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भीष्म साहनी जैसे हमारी संवेदनशीलता का इम्तिहान लेते चलते हैं!

भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' का जो पहला दृश्य है, वह रोंगटे खड़े करने वाला है। हिंदी ही नहीं, दुनिया के बड़े उपन्यासों में भी ऐसा यथार्थवादी दृश्य तत्काल याद नहीं आता। एक तंग अंधेरी कोठरी में रात भर एक सुअर को मारने में जुटा नत्थू इतना वास्तविक है कि उसे प्रतीक बनाने की इच्छा नहीं होती। लेकिन उपन्यासकार की युक्ति में हो या न हो, वह एक प्रतीक भी बन जाता है- उस ग़रीब और दलित का प्रतीक,  जो किसी सांप्रदायिक साज़िश में अपनी पूरी बेख़बरी में शामिल कर लिया जाता है।

भीष्म साहनी की जगह कोई दूसरा लेखक होता तो शायद सुअर मारने का इतने विस्तार से वर्णन करने से बचता। यह ऐसा प्रसंग है कि आप चाय पीते हुए इसे नहीं पढ़ सकते। वह बस यह उल्लेख करके भी कहानी बढ़ा सकता था कि मुराद अली के इशारे पर नत्थू का मारा हुआ सुअर मस्जिद के सामने फेंका गया और शहर में सांप्रदायिक तनाव फैल गया।

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लेकिन भीष्म साहनी ऐसा नहीं करते। यहां उनकी 'मास्टर क्राफ़्ट्समैनशिप' दिखाई पड़ती है। उनको मालूम है कि सांप्रदायिकता की जो बजबजाती कहानी वे कहने जा रहे हैं, उसका संपूर्ण प्रभाव तब उभरेगा जब यह बात समझ में आएगी कि उसके कितने अमानवीय आयाम हैं। सुअर को अपने घर में लाने के लिए नत्थू को पहले घूरा जमा करना पड़ता है, फिर सुअर आ जाता है तो उसे मारने की कोशिश करनी पड़ती है तंग कोठरी के नीम-अंधेरे में सुअर की हिलती-डुलती काया और छाया से जूझता वह बुरी तरह ज़ख़्मी हो चुका है- बिल्कुल पसीने-पसीने है। उसे नहीं मालूम था कि यह इतना मुश्किल काम है। किसी तरह एक पत्थर से वह सुअर के सिर पर प्रहार कर पाता है। उसे लगता है, कमरे का घुटन भरा माहौल वह बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। सारी रात वह सुअर से जूझता रहता है। सुबह किसी तरह वह मारा जाता है और फिर एक छकड़े वाला उसे ले जाता है।

लेकिन मैं इस दृश्य पर कुछ देर और रुकना चाहता हूं। जो नत्थू के लिए घर जैसा होता, उसे मुराद अली नाम के एक शातिर शख़्स ने सुअरबाड़े में बदल डाला। जो एक स्निग्ध चांदनी रात होती जिसमें वह अपनी युवा पत्नी के साथ  प्रेम करता, वह नत्थू के लिए एक बदहवासी भरी लथपथ रात में बदल गई। एक सीधे-सादे मेहनतकश दलित को सांप्रदायिकता ने लगभग एक अपराधी में बदल डाला। जब नत्थू को पता चलता है कि उसके हाथों मारा गया सुअर मस्जिद की सीढ़ियों पर फेंक दिया गया है तो वह अगले कई दिन अपना स्वाभाविक जीवन भूल जाता है। डर और पाप-बोध उसे किसी लायक नहीं छोड़ते।

लेकिन नत्थू फिर भी ख़ुशक़िस्मत था। वह जिस समाज में था, वह बहुत सारी आपसी नफ़रत और समुदायों के बीच बढ़ते शुबहे के बावजूद अपना विवेक कायम रखे हुए था। वहां दंगे होते थे लेकिन पूरा समाज दंगाई नहीं था। शायद इस सामाजिक पर्यावरण का भी असर था कि नत्थू एक लम्हे को मुराद अली से मिले पांच रुपए न खरचने की भी सोचता है। यह उसकी पत्नी है जो अंततः उसे उसके अपराध-बोध से उबारने की कोशिश करती है।

