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प्रेमचंद 140 : 20 वीं कड़ी : जातिवाद पर गहरी चोट की थी प्रेमचंद ने

प्रेमचंद जातिभेद के स्रोत को नहीं भुलाना चाहते। हालाँकि अपने लेखों में वे ‘अछूतोद्धार’ की समझ और भाषा का प्रयोग करते दीखते हैं और मानते हैं कि उन्हें हिंदू धर्म में शामिल करके उन्हें उनकी आदतों से मुक्त किया जा सकता है। लेकिन उनकी कहानियों और उपन्यासों में जातिभेद की बीभत्सता के चित्र ही मिलते हैं। ‘अछूतों’ के जीवन के ‘विकार’ के नहीं।

अपूर्वानंद
‘दूध का दाम’ कहानी का विरोध संसद में किया गया था यह कहकर कि यह दलितों का अपमान करती है। जातिसूचक संज्ञा का इस्तेमाल प्रमाण बताया जाता है इस कहानी के दलितविरोधी होने का। एक ढोंग हमारे समाज में पलता रहता है। जिसे हम असंवैधानिक मानते हैं, वह हमारे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कतई कबूल रहता ही है।
यह समझा जा सकता है जो लोग पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र के आत्मकथा अंश का विरोध इसलिए कर रहे थे कि उससे ब्राह्मणविरोध की बू आती है, वे ही लोग दलितों के सम्मान के नाम पर प्रेमचंद की कहानी ‘दूध का दाम’ को पाठ्यपुस्तक से हटाने की माँग क्यों कर रहे थे! 

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दलितों की आड़ में 

अब दलितों की आड़ लेकर पुराने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बहाल किया जा सकता है। आश्चर्य नहीं कि संसद में इस बहस के कोई डेढ़ दशक बाद दलित राजनीति की ध्वजवाहक नेता ब्राहमणों के नए आराध्य परशुराम की प्रतिमा निर्माण का वायदा करती हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति का, जिसे माना गया कि उसने ‘उच्च जाति’ के प्रभुत्व को तोड़ दिया है। पहिया पूरा घूम गया है।

अब ‘पिछड़े’ या ‘दलित’ नकाब लगाकर जातिभेद और जाति घृणा का विचार गद्दी पर सवार हो गया है। जाति उन्मूलन का कार्यक्रम लगता है, चिरकाल के लिए स्थगित हो गया है। इसका आरोप भी अगर दलितों और पिछड़ों पर ही लगा दिया तो एक और बेईमानी होगी।
इस बात को ध्यान में रखते हुए ‘दूध का दाम’ कहानी को दुबारा पढ़ना चाहिए और ब्राह्मणों को पूजनीय माननेवालों के द्वारा इसके विरोध की राजनीति को भी समझना चाहिए। यह एक दलित समुदाय के शोषण और उसके प्रतिकार न कर पाने की निरुपायता की करुणगाथा नहीं है। वह दरअसल जाति विभाजित समाज में ‘उच्च जातियों’ की अमानवीयता और उनके भीतर पैवस्त बेईमानी और अनैतिकता की कहानी है। 
यह सिद्धांत बहुत बाद में समझ में आया कि जिसके साथ जुल्म हुआ है उसका चेहरा दिखला दिखलाकर उसके प्रति दया जगाने की दयनीय कोशिश की जगह उसका चेहरा दिखलाओ जो शोषण करता है। यों ही नहीं रघुवीर सहाय ने अत्याचारी का चेहरा दिखलाने को कहा था। बलात्कार की शिकार का चेहरा दिखलाकर उसे बेचारी दिखलाने के आसान सुख की जगह बलात्कारी का चेहरा दिखलाने का साहस करने को कवि-पत्रकार ने कहा था।

