यह बात अब कम लोगों को याद है कि राजू श्रीवास्तव कभी सपा से जुड़े थे और बाद में उन्होंने बीजेपी का दामन थामा था। कला याद रहती है, वे समझौते पीछे छूट जाते हैं जो कलाकार अपने जीवन काल में किसी प्रलोभन या दबाव में करते हैं। अब किसी को याद नहीं है कि जगजीत सिंह ने कभी अटल बिहारी वाजपेयी की लिखी बहुत मामूली कविताएं गाने की कोशिश की थी। उनके अच्छे गीत ही याद किए जाते हैं। श्रीकांत वर्मा कांग्रेस की राजनीति में रहे, यह बात भुलाई जा चुकी है, सबको 'मगध' याद है।
लेकिन राजू श्रीवास्तव की कला क्या थी? वे लोगों को हंसाते थे। हंसाना कलाओं में शायद सबसे उपेक्षित काम माना जाता है। चुटकुले साहित्य की सबसे तिरस्कृत विधा है- इतने तिरस्कृत कि चुटकुले कहने वाले उनमें अपना नाम तक जोड़ना पसंद नहीं करते।
लेकिन हंसाने की परंपरा बहुत पुरानी है- विधियां भी बहुत सारी। हिंदी में हास्य कविता एक स्वतंत्र विधा हो चुकी है। साहित्य को हिंदी का संभवतः यह मौलिक योगदान है। इसके अलावा व्यंग्य में चुभन के अलावा हास्य भी होता है। फिर नाटक भी हंसाने का माध्यम रहे हैं। सर्कस में जोकर किसी भी जानवर से कम पसंद नहीं किए जाते रहे। इस वाक्य में जो छुपी हुई टीस या त्रासदी है, वह जान-बूझ कर डाली गई है- यह बताने के लिए कि हम अपने हंसोड़ लोगों का बहुत सम्मान नहीं करते। उनके साथ कई बार अमानवीय बरताव ही करते हैं।
राजू श्रीवास्तव हंसोड़ थे- अंग्रेज़ी में- या तथाकथित नई हिंदी में- जिसे स्टैंड अप कॉमेडियन कहते हैं। मगर राजू श्रीवास्तव की यूएसपी क्या थी? क्यों वे दूसरों से अलग थे? इसका जवाब भी आसान है। उनमें अपनी तरह का देसीपन था- उस निम्नमध्यवर्गीय जीवन की स्मृति, जिसे कुछ बरस पहले ही छोड़ कर हम उच्चमध्यवर्गीय जीवन शैली में दाख़िल हुए हैं। दूसरी बात यह कि इस देसीपन को उन्होंने बहुत विश्वसनीयता से निभाया। वे मुद्राओं को पकड़ने में निष्णात थे- संभवतः आंगिक शैली के बेहतरीन अभिनेता, जो मंच पर बिना किसी अन्य साधन के पूरा दृश्य रच सकते थे। ऐसा नहीं कि उनका यह सारा कमाल मौलिक था। तीन दशक पहले छोटे-छोटे शहरों के ऑरकेस्ट्रा कार्यक्रमों में बहुत सारे हंसोड़ कलाकार ऐसे होते थे जो मूल कार्यक्रम शुरू होने से पहले दर्शकों को बांधे रखने का काम पूरे कौशल से करते थे। यह काम वे बिल्कुल स्थानीय बोली-बानी और जाने-पहचाने क़िस्सों को नई-नई शक्लों में पेश करके किया करते थे।
राजू श्रीवास्तव इसी परंपरा से निकले हैं- इस मायने में ख़ुशनसीब रहे कि जब वे शिखर पर थे और नीचे का सफ़र शुरू करते, उसके ठीक पहले 24 घंटे के वे ख़बरिया चैनल शुरू हो गए जिनको अपने मगरमच्छ का मुँह भरने के लिए हर तरह का तमाशा चाहिए था। अचानक राजू श्रीवास्तव जैसे कई हास्य कलाकारों ने इसके ज़रिए रातों-रात राष्ट्रीय पहचान अर्जित कर ली। इस दौर के मीडिया की एक लोकप्रिय आलोचना यह रही कि वह बस तीन 'आर' पर निर्भर है- राजू श्रीवास्तव, राखी सावंत और राहुल द्रविड़। इसके पहले कुछ फिल्मों में भी राजू श्रीवास्तव इधर-उधर से झांकते दिखे, लेकिन सिर्फ़ इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट को अपना लक्ष्य मानने वाले सिनेमा ने बताया कि कहानी में हंसी तो हो, बेतुकी-बेमानी न हो, वरना फ़िल्में पिट जाती हैं।
बहरहाल, राजू श्रीवास्तव नहीं पिटे। उनकी मांग ऐसी थी कि देश के सबसे बड़े अख़बार 'दैनिक भास्कर' ने उनको एक साप्ताहिक स्तंभ दे डाला, जहाँ वे हल्के-फुल्के मज़ाकिया लहजे में कुछ बातें किया करते थे। हाल के वर्षों में टीवी चैनलों पर उनकी उपस्थिति संभवतः कुछ घटी थी और हास्य के नए सम्राट कपिल शर्मा हो चुके थे- ये बताते हुए- अगर हम समझने लायक बचे होते तो समझते- कि भारत का हास्यबोध कुछ और निम्नस्तरीय हो चुका है और उसमें फूहड़ लैंगिक मज़ाकों और इशारों की स्वीकृति और गुंजाइश कुछ और बढ़ी है। ऐसा नहीं कि यह सब भारतीय समाज के हास्यबोध में पहले अनुपस्थित था।