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लेकिन यह पुरानी कहानी है। आज के बदले हुए समाज में पश्चाताप एक घिसा-पिटा मूल्य है। नत्थू के कमरे तक सीमित सुअरबाड़ा जैसे पूरे देश में पसर गया है। नत्थू अब रात के अंधेरे में किसी गफ़लत में सुअर मारने का कारोबार नहीं करता। अब साफ़-सुथरे कपड़े पहने, अहंकार और मद से भरी भाषा बोलने वाले लोग बिल्कुल नत्थू की भूमिका में हैं। वे हर रोज़ जैसे अफवाह के सुअर का शिकार करते हैं और उसे किसी मस्जिद के आगे फेंक आते हैं। उनको मालूम है कि वे क्या कर रहे हैं और इसके लिए उन्हें किसी से क्षमा याचना करने की ज़रूरत नहीं है। नत्थू की जो घुटन से भरी उमसाई कोठरी थी, वह एक देश में बदल गई है।

क्या आज की तारीख़ में ‘तमस’ को इस तरह भी पढ़ा जा सकता है? जब भीष्म साहनी अपना यह उपन्यास लिख रहे थे तो क्या उन्होंने ऐसे किसी विकट भविष्य की कल्पना की थी?

वे क्यों सुअर मारने की घटना को इतना विस्तार देते हैं। संभव है, उनके भीतर किसी अवचेतन में यह बात रही हो कि यह भीषण दृश्य लोगों को एक स्थिति की भयावहता का एहसास कराएगा।

लेकिन ऐसा होता दीखता नहीं है। इसकी क्या वजह है? इस बात को समझने के लिए हमें ‘तमस’ के ही एक दूसरे दृश्य तक जाना होगा। सांप्रदायिक तनाव के माहौल में अखाड़ा संचालक मास्टर देवव्रत अपने किशोर शिष्य रणवीर को ‘दीक्षा’ दे रहे हैं। उन्होंने रणवीर को अतीत की गौरवशाली कहानियां सुनाई हैं। वह राणा प्रताप और शिवाजी के प्रताप से, अग्निबाण की माया से और योग शक्ति की क्षमता से अभिभूत है। लेकिन गुरु को मालूम है कि इतने भर से दीक्षा पूरी नहीं होती। अतीत की गौरवशाली कहानियां मन तो बदल सकती हैं। लेकिन वर्तमान के शत्रुओं के संहार के लिए पाशविक शक्ति चाहिए। तो वे रणवीर को हिंसा करना सिखा रहे हैं। यह किशोर एक मुर्गी नहीं मार पाता। मरती-छटपटाती मुर्गी को देखकर उसे उल्टी हो जाती है। मास्टर कहते हैं कि दीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए यह आवश्यक है। अंततः हम पाते हैं कि धीरे-धीरे वह एक जोशीले दंगाई में बदल जाता है और बिल्कुल अपने गिरोह का ‘सरदार’ बन जाता है। और यह गिरोह करता क्या है? एक सूनी गली में एक लाचार-बूढ़े इत्रफ़रोश को मार डालता है। यह इत्रफ़रोश भी कहीं और से आया है। वह अपने संभावित क़ातिल को पहचान नहीं पाता। उल्टे, उसे कहता है कि इस माहौल में डर लग रहा है तो वह उसे अगली गली तक छोड़ सकता है। लेकिन वह अगली गली नहीं आती। क्या यह बूढ़ा किसी छूटी हुई मनुष्यता का प्रतीक है जिसे रणवीर और उसके दोस्तों ने मार डाला है? भीष्म साहनी इसका जवाब नहीं देते। बल्कि अपने उपन्यास के यथार्थवादी पुट की कसावट वे ज़रा भी ढीली नहीं करते कि कोई पाठक इसके किरदारों को प्रतीकों की तरह पढ़े। लेकिन यह पाठ फिर भी अलक्षित नहीं रह जाता।