प्रेमचंद जातिभेद के स्रोत को नहीं भुलाना चाहते। हालाँकि अपने लेखों में वे ‘अछूतोद्धार’ की समझ और भाषा का प्रयोग करते दीखते हैं और मानते हैं कि उन्हें हिंदू धर्म में शामिल करके उन्हें उनकी आदतों से मुक्त किया जा सकता है। लेकिन उनकी कहानियों और उपन्यासों में जातिभेद की बीभत्सता के चित्र ही मिलते हैं, ‘अछूतों’ के जीवन के ‘विकार’ के नहीं।

जाति और श्रम या जाति और प्रत्येक प्रकार के संसाधन पर कब्जे के बीच के रिश्ते को समझा गया है। कहानियों में जातिक्रम या जातिव्यवस्था को श्रम और संसाधन के शोषण को जायज़ ठहरानेवाली विचारधारात्मक प्रणाली के रूप में देखा जाता रहा है।
सिर्फ श्रम और संसाधन के शोषण को वैध ठहरानेवाली वैचारिक व्यवस्था वह नहीं है। बल्कि वह मानवीय भावों का बँटवारा भी इसी आधार पर कर डालती है।
 जिन जातियों को ‘दलित’ माना जाता है, उन्हें कुछ भावों के लिए अयोग्य माना जाता है। दुख, विरह, वियोग, प्रेम, वीरता, अभिमान, आत्म गौरव, व्यक्तिमत्ता। इनका अधिकार क्या मात्र ‘संस्कारवानों’ को है?  

भावनाओं और संवेदनाओं के विभाजन का जातिविभेद से क्या रिश्ता है? यह प्रश्न बार बार प्रेमचंद का कथा साहित्य पूछता है।
मान पर अधिकार सवाल सिर्फ पानी पर अधिकार का नहीं। अपने मान पर अधिकार का भी है। प्रेमचंद की पहली रचना में दलितों ने अपने मान की रक्षा की थी। रचना एक सच्ची घटना पर आधारित थी। उनके रिश्ते के एक मामू उनके घर अक्सर आया करते थे। बालक प्रेमचंद के खेलने, उपन्यास पढ़ने आदि को लेकर वे धमकाते और पिता से शिकायत की धमकी देते रहते। बालक बदले का मौका खोज रहा था। उनकी ज़िंदगी की कुछ तफसीली जानकारी, जो ज़रा चटखारेदार भी थी, प्रेमचंद को मालूम थी। उन्हीं के शब्दों में:

उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी-कभी हमारे यहाँ आया करते थे। अधेड़ हो गए थे, लेकिन अब तक बिन ब्याहे थे। पास में थोडी़ सी ज़मीन थी, लेकिन घरनी के बिना सबकुछ सूना था। इसलिए घर पर जी न लगता था। नातेदारियों में घूमा करते थे, और सबसे यही आशा रखते थे कि कोई उनका ब्याह करा दे। इसके‍ लिए सौ-दो सौ खर्च करने को भी तैयार थे।

क्यों उनका ब्याह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था। अच्छे खासे हष्ट-पुष्ट आदमी थे। बडी़-बड़ी मूँछें। औसत कद। साँवला रंग। गांजा पीते थे। इससे आँखें लाल रहती थी। अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे। शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे। और मांस-मछली नहीं खाते थे।

आखिर एक बार उन्होंने भी वही किया, जो बिन ब्याहे अक्सर किया करते हैं। एक... के नयन बाणों से घायल हो गए। वह उनके यहाँ गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के फुटकर कामों के लिए नौकर थी। जवान थी,  छबीली थी और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भाँति प्रसन्नमुख और विनोदिनी थी।' 

मामू उसपर मेहरबान हो गए। साड़ी आदि उपहार में देने लगे। यह उस स्त्री के समुदाय ने नोट किया।

'....आपस में पंचायत की। बड़े आदमी हैं तो हुआ करें। क्या किसी की इज्ज़त लेंगे? एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आँख उठाकर नहीं देखा (हालाँकि यह सरासर ग़लत था) और एक यह हैं कि नीच जा‍ति की बहू बेटियों पर भी डोरे डालते हैं। समझाने बुझाने का मौका न था। समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं और कोई मामला खड़ा कर देंगे। इनके कलम घुमाने की तो देर है।

इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए। इज्ज़त का बदला खून ही चुकाता है। लेकिन इससे भी कुछ उसकी पुरौती हो सकती है।'

प्रेमचंद जो कोष्ठकों में टिप्पणी कर रहे हैं। उसे पढ़ना चाहिए। मामू अपवाद न थे। यह जाति और वंश परंपरा थी और इससे आपके संस्कारी होने में कोई बाधा न थी। खैर, वह दिन आ गया जिसका स्त्री के समुदाय को इंतज़ार था।

'दूसरे दिन शाम को जब चंपा मामू साहब के घर में आई तो उन्होंने अंदर से द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया। चाहे कुछ हो जाए। कुल-मरजाद रहे या जाए। बाप-दादा का नाम डूबे या उतराय!

उधर चमारों का जत्था ताक में था ही इधर किवाड़ बंद हुए। उधर उन्होंने द्वार खटखटाना शुरू किया। पहले तो मामू साहब ने समझा कोई आसामी मिलने आया होगा। किवाड़ बंद पाकर लौट जाएगा। लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुनाई दिया तो घबड़ाए। जाकर किवाड़ों की दराज से झाँका।

कोई बीस पच्चीस ...लाठियाँ लिए। द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की चेष्टा कर रहे थे। अब करें तो क्या करें? भागने का कहीं रास्ता नहीं चंपा को कहीं छिपा नहीं सकते। समझ गए कि शामत आ गई। आशिकी इतनी जल्दी गुल खिलाएगी। यह जानते तो इस ...पर दिल आने ही क्यों देते।

उधर चंपा इन्हीं को कोस रही थी- तुम्हारा क्या बिगडेगा। मेरी तो इज्ज़त लुट गई। घरवाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे। कहती थी। कभी किवाड़ बंद न करो हाथ-पाँव जोड़ती थी। मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था। लगी मुँह में कालिख कि नहीं?

मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आए थे। कोई पक्का खिलाडी़ होता तो सौ उपाय निकाल लेता। लेकिन मामू साहब की जैसे सिट़टी-पिट्टी भूल गई। बरौठे में थर-थर काँपते 'हनुमान चालीसा' का पाठ करते खडे़ थे। कुछ न सूझता था।'

दुष्ट आनंद 

भागने का कोई रास्ता नहीं था। गाँववालों के लिए मुफ़्त का तमाशा था। वे मज़ा लेने में क्योंकर कोताही करते?

 '...उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। यहाँ तक कि सारा गाँव जमा हो गया। बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने आ पहुँचे। इससे ज़्यादा मनोरंजक और स्फूर्तिवर्द्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द और एक औरत को साथ में घर में बंद पाया जाए! फिर वह चाहे कितनी ही सभ्य और विनम्र क्यों न हो। जनता उसे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकती।

बढ़ई बुलाया गया। किवाड़ फाड़े गए और मामू साहब भूसे की कोठरी में छुपे हुए मिले। चंपा आंगन में खड़ी रो रही थी। द्वार खुलते ही भागी। कोई उससे कुछ नहीं बोला। मामू साहब भागकर कहाँ जाते? वे जानते थे। भागने का कोई रास्ता नहीं है। मार खाने के लिए तैयार बैठे थे। मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी। जिसके हाथ जो कुछ भी लगा- जूता, छाता, छड़ी, लात, घूँसा सभी अस्त्र चले।

यहाँ तक कि मामू साहब बेहोश हो गए। और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया। अब इतनी दुर्गति के बाद वह बच भी गए तो गाँव में नहीं रह सकते और उनकी ज़मीन पट्टेदारों के हाथ आएगी।’’

यह ख़बर उड़ते उड़ते धनपतराय तक पहुँची। मामू साहब के सताए हुए बालक ने उनकी दुर्गति की कल्पना करके दुष्ट आनंद लिया। फिर 

'एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे। ज्यों ही चलने-फिरने लायक हुए हमारे यहाँ आए। यहाँ अपने गाँव वालों पर डाके का इस्तगासा दायर करना चाहते थे। अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखाई होती तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती। लेकिन उनका वही दमखम था। मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगड़ना और रौब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना। यह अब मैं क्यों सहने लगा था!'

