गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को उसके अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टूम ऑफ़ सैंड’ के लिए मिले अंतरराष्ट्रीय बुकर सम्मान के आम तौर पर स्वागत के अलावा जो चित्र-विचित्र क़िस्म की प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं, उनमें तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात यह कही जा रही है कि इतनी महत्वपूर्ण लेखिका को हिंदी साहित्य और आलोचकों ने उपेक्षित रखा। यह राय रखने वाले लोग दरअसल समकालीन हिंदी साहित्य से क़तई परिचित नहीं हैं। वरना उन्हें मालूम होता कि हिंदी में नब्बे के दशक में उभरे जिन कथाकारों की बहुत सम्मान के साथ चर्चा होती रही है, उनमें गीतांजलि श्री हैं। उनकी पहली तीन कहानियाँ हिंदी की सबसे चर्चित साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में छपी।
उनकी पहली कहानी ‘बेलपत्र’ का दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुआ। उनके पहले उपन्यास ‘माई’ को भी ख़ासी प्रशंसा मिली और उसके अंग्रेज़ी अनुवाद को क्रॉसवर्ड पुरस्कार की अंतिम सूची में जगह मिली। इन पंक्तियों के लेखक ने उनकी चार किताबों ‘हमारा शहर उस बरस, ‘वैराग्य’, ‘तिरोहित’, और ‘वहां हाथी रहते थे’ पर चार अलग-अलग टिप्पणियां हिंदी की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कीं। उनको सम्मान भी मिलते रहे। पिछले ही महीने, उन्हें एक लाख रुपये के वनमाली कथा सम्मान से भोपाल में सम्मानित किया गया।
तो गीतांजलि श्री हिंदी की दुनिया के लिए न कोई अनजाना नाम हैं और न ही उपेक्षित लेखक। चार साल पहले प्रकाशित उपन्यास ‘रेत समाधि’ पर भी काफ़ी कुछ लिखा गया और लिखने वालों में मृदुला गर्ग, अलका सरावगी, वीरेंद्र यादव और रवींद्र त्रिपाठी जैसे महत्वपूर्ण लोग शामिल रहे।
दूसरी दिलचस्प और लगभग मूर्खतापूर्ण बात यह कही जा रही है कि बुकर हिंदी के उपन्यास को नहीं, उसके अंग्रेज़ी अनुवाद को मिला है। यह ऐसा कुतर्क है जिसका बस मनोरंजन के लिए जवाब दिया जा सकता है। इस तर्क से तो रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ को भी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला- वह उसके अंग्रेज़ी अनुवाद- जिसका नाम ‘सांग ऑफ़रिंग्स’ था- को मिला। जबकि बुकर पुरस्कार समिति को गीतांजलि श्री को पुरस्कार दिए जाने में कोई संदेह नहीं है- पुरस्कार लेखक-अनुवादक में बराबर बंटा है- पुरस्कार समिति की जो अनुशंसा है, उसमें गीतांजलि श्री के लेखन की तारीफ़ है और बुकर के मंच से लेखकीय वक्तव्य भी गीतांजलि श्री का है।
तीसरी बात यह कही जा रही है कि गीतांजलि श्री का उपन्यास बिल्कुल पठनीय नहीं है। कुछ उत्साही लेखक-पाठक उनकी किताब के एकाध पृष्ठों की तस्वीर डाल कर यह साबित भी करने में लगे हुए हैं कि वे बिना कॉमा, फुल स्टॉप के लिखे जा रही हैं।
ऐसे लोगों को यह पता नहीं है कि लेखन में इस तरह के प्रयोग बहुत आम रहे हैं। जेम्स ज्वायस से लेकर सलमान रुश्दी तक ने ऐसे पन्ने लिखे हैं जिनमें कॉमा-फुल स्टॉप नहीं है। कुछ दूसरे लोग बहुत आक्रामकता के साथ आलोचकों पर यह छींटाकशी कर रहे हैं कि अब इस सम्मान के बाद वे गीतांजलि श्री के लेखन को महान साबित करने में जुट जाएंगे।
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जहां तक पठनीयता का सवाल है- यह दलील भी अब पुरानी हो चुकी कि न पठनीयता श्रेष्ठता की कोई शर्त है और न ही पठनीयता का कोई एक प्रकार होता है। पठनीयता दरअसल कोई ठोस या वस्तुनिष्ठ अनुभव नहीं, उसका एक व्यक्तिनिष्ठ रूप होता है। जो किताब दूसरों को पठनीय लगती है वह हमें बकवास लग सकती है और जिसे हम पठनीय मान कर रीझते हैं, उसे बहुत सारे लोग बिल्कुल अपठनीय बता सकते हैं।
वे समझ नहीं पाते कि ये महान क्यों हैं। यश चोपड़ा और प्रकाश मेहरा की फिल्में देखने वालों को सत्यजित रे का सिनेमा बिल्कुल बेकार लगता है और दुनिया भर का महान सिनेमा अपने कारोबारी बॉलीवुडी-हॉलीवुडी संस्करणों के आगे पिट जाता है।
तो शास्त्रीयता की अपनी शर्तें होती हैं जिनमें पठनीयता अनिवार्य नहीं होती। यह लिखना कहीं से लोक-साहित्य या संस्कृति को खारिज करना नहीं है- आख़िर शास्त्रीय लोक से ही आकार पाता है, गढ़ा जाता है। लेकिन मनोरंजक या दिलचस्प साहित्य और संगीत की कल्पना और कामना करने वाले न लोक का रस ले पाते हैं न शास्त्रीयता की संवेदना से जुड़ पाते हैं।
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