2006 में राज्यसभा में प्रेमचंद और हिंदी साहित्य मात्र को लेकर एक तूफ़ान खड़ा हो गया। यह संभवतः पहला मौक़ा था जब साहित्य को सांसदों ने चर्चा के योग्य माना था। तब कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार थी। नई स्कूली पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम की घोषणा हुए साल भर ही हुआ था। नए पाठ्यक्रम के अनुसार नई स्कूली किताबें भी बनाई जा रही थीं। हिंदी की पाठ्यपुस्तकें बदली गई थीं।
तब विपक्षी दल के नेताओं ने, जिनकी अगुआई सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी कर रहे थे, इन नई किताबों में संकलित कई रचनाओं पर ऐतराज किया।
वह बहस बहुत दिलचस्प है। इसलिए भी कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में तक़रीबन सारे राजनीतिक दल इन रचनाओं और इनके रचनाकारों के ख़िलाफ़ एकजुट हो गए। सामाजिक न्यायवादी और वामपंथी भी पीछे न रहे।
संसद में हिन्दी
बीजेपी के नेताओं ने हमला चौतरफा बोला था। पांडेय बेचन शर्मा उग्र की आत्मकथा के अंश से ब्राह्मण समुदाय की भावना आहत होती थी। तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री ऐसा अनर्थ होते कैसे देख सकते हैं जबकि वे स्वयं ब्राह्मणों का इतना आदर करते हैं, बीजेपी नेताओं ने पूछा। एम. एफ़. हुसेन की आत्मकथा तो किसी भी तरह नहीं पढ़ाई जा सकती थी! अवतार सिंह पाश नक्सली थे जो देशद्रोही होते हैं, उनकी कविता पढ़कर बच्चे भी उसी राह चल पड़ेंगे!प्रेमचंद भी राष्ट्रवादी कोप का शिकार हुए। एक तरफ ‘उग्र’ को ब्राह्मण विरोध के लिए सजा दी जानी थी तो प्रेमचंद की ताड़ना यह कहकर की गई कि वे दलित विरोधी हैं। या कम से कम उनकी रचना जो किताब में है, वह तो दलितों का अपमान करती ही है।
'कु और सु का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है। प्राचीन साहित्य, धर्म और ईश्वरद्रोहियों के प्रति घृणा और उनके अनुयायियों के प्रति श्रद्धा और भक्ति के भावों की सृष्टि करता रहा। नवीन साहित्य समाज का खून चूसनेवालों, रंगे सियारों, हथकंडेबाजों और जनता के अज्ञान से अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवालों के विरुद्ध उतने ही जोर से आवाज़ उठा रहा है और दीनों, दलितों, अन्याय के हाथ सताए हुओं के प्रति उतने ही जोर से सहानुभूति उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहा है।'
'संभव है, वह भावुकता की तरंग में और कठोर सत्य की ओर से आँखें बंद करके संसार में क्रान्ति मचा देने का स्वप्न देख रहा हो; संभव है, वह जिन्हें वह दरिद्रता के कारण संहानुभूति का पात्र समझ रहा है, उनकी सारी बुराइयों को दुरवस्था और दरिद्रता के सर मढ़ रहा हो। वे इतने भोले भाले प्राणी न हों, पर वह नवयुग का स्वर्ग-स्वप्न देखने में इतना मगन है कि इस समय उसे किसी बाधा-विघ्न की ओर ध्यान देने का अवकाश नहीं है।'
'...कलाकारों का उद्देश्य क्या यह था कि वे किसी व्यक्ति या समाज के प्रति घृणा फैलाएँ? वे व्यक्तियों के शत्रु नहीं हैं, न वे द्वेष या ईर्ष्या के कारण ही साहित्य की रचना करते हैं। वे उन परिस्थितियों और प्रवृत्तियों के शत्रु हैं, जिनके हाथों ऐसे व्यक्ति उत्पन्न होते हैं। व्यक्तियों से उन्हें उतना ही प्रेम है, जितना अपने भाई से हो सकता है। जिन सूदखोर महाजनों या मजदूरों के पसीने की कमाई पर मोटे होनेवाले मिल मालिकों के प्रति वह अपनी कृतियों में ज़हर उगलता है, उन्हीं को संकट में देखकर वह उनकी सेवा करना अपना अहोभाग्य समझेगा।'
'वह(कलाकार) जानता है कि यह गरीब खुद अपनी स्वार्थान्धता के हाथों दुखी हैं और अपनी धनलिप्सा के शिकार होकर गरीबों को सता रहे हैं।'
जाति की संरचना मानवीय भावों और संवेदनाओं को किस प्रकार कुचल देती है और ‘ऊँची जाति’ के लोगों को अमानुषिक बना देती है, प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यास में यह कदम कदम पर दिखलाई पड़ता है।
'अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्सें और लेडी डाक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में जच्चेखानों पर अभी तक भंगिनों का ही प्रभुत्व है और निकट भविष्य में इसमें कोई तब्दीली होने की आशा नहीं। बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, शिक्षित थे और जच्चेखानों में सुधार की आवश्यकता को मानते थे, लेकिन इसमें जो बाधाएँ थीं, उन पर कैसे विजय पाते ? कोई नर्स देहात में जाने पर राजी न हुई और बहुत कहने-सुनने से राजी भी हुई, तो इतनी लम्बी-चौड़ी फीस माँगी कि बाबू साहब को सिर झुकाकर चले आने के सिवा और कुछ न सूझा। लेडी डाक्टर के पास जाने की उन्हें हिम्मत न पड़ी। उसकी फीस पूरी करने के लिए तो शायद बाबू साहब को अपनी आधी जायदाद बेचनी पड़ती; इसलिए जब तीन कन्याओं के बाद वह चौथा लड़का पैदा हुआ, तो फिर वही गूदड़ था और वही गूदड़ की बहू। बच्चे अक्सर रात ही को पैदा होते हैं। एक दिन आधी रात को चपरासी ने गूदड़ के द्वार पर ऐसी हाँक लगायी कि पास-पड़ोस में भी जाग पड़ गयी। लड़की न थी कि मरी आवाज से पुकारता।'
देखिए जिसे आप दलित कहते हैं और अछूत बताते हैं, उसकी रसाई ‘ऊँची जाति’ के जच्चाखाने तक है!