उनकी ढिठाई 13 साल के बालक से बर्दाश्त न हुई।

'आख़िर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना एक नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनाई। सब के सब खूब हँसे, मेरा साहस बढ़ा। मैंने उसे साफ़-साफ़ लिखकर वह कॉपी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया। दिल में कुछ डर भी था। कुछ खुश भी था और कुछ घबराया हुआ भी था। सबसे बड़ा कौतूहल यह था कि ड्रामा पढ़कर मामू साहब क्या कहते हैं।

स्कूल में जी न लगता था। दिल उधर ही टंगा हुआ था। छुट्टी होते ही घर चला गया था। मगर द्वार के समीप आकर ही पाँव रूक गए थे। भय हुआ कहीं मामू साहब मुझे मार न बैठे। लेकिन इतना जानता था कि वह एकाध थप्पड़ से ज्यादा मुझे मार न सकेंगे। क्योंकि मैं मार खाने वाले लड़कों में न था।

मगर यह क्या मामला है! मामू साहब चारपाई पर नहीं है। जहाँ वह नित्य लेटे हुए मिलते थे। क्या घर चले गए? आकर कमरा देखा तो वहाँ भी सन्नाटा मामू साहब के जूते, कपड़े, गठरी सब लापता। अंदर जाकर पूछा तो मालूम हुआ। मामू साहब किसी ज़रूरी काम से चले गए। भोजन तक नहीं किया।'

तीर निशाने पर लगा था। 

धनपत राय ने मामूजान के यों गायब हो जाने के बाद अपनी रचना बहुत खोजी:'मैंने बाहर आकर सारा कमरा छान मारा। मगर मेरा ड्रामा - मेरी वह पहली रचना कहीं न मिली। मालूम नहीं मामू साहब ने उसे चिरागअली के सुपुर्द कर दिया या अपने साथ स्वर्ग ले गए?'

चिरागअली के सुपुर्द नवाबराय ने अपना पहला कहानी संग्रह भी किया था। लेकिन उससे अंग्रेज़ बहादुर को राहत मिल गई हो, यह तो न हुआ। प्रेमचंद की पहली रचना का इस तरह लुप्त हो जाना शोधार्थियों के लिए भारी नुक़सान है। लेकिन जैसा अमृत राय ने लिखा है कि बालक लेखक को मालूम हुआ कि कलम से कैसी चोट की जा सकती है।

श्रम और भावनाओं का शोषण

यह लेकिन सिर्फ एक बदले की कहानी नहीं है। अमृत राय ठीक ही लिखते हैं कि कोई 40 साल बाद यह घटना ‘गोदान’ में ब्राह्मणपुत्र मातादीन और दलित सिलिया के बीच के प्रेम प्रसंग के रूप में लौट आती है। मातादीन सिलिया के श्रम और भावनाओं, दोनों का शोषण करता है।

सिलिया का तन और मन दोनों ले कर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी। और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था।'

सिलिया जान लड़ाकर काम करती और उसे भ्रम हो चला था कि मातादीन पर और उसकी संपत्ति पर उसका कुछ हक़ है। गाँव की सहुआइन का सिलिया पर कुछ बकाया है। वह उसकी चुकाई के तौर पर लगभग सेर भर अनाज उसके अंचल में दाल देती है:

उसी वक़्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का अंचल पकड़ कर बोला - अनाज सीधे से रख दो सहुआइन, लूट नहीं है। फिर उसने लाल आँखों से सिलिया को देख कर डाँटा - तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछ कर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली?

सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया और सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुँह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा, जिस डाल पर वह निश्चिंत बैठी हुई थी, वह टूट गई और अब वह निराधार नीचे गिरी जा रही है। खिसियाए हुए मुँह से, आँखों में आँसू भर कर सहुआइन से बोली - तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूँगी सहुआइन! आज मुझ पर दया करो।

सहुआइन ने उसे दयार्द्र नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार-भरी आँखों से देखती हुई चली गई।

तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा - तुम्हारी चीज में मेरा कुछ अख्तियार नहीं है?