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दरअसल, यह वह अनुकूलन है जो हमारे समाज में लगातार घटित हो रहा है। इसके पीछे की राजनीतिक शक्तियों को पहचानना मुश्किल नहीं है। दरअसल, यही वे लोग थे जिन्होंने दूरदर्शन पर ‘तमस’ के प्रसारण का विरोध किया था। तब वे इतने शक्तिशाली नहीं थे कि इसे जबरन रुकवा पाते। लेकिन अब उनके हाथ में सत्ता है। उनके मास्टर देवव्रत अब जगह-जगह विश्वविद्यालयों के कुलपति के पद पर सुशोभित हैं और रणवीरों की पूरी फौज तैयार कर रहे हैं। नतीजा यह हुआ है कि हमारे पढ़े-लिखे तबकों में भी उतनी भर संवेदनशीलता या मनुष्यता नहीं बची है जितनी नत्थू में दिखती है। इस प्रक्रिया को कई स्तरों पर पहचाना जा सकता है। अब अफ़वाह इस समाज के संचालक घटक हैं। उन्हें किन्हीं कोठरियों से फैलाने की ज़रूरत नहीं होती। सोशल मीडिया ने ऐसे लाखों-करोड़ों मुराद अली और देवव्रत मास्टर जैसे लोग खड़े कर दिए हैं जिन्हें किसी नत्थू या रणवीर का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं, बस वे अपनी वॉल से ही अफ़वाहों के सुअर मारते रहते हैं और समाज खौलता रहता है। सांप्रदायिकता के मुद्दे बदल गए हैं, लक्षण वही हैं। कहीं गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग हो रही है, कहीं सिर्फ़ सामुदायिक पहचान पर किसी को निशाना बनाया जा रहा है। अब तो लग रहा है कि व्यवस्था भी इस खेल में साझीदार है। 'तमस' में दंगे हुए तो शहर के कला-प्रेमी कलेक्टर रिचर्ड ने कहा कि ये हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा है, इसमें अंग्रेज़ सरकार क्या करेगी, अपनी पत्नी से यह भी कहा कि अगर हिंदू-मुसलमान आपस में नहीं लड़ेंगे तो अंग्रेज़ी सरकार से लड़ेंगे। मगर दिल्ली में हुए दंगे और उनकी जांच को देखकर पता चल रहा है कि आज के हुक्मरान दूर नहीं खड़े हैं, बल्कि इस खेल में शामिल हैं। ख़तरनाक बात यह है कि कल तक जो हुकूमत करने की युक्ति थी, अब जैसे जीवन जीने की शैली हो गई है। 

ज़हरीली नफ़रत का एक दमघोंटू कोना हमने अपने भीतर भी बना लिया है जिससे बचने की कोशिश तक नहीं दिख रही।

यह यथार्थ हमें दिखाई क्यों नहीं पड़ता? हम इसके बावजूद इतने चैन से क्यों रह पा रहे हैं? इसके लिए फिर 'तमस' के पन्नों पर लौटें। हमने मास्टर देवव्रत के शिष्य रणवीर को देखा है जो अतीत की गौरवशाली कहानियों से इतना अभिभूत है कि वर्तमान की सच्चाई उसे दिखाई नहीं पड़ती। उपन्यास के दूसरे हिस्से में सैयदपुर गांव में हमें सिख और मुसलमान दोनों अपने गुरुद्वारे और अपनी मस्जिद में दंगों का सामान जुटा रहे हैं। सैयदपुर पर एक समान नाज़ करने वाले ये दोनों समुदाय अचानक बाहर से आ रही अफ़वाहों की वजह से एक-दूसरे को दुश्मन मान बैठे हैं। यहां भी उनको तात्कालिक नहीं, पुरानी लड़ाइयां याद आ रही हैं। दोनों पक्षों में ऐसे लोग हैं जो अमन और विवेक की बात कर रहे हैं, एक-दूसरे से संवाद करने को कह रहे हैं, लेकिन सुनने और बात करने का सब्र किसी के पास नहीं। एक नकली शौर्य से अभिभूत दोनों पक्ष अंततः लड़ते हैं, एक-दूसरे को चोट पहुंचाते हैं और फिर इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि लड़ना बेकार था। अब रास्ता यह खोजा जा रहा है कि सिख पैसे देकर समझौता कर लें और लड़ाई समाप्त करें। लेकिन तब तक गांव की बहुत सारी लड़कियां किसी पुराने जौहर की परंपरा दुहराती हुई एक कुएं में कूद कर जान दे चुकी हैं। और अमानवीयता की हद यह है कि कुएं में डूब कर जान देने वाली एक औरत के पति को फ़िक्र है कि उसके हाथ के कड़े कैसे निकाले जाएंगे- वह अपने साथ किसी सुनार को ले जाने को तैयार है ताकि जब वह अपनी पत्नी को पहचान ले तो उसका हाथ काट कर उससे सोने के कड़े निकलवा सके। जैसे भीष्म साहनी हमारी संवेदनशीलता का इम्तिहान लेते चलते हैं।

