वे कौन लोग हैं जो ज्ञानवापी से लेकर क़ुतुब मीनार के परिसर तक में पूजा करने की इच्छा के मारे हुए हैं? किन्हें अचानक 800 साल पुरानी इमारतें पुकार रही हैं कि आओ और अपने ईश्वर को यहां खोजो। क्या यह वाक़ई किसी ईश्वर की तलाश है, किसी धर्म की पवित्रता का ख़याल है जो उन्हें मसजिदों से कचहरियों तक दौड़ा रहा है?
इस सवाल का जवाब कुछ असुविधाजनक है। इस देश में हर किसी को अपनी आस्था के मुताबिक़ पूजा-अर्चना करने का अधिकार है- इस अधिकार में अपनी आस्था और अपने ईश्वर चुनने और उन्हें बदलने का अधिकार भी शामिल है।
लेकिन जो इन पुरानी इमारतों पर नई दावेदारी के लिए निकले हैं, उनके दिल में पूजा नहीं, प्रतिशोध है, हिंदुत्व की शक्ति की तथाकथित प्रतिष्ठा का भाव है। वे नए औरंगज़ेब हैं जो पुराने औरंगज़ेब से बदला लेने चले हैं। औरंगज़ेब ने अपने बाप को जेल में डाला, अपने भाई का क़त्ल किया, बादशाहत हासिल की और यह सब करते हुए कई मंदिर भी तोड़े। उसे भी शायद यह इसलाम की प्रतिष्ठा के लिए ज़रूरी लगा होगा। लेकिन इसलाम हिंदुस्तान में औरंगज़ेब की तलवार से नहीं, उन सूफ़ी कव्वालियों से परवान चढ़ा जो अमीर-ग़रीब सबको यकसाँ छूती-जोड़ती रहीं, वह उन मज़ारों और दरगाहों की मार्फ़त लोगों के बीच पहुँचा जहाँ सभी आस्थाओं के लोग एक सी आस्था के साथ पहुंचते रहे, वह उन शायरों की बदौलत बुलंद हुआ जिन्होंने सबसे ज़्यादा मज़ाक़ खुदा के नाम पर बरती जाने वाली मज़हबी संकीर्णता का उड़ाया।
वाक़ई यह अफ़सोस की बात है कि दिल्ली की मशहूर सड़कें उसके बादशाहों के नाम पर हैं, उन महान और हरदिल अज़ीज़ शायरों के नाम पर नहीं, जिन्होंने अवाम के दिलों पर हुकूमत की और कुछ इस शान से की कि आज भी उनकी तूती बोलती है। कितना ही अच्छा होता अगर दिल्ली में ग़ालिब, मीर, ज़ौक़, दाग़ के नाम पर भी रास्ते होते और हमें रास्ता दिखा रहे होते। गोरख पांडेय का एक शेर है- 'ग़ालिबो-मीर की दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए, उनका शहर लोहे का है, फूलों से कटता जाए है।'
फौलाद का लगने वाला मगर फूलों से कट जाने वाला ऐसा शहर शायरों की बस्तियों से ही बस सकता है।
मूल विषय पर लौटें। औरंगज़ेब ने मंदिरों को तोड़ कर मसजिदें तामीर कीं। क्या अब आप मसजिदों को तोड़ कर फिर मंदिरों में बदलेंगे? इसके लिए आपको काफ़ी कुछ बदलना होगा। औरंगज़ेब का दौर लोकतंत्र का दौर नहीं था। उसने तो राजतंत्र की मर्यादा का भी अतिक्रमण किया। बताते हैं कि वह बहुत धार्मिक था। बहुत सादगी से रहता था, फ़कीरों की तरह ओढ़ता-पहनता-खाता था, यह भी बताते हैं कि कई मंदिरों में भी सालाना इंतज़ाम के लिए वह दान दिया करता था। लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी औरंगज़ेब हमारी स्मृति में एक ऐसे बादशाह की तरह ही दर्ज है जिसने हिंदू अवाम पर ज़ुल्म ढाए, जिसने मंदिर तोड़े, जिसने अकबर के साथ बननी शुरू हुई साझा तहज़ीब की गंगा-जमना को सबसे ज़्यादा सुखाने की कोशिश की।