मातादीन आँखें निकाल कर बोला - नहीं। तुझे कोई अख्तियार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो तू चाहे कि खा भी, लुटा भी, तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, तो कहीं और जा कर काम कर। मजूरों की कमी नहीं है, सेंत में काम नहीं लेते। खाना-कपड़ा देते हैं।'

प्रेमचंद को अपने मामूजान को दिया गया सबक याद आ जाता है। दृश्य दुहराया जाता है। लेकिन 13 बरस का धनपतराय अब 56 साल का उपन्यास सम्राट् बन चुका है।

'उसी वक्त उसकी माँ, बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आ कर मातादीन को घेर लिया। सिलिया की माँ ने आते ही उसके हाथ से अनाज की टोकरी छीन कर फेंक दी और गाली दे कर बोली - राँड़। जब तुझे मजूरी ही करनी थी, तो घर की मजूरी छोड़ कर यहाँ क्या करने आई। जब बाँभन के साथ रहती है, तो बाँभन की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवा कर भी चमारिन ही बनना था। तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आई थी, चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरती।

झिुंगरी सिंह और दातादीन दोनों दौड़े और चमारों  के बदले तेवर देख कर उन्हें शांत करने की चेष्टा करने लगे। झिंगुरी सिंह ने सिलिया के बाप से पूछा - क्या बात है चौधरी। किस बात का झगड़ा है?
सिलिया का बाप हरखू साठ साल का बूढ़ा था। काला, दुबला, सूखी मिर्च की तरह पिचका हुआ। पर उतना ही तीक्ष्ण। बोला - झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुर। हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगे, या उनका और अपना रकत एक कर देंगे। सिलिया कन्या जात है, किसी-न-किसी के घर तो जायगी ही। इस पर हमें कुछ नहीं कहना है। मगर उसे जो कोई भी रखे, हमारा हो कर रहे। तुम हमें बाँभन नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार  बना सकते हैं। हमें बाँभन बना दो, हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह समरथ नहीं है, तो फिर तुम भी चमार  बनो। हमारे साथ खाओ, पिओ, हमारे साथ उठो-बैठो। हमारी इज्जत लेते हो, तो अपना धरम हमें दो।
दातादीन ने लाठी फटकार कर कहा - मुँह सँभाल कर बातें कर हरखुआ! तेरी बिटिया वह खड़ी है। ले जा जहाँ चाहे, हमने उसे बाँध नहीं रक्खा है। काम करती थी, मजूरी लेती थी। यहाँ मजूरों की कमी नहीं है।
सिलिया की माँ उँगली चमका कर बोली - वाह-वाह पंडित! खूब नियाव करते हो। तुम्हारी लड़की किसी चमार के साथ निकल गई होती और तुम इसी तरह की बातें करते। तो देखती, हम चमार हैं। इसलिए हमारी कोई इज्ज़त ही नहीं। हम सिलिया को अकेले न ले जाएँगे, उसके साथ मातादीन को भी ले जाएँगे, जिसने उसकी इज्जत बिगाड़ी है। तुम बड़े नेमी-धरमी हो, उसके साथ सोओगे, लेकिन उसके हाथ का पानी न पियोगे! वही चुड़ैल है कि यह सब सहती है। मैं तो ऐसे आदमी को माहुर दे देती।
हरखू ने अपने साथियों को ललकारा - सुन ली इन लोगों की बात कि नहीं! अब क्या खड़े मुँह ताकते हो।
इतना सुनना था कि दो चमारों ने लपक कर मातादीन के हाथ पकड़ लिए। तीसरे ने झपट कर उसका जनेऊ तोड़ डाला और इसके पहले कि दातादीन और झिंगुरीसिंह अपनी-अपनी लाठी सँभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। मातादीन ने दाँत जकड़ लिए, फिर भी वह घिनौनी वस्तु उसके होंठों में तो लग ही गई। उन्हें मतली हुई और मुँह अपने-आप खुल गया और हड्डी कंठ तक जा पहुँची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गए। पर आश्चर्य यह कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुजाहिम न हुआ। मातादीन का व्यवहार सभी को नापसंद था। वह गाँव की बहू-बेटियों को घूरा करता था। इसलिए मन में सभी उसकी दुर्गति से प्रसन्न थे। हाँ। ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा रहे थे।

