संविधान निर्माताओं ने भले ही अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बहुत सारे प्रावधान किए हों, लेकिन जब हम तिहत्तर सालों का जायज़ा लेते हैं तो पाते हैं कि हमारी व्यवस्था हर मोर्चे पर पूरी तरह से नाकाम साबित हुई है। सांप्रदायिक पार्टियों को तो छोड़ दीजिए, वे राजनीतिक दल और सरकारें भी ख़ुद को साबित नहीं कर सकी हैं, जो धर्मनिरपेक्षता को अपना आदर्श मानती रही हैं। हर नाज़ुक मौक़ों पर वे फिसली हैं और अक्सर बहुसंख्यक समुदाय की अवैधानिक इच्छाओं एवं दबावों के समक्ष उन्होंने घुटने टेक दिए हैं।