गणतंत्र दिवस पर आयोजित ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा से एक वर्ग बेहद खुश नज़र आ रहा है। ऐसा लगता है जैसे उसे मन माँगी मुराद मिल गई हो या जैसे उन्हें बस ऐसे मौक़े का ही इंतज़ार रहा हो। उनके इस उत्साह को टीवी की ख़बरों, मोदी-भक्त एंकरों द्वारा संचालित होने वाली बहसों और सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियों में देखा जा सकता है। वे आंदोलनकारियों पर हिंसा का दोष मढ़ने और उन्हें दंडित करने की बात कर रहे हैं। वे यह भी साबित करने में जुटे हुए हैं कि आंदोलन भटक गया है और अब उसे वापस ले लेना चाहिए।
हिंसा के बहाने किसान आंदोलन को कमज़ोर करने में जुटे विरोधी
- विचार
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- 28 Jan, 2021

परेड में हुई झड़पों का समर्थन कोई नहीं कर रहा, न किया जा सकता है। किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोग भी उसे जायज़ नहीं ठहरा रहे। लेकिन उसके आधार पर पूरे आंदोलन को ही भटकाव का शिकार बताया जा रहा है और दलील दी जा रही है कि अब इसे वापस ले लिया जाना चाहिए। क्या इसे ठीक कहा जा सकता है?
हिंसा पर क्यों खुश हैं ये लोग?
वे इस तथ्य को पूरी तरह नज़रंदाज़ कर देना चाहते हैं कि परेड के दौरान जो कुछ हुआ उसके लिए असल में कौन ज़िम्मेदार है। उन्हें दीप सिद्धू या लाक्खा सिंह नहीं दिख रहे, दिल्ली पुलिस की उकसाने वाली कार्रवाइयाँ नहीं दिख रहीं। सरकार द्वारा किसी साज़िश की संभावना भी वे नहीं देखना चाहते। उन्होंने तो बिना जाँच-पड़ताल के ही अपना फ़ैसला सुना दिया है और उनका फ़ैसला किसान आंदोलन के ख़िलाफ़ है।