संविधान निर्माताओं ने भले ही अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बहुत सारे प्रावधान किए हों, लेकिन जब हम तिहत्तर सालों का जायज़ा लेते हैं तो पाते हैं कि हमारी व्यवस्था हर मोर्चे पर पूरी तरह से नाकाम साबित हुई है। सांप्रदायिक पार्टियों को तो छोड़ दीजिए, वे राजनीतिक दल और सरकारें भी ख़ुद को साबित नहीं कर सकी हैं, जो धर्मनिरपेक्षता को अपना आदर्श मानती रही हैं। हर नाज़ुक मौक़ों पर वे फिसली हैं और अक्सर बहुसंख्यक समुदाय की अवैधानिक इच्छाओं एवं दबावों के समक्ष उन्होंने घुटने टेक दिए हैं।
आज के भारत को समझने के लिये ‘हाशिमपुरा हत्याकांड’ को पढ़ना ज़रूरी?
- साहित्य
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- 24 Jan, 2021

वास्तव में ये क़िताब भारतीय राष्ट्र-राज्य के सांप्रदायिक चरित्र का जीता-जागता दस्तावेज़ है। हालाँकि ये दस्तावेज़ भी तैंतीस साल पहले की घटना पर आधारित है और उसके बाद से परिस्थितियाँ काफी बिगड़ चुकी हैं और शायद इसीलिए बिगड़ी हैं क्योंकि हाशिमपुरा को चुनौती के रूप में लेते हुए उससे निपटा नहीं गया, उसके समक्ष समर्पण कर दिया गया।
आज़ादी के बाद से ही सांप्रदायिक दंगों का एक सिलसिला अबाध रूप से चला आ रहा है। इन दंगों में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का बड़े पैमाने पर मारा जाना और फिर उन्हें इंसाफ़ न मिलना भी जैसे उसका एक तयशुदा पक्ष है। ख़ुद को दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश मानने वाले देश का यह भयावह स्याह सच है, लेकिन वह इसको लेकर कतई शर्मसार नहीं है, शायद ये उससे भी बड़ी और कड़वी सचाई है।