आप किस तरह याद रखे जाएंगे? आपमें तो वह फ़कीरों वाली सादगी भी नहीं। फिर आप मसजिदों को तोड़ने निकलेंगे तो सबसे पहले उस लोकतंत्र का मंदिर तोड़ना होगा जो आज़ादी की लड़ाई की लंबी तपस्या के बाद बनाया गया है। इसी लोकतंत्र के भीतर यह समझ थी कि अतीत में जो हुआ सो हुआ, लेकिन भविष्य में ऐसा कुछ न हो जिससे भारतीयता का ताना-बाना कमज़ोर पड़े। लेकिन इन दिनों लगातार इस ताने-बाने पर चोट की जा रही है।
लोकतंत्र को अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी नहीं, बल्कि बहुसंख्यकों के वर्चस्व के औज़ार के तौर पर बदला जा रहा है।
संसद से लेकर संविधान और अदालत तक पर चोट की जा रही है। 15 अगस्त 1947 के बाद सभी धर्मस्थलों की धार्मिक हैसियत जस के तस बनाए रखने वाला पूजास्थल क़ानून 1991 अब सवालों से घिरा है।
यह सवाल भी इन्हीं दिनों लोकप्रिय हुआ है कि 15 अगस्त 1947 की तारीख़ से ही हम भारत की व्याख्या क्यों करें? आख़िर भारत सदियों पुराना देश है जिसकी एक अविच्छिन्न परंपरा रही है, उस पूरी परंपरा को भूल कर भारत के इतिहास को 1947 तक लाकर सीमित कर देना इतिहास के साथ भी अन्याय है और भारत के साथ भी।
एक हद तक यह वैध तर्क है। भारत 15 अगस्त 1947 से पहले भी था। लेकिन उसके पहले वह या तो उपनिवेश था या फिर मुगलों के अवसान के बाद छोटी-छोटी रियासतों में बंटा एक बड़ा भौगोलिक युग्म था भारतीयता जिसकी सार्वभौमिक पहचान थी। 15 अगस्त 1947 की तारीख़ इस राजनीतिक इतिहास को बदलती है, वह लोगों को एक आज़ाद मुल्क का नागरिक होने की गारंटी देती है, वह छोटी-छोटी इकाइयों में बंटे भारत को एक साथ जोड़कर एक विराट राजनीतिक इकाई में बदलती है और भारत भर के लोगों को ऐसी नागरिकता देती है जिसमें समानता और न्याय का यक़ीन बद्धमूल है। इस आज़ाद भारत का एक संविधान भी है जिसमें पुरानी असमानताओं को ख़ारिज करने और आगे बढ़ने की प्रतिज्ञा है।
लेकिन जो लोग आज भारत को 15 अगस्त 1947 से पहले देखना और ले जाना चाहते हैं, जो इसकी विपुल परंपराओं का हवाला देते हैं वे इन परंपराओं से अपने लिए क्या चुनते हैं? दुर्भाग्य से 'वसुधैव कुटुंबकम' जैसी कुछ सूक्तियों को दोहराने के अलावा उनका जो वास्तविक चुनाव दिखाई पड़ता है, वह धार्मिक संकीर्णता है, जातिगत भेदभाव है और बहुत आक्रामक क़िस्म का वर्चस्ववाद है। ये भारत का और हिंदुत्व का स्वभाव बदलने निकले लोग हैं। यह भारतीयता के विचार में जो सर्वश्रेष्ठ है, उसको नकारने की प्रवृत्ति है। जब ये अतीत में जाते हैं तो सीधे दो हज़ार साल पहले चले जाते हैं और उसके बाद उसके भी पीछे की किन्हीं मिथकीय कथाओं का आसरा लेते हैं।
वे उन हज़ार सालों को याद नहीं करते जिसने हिंदुस्तान की परंपरा को कई सांचों में ढाला, यहां के संगीत, नृत्य और यहां की कलाओं को कई रूप दिए। इस हिंदुस्तान को देखने वाली आँख उनके पास नहीं है।