लेकिन एक समाज के रूप में हम इस स्थिति का प्रतिरोध क्यों नहीं कर पाए? इसका जवाब भी ‘तमस’ के पन्नों में मिलता है। हम पाते हैं कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी सहित कई नेताओं की नैतिक उपस्थिति के बावजूद एक तरह का सामाजिक ढुलमुलपन है। उपन्यास के दूसरे दृश्य में ही कांग्रेस की प्रभात फेरी के समय यह ढुलमुलपन उजागर हो जाता है। कांग्रेस के भीतर पैठ रहे अवसरवादी चरित्र की भीष्म साहनी अचूक पड़ताल करते हैं। कांग्रेस के कार्यकर्ता बीमा एजेंट भी हैं और नेता ठेकेदार भी। जाहिर है, उनके नैतिक बल में एक खोखलापन है। उनके पास वह साहस भी नहीं है कि शहर के बिगड़ते माहौल में अफ़वाहों को रोकने के लिए किसी दीवार की तरह खड़े हो सकें। बेशक कुछ सनकी और ज़िद्दी गांधीवादी हैं जो किसी भी सूरत में सत्य और अहिंसा का रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं और इसकी क़ीमत अपनी जान देकर चुकाते हैं। उपन्यास में कम्युनिस्टों में एक दृढ़ता ज़रूर दिखती है, लेकिन इतने कम हैं कि वे बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ पाते। लेकिन अंततः वह सारी लड़ाई बेमानी हो जाती है जब हम नत्थू से सुअर मरवाने वाले मुराद अली को शांति स्थापित करने वाली बस में भी बैठा पाते हैं। बल्कि वही शांति के नारे लगा रहा है।

बहरहाल, इन सारी स्थितियों का नतीजा क्या है? भीष्म साहनी के पास सरलीकृत राजनीतिक मुहावरों में फँस जाने के लुभावने विकल्प कई रहे होंगे। लेकिन अंततः वे एक बड़े मानवतावादी कथाकार हैं। उनकी दृष्टि मनुष्यता के पतन की प्रक्रिया पर है। इक़बाल सिंह के इक़बाल अहमद होने की लिजलिजी प्रक्रिया जैसे सिहरा देती है, उसका दैन्य बहुत सारे लोगों की हत्या से भी कहीं ज़्यादा तकलीफ़देह है- वह जैसे आदमी नहीं, केंचुआ रह गया है जिसे कोई भी कुचल सकता है। यही नियति अलग-अलग ढंग से उपन्यास के दूसरे चरित्रों की भी दिखती है। 

निस्संदेह भीष्म साहनी का मानववाद उन्हें इस घटाटोप से बाहर भी देखने की दृष्टि सुलभ कराता है। दंगों के बीच बुज़ुर्ग हरनाम सिंह को वह मुस्लिम महिला शरण देती है जिसके पति और बेटे लूटपाट के लिए गए हैं। प्रकाशो को उठा लाने वाला अल्लाराखा उसे प्यार करता दिखाई पड़ता है।

क्या यह असंभव क़िस्म का मानववाद है जिसकी भीष्म साहनी कल्पना करते हैं? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। 'तमस' बस याद दिलाता है कि नकली पहचानों की राजनीति और दुश्मनों की तलाश का खेल दरअसल वे औज़ार हैं जिनकी मार्फ़त सत्ता बांटने का भी खेल करती है और तोड़ने का भी। आज के हिंदुस्तान में यह खेल अपने चरम पर है। एक समाज के रूप में हम बुरी तरह विभाजित हैं, व्यक्ति के रूप में बुरी तरह टूटे हुए और हिंसक।

हैरानी होती है कि पचास साल पहले जब हिंदी कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन में रिश्तों की कशमकश में खोई हुई थीं तब भीष्म साहनी राजनीति और सांप्रदायिकता को लेकर इतनी प्रखर और वेधक दृष्टि के साथ एक उपन्यास लिख रहे थे। निस्संदेह, यह प्रखरता सिर्फ ‘तमस’ में ही नहीं, उनकी कई कहानियों में दिखाई पड़ती है। उनकी चर्चा एक स्वतंत्र टिप्पणी की मांग करती है, इसलिए फिलहाल इस टिप्पणी को इस उम्मीद और सवाल के साथ यहीं छोड़ते हैं कि आख़िर यह तमस कभी तो मिटेगा- और अगर मिटेगा तो कैसे।

(साभार - प्रियदर्शन की फेसबुक वाल से)

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प्रियदर्शन
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