राजू श्रीवास्तव या उन जैसे दूसरे कलाकार भी जब अपनी कॉमेडी किया करते थे तो समाज में प्रचलित लैंगिक मज़ाकों और पूर्वग्रहों का भरपूर इस्तेमाल करते थे- लेकिन वह एक देशज परंपरा का हिस्सा था जिसकी सामंती सरहदें सबको मालूम थी।
आज के दौर की इस नई कॉमेडी में सामंती सड़ांध के साथ-साथ आधुनिक लंपटता भी शामिल है जो इसे कुछ ज़्यादा अरुचिकर बना डालती है।
राजू श्रीवास्तव इसमें नहीं फंसे, यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन यक़ीनन वे इसके लिए जाने नहीं जाते थे, उनकी पहचान इस पर आश्रित नहीं थी।
एक बात और है जो राजू श्रीवास्तव की पहचान को एक अलग अर्थ देती है। यह अनायास नहीं है कि आज बहुत सारे टीवी चैनलों पर जब राजू श्रीवास्तव के देहांत की खबर चली तो सबको खयाल आया- 'रुला कर चला गया हंसाने वाला राजू।' यह हंसाने और रुलाने का एक बिंब तो उस नाटकीयता से आता है जिसका नाम मौत है और जिसकी अपरिहार्यता से परिचित होने के बावजूद उसका आना हमें सदमे में डालता है। दूसरी बात यह कि कहीं न कहीं फिल्मों से बनी हमारी साझा स्मृति में 'मेरा नाम जोकर' जैसी फिल्म के भी निशान बचे हुए हैं। यह बस इत्तिफ़ाक है कि 'मेरा नाम जोकर' का मासूम भोला-भाला किरदार भी मासूम था और हमारा हंसोड़ चैंपियन भी राजू ही था। लेकिन जिस भोलेपन पर हम फिदा होना चाहते हैं, जिसे एक तरह की भारतीयता की पहचान भी मान लेते हैं, राजू श्रीवास्तव उसी को अपना किरदार बना कर मंच पर उतरते थे और मंच लूट लेते थे।
देशज कनपुरिया अंदाज़ में बोलने वाला, बहुत सारी चीज़ों से अनजान दिखने वाला, अंग्रेज़ी में तंग हाथ होने के बावजूद कभी-कभी उसके मनोरंजक इस्तेमाल का जतन करने वाला ऐसा संपूर्ण नायक अगर हाथों-हाथ लिया गया तो इसमें अचरज कैसा।
इतना सबकुछ लिखते हुए कुछ कहना अब भी बाक़ी रह जाता है। हंसी बहुत तरह की होती है, बहुत अर्थ देती है। दूसरों पर हंसना अच्छा नहीं माना जाता। खुद पर हंसना किसी को मंजूर नहीं होता। व्यवस्था पर हंसना उस पर चोट करना माना जाता है। नेता पर हंसना भी ख़तरनाक होता है। लेकिन कई बार लगता है कि हम सब एक हास्यास्पद व्यवस्था के शिकार हैं। हम पर दूसरे हंस रहे हैं। हमारे नेता भी हम पर हंसते होंगे। रघुवीर सहाय ने अपने कविता संग्रह का नाम ही 'हंसो-हंसो जल्दी हंसो' रख दिया था- बताते हुए कि 'हंसो कि हम पर निगाह रखी जा रही है।' यह भी माना जाता है कि जब संघर्ष के बहुत सारे विकल्प ख़त्म होते दिखे, जब आप ख़ुद को व्यवस्था के अंधकूप में पाएँ तो हंसी को आख़िरी हथियार की तरह इस्तेमाल करें- उससे भी संभव है, रोशनी मिल जाए। हिटलर के दौर की जर्मनी के 'व्हिसपरिंग जोक्स' का इतिहास अब जाना पहचाना है।
राजू श्रीवास्तव निस्संदेह हंसी की ऐसी किसी श्रेणी में समाते नहीं थे। वे इस मूलतः कलावंचित और संस्कृतिविहीन दौर में हुए- यह उनका चुनाव नहीं, उनकी नियति थी। हम सभी लोग धीरे-धीरे कलाओं को बेमानी और संस्कृति को फिजूल मानने लगे हैं। जो भी है वह ताक़त है, पैसा है, राजनीतिक रसूख है और झूठ बोल कर हासिल किया गया समर्थन है। इस माहौल में संसद में एक महिला ज़ोर से हंसती है जिसके प्रत्युत्तर में इस देश के सबसे बड़े नेता को शूर्पनखा की याद आती है और उनके साथ सारी संसद ठठा कर हंस पड़ती है।
(एनडीटीवी से साभार)
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