होरी ने कहा - अच्छा। अब बहुत हुआ हरखू! भला चाहते हो, तो यहाँ से चले जाओ।

हरखू ने निडरता से उत्तर दिया - तुम्हारे घर में लड़कियाँ हैं होरी महतो। इतना समझ लो, इसी तरह गाँव की मरजाद बिगड़ने लगी, तो किसी की आबरू न बचेगी।
एक क्षण में शत्रु पर पूरी विजय पा कर आक्रमणकारियों ने वहाँ से टल जाना ही उचित समझा। जनमत बदलते देर नहीं लगती। उससे बचे रहना ही अच्छा है।

मातादीन कै कर रहा था। दातादीन ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा - एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए न भेजवाया, तो कहना। पाँच-पाँच साल तक चक्की पिसवाऊँगा।
हरखू ने हेकड़ी के साथ जवाब दिया - इसका यहाँ कोई गम नहीं। कौन तुम्हारी तरह बैठे मौज करते हैं? जहाँ काम करेंगे, वहीं आधा पेट दाना मिल जायगा।'

विद्रूप पर्दा

हरखू की हेकड़ी प्रेमचंद के यहाँ और जगहों पर भी चमक उठती है। इतने से लेखक को संतोष नहीं होता। वह जैसे इस धर्म का विद्रूप पर्दा खोल खोलकर दिखला देना चाहता है। यह है विप्र समाज। यह है धर्म। यह है वर्ण व्यवस्था की महानता:

'मातादीन कै कर चुकने के बाद निर्जीव-सा ज़मीन पर लेट गया। मानो कमर टूट गई हो। मानो डूब मरने के लिए चुल्लू-भर पानी खोज रहा हो। जिस मर्यादा के बल पर उसकी रसिकता और घमंड और पुरुषार्थ अकड़ता फिरता था, वह मिट चुकी थी। उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहीं, उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था। उसका धर्म इसी खान-पान, छूत-विचार पर टिका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ कट गई। अब वह लाख प्रायश्चित्त करे, लाख गोबर खाए और गंगाजल पिए, लाख दान-पुण्य और तीर्थ-व्रत करे, उसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता। अगर अकेले की बात होती, तो छिपा ली जाती। यहाँ तो सबके सामने उसका धर्म लुटा। अब उसका सिर हमेशा के लिए नीचा हो गया। आज से वह अपने ही घर में अछूत समझा जायगा। उसकी स्नेहमयी माता भी उससे घृणा करेगी। और संसार से धर्म का ऐसा लोप हो गया कि इतने आदमी केवल खड़े तमाशा देखते रहे, किसी ने चूँ तक न की। एक क्षण पहले जो लोग उसे देखते ही पालागन करते थे। अब उसे देख कर मुँह फेर लेंगे। वह किसी मंदिर में भी न जा सकेगा, न किसी के बरतन-भाँड़े छू सकेगा।'

इन शब्दों पर ध्यान दीजिए: मर्यादा, रसिकता, घमंड, पुरुषार्थ!
प्रेमचंद की नाक मानो इस जातिगत धर्माचार की दुर्गंध से टेढ़ी हो गई है। वे जो व्यंग्यपूर्ण उपहास पंडित मोटेराम शास्त्री का करते हैं। वह यहाँ निर्मम कोड़े में बदल गया है। इस जाति, इस धर्म, इस श्रेष्ठता, इस मर्यादा का जितनी जल्दी अंत हो उतना अच्छा! 

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