वे तूतीए हिंद के नाम से मशहूर अमीर खुसरो जैसे संगीत-साहित्य मर्मज्ञ को नहीं देखना चाहते जिसने तबला और सितार बनाए और पहेलियां बुझाईं, वे अलाउद्दीन ख़िलजी को याद रखना चाहते हैं, क्योंकि इससे उनकी घायल स्मृतियों को दलील मिलती है। वे कबीर और जायसी को याद नहीं रखना चाहते क्योंकि उससे उनती तर्क पद्धति लड़खड़ाती है। वे बीरबल जैसे वाकपटु, तानसेन जैसे संगीतज्ञ, रहीम जैसे कवि और टोडरमल जैसे वित्त व्यवस्थापकों से भरा अकबर का दरबार नहीं देखना चाहते, उनके लिए कहानी बस महाराणा प्रताप की है जिनका एक मिथकीय संस्करण उनकी स्मृति में गढ़ा जा रहा है। इस महाराणा प्रताप के हथियारों का वज़न दो सौ किलो से ऊपर हो जाता है। वे शाहजहां की बनाई यादगार इमारतों, ताजमहल, जामा मसजिद या लाल क़िला को नहीं देखना चाहते, उनकी दिलचस्पी ताजमहल की प्रामाणिकता नष्ट करने में है। वे दारा शिकोह को भूल जाना चाहते हैं और औरंगज़ेब को याद रखते हैं। वे ग़ालिब-मीर, ज़ौक़ और दाग़, और मजाज़ और ज़ोश की बेहद समृद्ध, आधुनिक और तरक्कीपसंद शायरी याद नहीं रखना चाहते, उनके लिए मुसलमान की पहचान दाढ़ी-टोपी, नमाज़-हिजाब, बिरयानी और दंगों तक सिमटी है। वे मुगलई दौर के लज़ीज़ व्यंजनों का नाम नहीं लेते। वे उस हिंदी से परेशान होते हैं जो बीते तीन सौ साल में बनती रही और एक शीरीं और म़कबूल ज़ुबान की तरह उभरी। या शायद उन्हें इन सबकी जानकारी भी नहीं। अगर होती तो वे ग़ालिब और मीर से आंख मिलाकर शर्मिंदा होते कि हम कहां के बुतपरस्त और बुतशिकन दोनों बने हुए हैं।
लेकिन स्मृतियों का यह चुनाव बताता है कि आप अंततः क्या बनना चाहते हैं- दारा शिकोह या औरंगजेब? हमारे यहां एक जमात औरंगज़ेब होने पर तुली है- बिना यह समझे कि उसकी एक कमज़ोरी ने न इसलाम का मान बढ़ाया, न मुग़लों का और न ही अपना। हमारे ये नए औरंगज़ेब भी न राम का मान बढ़ा रहे हैं न कृष्ण का। शिव तो शायद इनकी समझ से परे ही हैं-काशी विश्वनाथ मंदिर में कई छोटी-छोटी शिव प्रतिमाओं और शिवलिंगों को हटा कर उन्होंने जो गलियारा बनाया है, उसे देखने भले दुनिया भर के सैलानी आएँ, लेकिन शिव नहीं आएंगे। वैसे शायद यह उनका मक़सद भी नहीं। उन्हें इतिहास से प्रतिशोध लेना है और वर्तमान को अपनी तरह से मोड़ना है। लेकिन इनका साथ देने वालों को समझना होगा कि कट्टरता जब बढ़ती है तो वह किसी एक मोड़ पर रुक नहीं जाती- वह लगातार अपनी ही गति से ऊर्जा हासिल करती जाती है और नए इलाक़ों में जा-जाकर नए विचारों को नष्ट करना अपना कर्तव्य समझती है। पड़ोस के पाकिस्तान सहित कई मुल्कों में हम यह होता देख चुके हैं और अब अपने यहां घटता देख रहे हैं।
(प्रियदर्शन की फ़ेसबुक वॉल से साभार)
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