहाबादी पाकिस्तान क्यों गए? अक्सर यह सवाल पूछा जाता है। सिर्फ इस एक बिना पर कुछ अहमक और जाहिल लोग उनकी वतनपरस्ती पर सवाल उठाने से भी बाज नहीं आते। वे पाकिस्तान क्यों गए?, किताब के कुछ अध्यायों ‘मुबारकबाद! कांटों का जंगल फिर’, ‘जाना, शाहजादा गुलफाम का, चौथी तरफ और घिर जाना उसका आसेबों के घेरे में’ में जोश मलीहाबादी ने इस सवाल का तफ्सील से जवाब दिया है। उनके करीबी दोस्त सैयद अबू तालिब साहब नकवी चाहते थे कि वे हिंदुस्तान छोड़कर पाकिस्तान आ जाएँ। जब भी जोश मुशायरा पढ़ने पाकिस्तान जाते, वे उनसे इस बात का इसरार करते। आखिरकार, उन्होंने जोश मलीहाबादी के दिल में यह बात बैठा ही दी कि हिंदुस्तान में उनके बच्चों और उर्दू जबान का कोई मुस्तकबिल नहीं है। अपनी इस उलझन को लेकर वे मौलाना अबुल कलाम आजाद के पास पहुंचे और उनसे इस संबंध में राय मांगी। तो उनका जवाब था,

“नकवी ने यह सही कहा है कि नेहरू के बाद आपका यहां कोई पूछने वाला नहीं रहेगा। आप तो आप, खुद मुझे कोई नहीं पूछेगा।’’ (पेज-196) 

फिर भी उन्होंने उनसे पंडित नेहरू से मिलकर, अपना आखिरी फैसला लेने की बात की। नेहरू ने जब जोश की पूरी बात सुनी, तो वे बेहद गमगीन हो गए और उन्होंने उनसे इस मसले पर सोचने के लिए दो दिन की मोहलत मांगी। दो दिन के बाद जब जोश उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने कहा,

“जोश साहब, मैंने आपके मामले का एक ऐसा अच्छा हल निकाल लिया है, जिसे आप भी पसंद करेंगे। क्यों साहब, यही बात है न कि आप अपने बच्चों की माली हालात व तहजीबी भविष्य को संवारने और उर्दू जबान की खिदमत करने के वास्ते पाकिस्तान जाना चाहते हैं ?’’ मैंने कहा, ‘‘जी हां, इसके सिवा और कोई बात नहीं हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘तो फिर आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें और हर साल पूरे चार महीने आप पाकिस्तान में ठहर कर उर्दू की खिदमत कर आया करें। सरकारे-हिंद आपको पूरी तनख्वाह पर हर साल चार महीने की रुखसत दे दिया करेगी।’’ (पेज-196) 

नेहरू का यह बड़ा दिल था, जो अपने दोस्त और मुल्क के महबूब शायर को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे। लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों और वहां उनके चाहने वालों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई और उन्होंने जोश से एक मुल्क चुनने को कहा। और इस तरह से साल 1955 में जोश मलीहाबादी मजबूरी में पाकिस्तानी हो गए। जोश मलीहाबादी पाकिस्तान ज़रूर चले गए, मगर इस बात का पछतावा उन्हें ताउम्र रहा। 

जिस सुनहरे मुस्तकबिल के वास्ते मलीहाबादी ने हिंदुस्तान छोड़ा था, वह ख्वाब चंद दिनों में ही टूट गया। उन्होंने पाकिस्तान में जिस पर भी एतबार किया, उससे उन्हें धोखा मिला। और उर्दू की जो पाकिस्तान में हालत है, वह भी सबको मालूम है।

पाकिस्तान जाने का फैसला चूंकि खुद जोश मलीहाबादी का था, लिहाजा वे खामोश रहे। वहां घुट-घुटके जिये, मगर शिकवा किसी से न किया।

पाकिस्तान में रहकर वे हिंदुस्तान की मुहब्बत में डूबे रहते थे। वे चाहकर भी अपने पैदाइशी मुल्क को कभी नहीं भुला पाए। पाकिस्तान में उनकी बाकी जिंदगी नाउम्मीदी और गुमनामी में बीती। ‘मेरे दौर की चंद अजीब हस्तियां’ किताब के इस हिस्से में जोश मलीहाबादी ने उन लोगों पर अपनी कलम चलाई है, जो अपनी अजीबो-गरीब हरकतों और ना भुलाई जाने वाली बातों से उन्हें ताउम्र याद रहे और जब वे कलम लेकर बैठे, तो उनको पूरी शिद्दत और मजेदार ढंग से याद किया। जोश ने बड़े ही किस्सागोई से इन हस्तियों का खाका खींचा है कि तस्वीरें आंखों के सामने तैरने लगती हैं। जैसे अजीबो गरीब किरदार, वैसा ही उनका ख़ाका। कई किरदार तो ऐसे हैं कि पढ़ने के बाद भी यक़ीन नहीं होता कि हाड़-मांस के ऐसे भी इंसान थे, जो अपनी जिद और अना के लिए क्या-क्या हरकतें नहीं करते थे।

‘यादों की बरात’ की ताकत इसकी जबान है, जो कहीं-कहीं इतनी शायराना हो जाती है कि शायरी और नज्म का ही मजा देती है। मिसाल के तौर पर सर्दी के मौसम की अक्कासी जोश कुछ इस तरह से करते हैं,

‘‘आया मेरा कंवार, जाड़े का द्वार। अहा! जाड़ा-चंपई, शरबती, गुलाबी जाड़ा-कुंदन-सी दमकती अंगीठियों का गुलजार, लचके-पट्टे की रजाइयों में लिपटा हुआ दिलदार, दिल का सुरूर, आंखों का नूर, धुंधलके का राग, ढलती शाम का सुहाग, जुलेखा का ख्वाब, युसुफ का शबाब, मुस्लिम का कुरान, हिंदू की गीता और सुबह को सोने का जाल, रात को चांदनी का थाल।’’ (पेज नम्बर-49) 

यह तो सिर्फ एक छोटी सी बानगी भर है, वरना पूरी किताब इस तरह के लाजवाब जुमलों से भरी पड़ी है। किताब पढ़, कभी दिल मस्ती से झूम उठता है, तो कभी लबों पर आहिस्ता से मुस्कान आ जाती है। ‘यादों की बरात’ को पढ़ते हुए, यह एहसास होता है कि जैसे हम भी जोश मलीहाबादी के साथ इस बरात में शरीक हो गए हों। हिंदोस्तां के उस गुजरे दौर, जब मुल्क की आजादी की जद्दोजहद अपने चरम पर थी, तमाम हिंदुस्तानी कद्रें जब अपने पूरे शबाब पर थीं, इन सब बातों को अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए, इस किताब को पढ़ने से उम्दा कुछ नहीं हो सकता। 22 फ़रवरी, 1982 को यह जोशीला इंकलाबी शायर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गया।
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