आत्म का संहार
गूदड़ और गूदड़ की बहू को न्योता मजबूरी है, चुनाव नहीं। उसके पहले बहुत चलते तरीके से यह सूचना दी जाती है कि तीन कन्याओं के बाद चौथा लड़का पैदा हुआ है। आगे प्रेमचंद की परिचित विनोदपूर्ण निगाह है, किंचित् व्यंग्य, किंचित् उपहास और किंचित् सहानुभूतिवाली निगाह, लेकिन वह स्थिति की विडंबना को उजागर कर देती है,'बच्चे अक्सर रात ही को पैदा होते हैं। एक दिन आधी रात को चपरासी ने गूदड़ के द्वार पर ऐसी हाँक लगायी कि पास-पड़ोस में भी जाग पड़ गयी। लड़की न थी कि मरी आवाज से पुकारता।'
'गूदड़ के घर में इस शुभ अवसर के लिए महीनों से तैयारी हो रही थी। भय था तो यही कि फिर बेटी न हो जाय, नहीं तो वही बँधा हुआ एक रुपया और एक साड़ी मिलकर रह जायगी। इस विषय में स्त्री-पुरुष में कितनी ही बार झगड़ा हो चुका था, शर्त लग चुकी थी। स्त्री कहती थी, ‘अगर अबकी बेटा न हो तो मुँह न दिखाऊँ; हाँ-हाँ, मुँह न दिखाऊँ, सारे लच्छन बेटे के हैं। और गूदड़ कहता था, ‘देख लेना, बेटी होगी और बीच खेत बेटी होगी। बेटा निकले तो मूँछें मुँड़ा लूँ, हाँ-हाँ, मूँछें मुड़ा लूँ। शायद गूदड़ समझता था कि इस तरह अपनी स्त्री में पुत्र-कामना को बलवान् करके वह बेटे की अवाई के लिए रास्ता साफ कर रहा है।
भूँगी बोली, ‘अब मूँछ मुँड़ा ले दाढ़ीजार ! कहती थी, बेटा होगा। सुनता ही न था। अपनी ही रट लगाये जाता था। मैं आज तेरी मूँछें मूँङूँगी, खूँटी तक तो रखूँगी ही नहीं।‘
गूदड़ ने कहा, ‘अच्छा मूँड़ लेना भलीमानस! मूँछें क्या फिर निकलेंगी ही नहीं ? तीसरे दिन देख लेना, फिर ज्यों-की-त्यों हैं, मगर जो कुछ मिलेगा, उसमें आधा रखा लूँगा, कहे देता हूँ।‘'
भूँगी ने अँगूठा दिखाया और अपने तीन महीने के बालक को गूदड़ के सुपुर्द कर सिपाही के साथ चल खड़ी हुई।
गूदड़ ने पुकारा, ‘अरी ! सुन तो, कहाँ भागी जाती है ? मुझे भी बधाई बजाने जाना पड़ेगा। इसे कौन सँभालेगा ?’
भूँगी ने दूर ही से कहा, ‘इसे वहीं धरती पर सुला देना। मैं आके दूध पिला जाऊँगी।‘
महेशनाथ के यहाँ अब भी भूँगी की खूब खातिरदारियाँ होने लगीं। सबेरे हरीरा मिलता, दोपहर को पूरियाँ और हलवा, तीसरे पहर को फिर और रात को फिर और गूदड़ को भी भरपूर परोसा मिलता था। भूँगी अपने बच्चे को दिन-रात में एक-दो बार से ज्यादा न पिला सकती थी। उसके लिए ऊपर के दूध का प्रबन्ध था। भूँगी का दूध बाबूसाहब का भाग्यवान् बालक पीता था। और यह सिलसिला बारहवें दिन भी न बन्द हुआ। ... और भूँगी का लाड़ला ऊपर का दूध हजम न कर सकने के कारण बार-बार उलटी करता और दिन-दिन दुबला होता जाता था।
घर में मालकिन के बाद भूँगी का राज्य था। महरियाँ, महराजिन, नौकर- चाकर सब उसका रोब मानते थे। यहाँ तक कि खुद बहूजी भी उससे दब जाती थीं। एक बार तो उसने महेशनाथ को भी डाँटा था। हँसकर टाल गये। बात चली थी भंगियों की। महेशनाथ ने कहा था, दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाय, भंगी भंगी ही रहेंगे। इन्हें आदमी बनाना कठिन है। इस पर भूँगी ने कहा था, मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते हैं, उन्हें कोई क्या आदमी बनाये। यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भूँगी के सिर के बाल बच सकते थे ? लेकिन आज बाबूसाहब ठठाकर हँसे और बोले भूँगी बात बड़े पते की कहती है।
जाति की आग
इस संवाद पर कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं। भूँगी का बराबरी का भरम जल्दी ही टूटनेवाला है। बाबू महेशनाथ के लड़के की दूधपिलाई होने के कारण वह जिस पद पर पहुँच गई है, उससे शीघ्र ही उसे अपदस्थ होना होगा:'भूँगी का शासनकाल साल-भर से आगे न चल सका। देवताओं ने बालक के भंगिन का दूध पीने पर आपत्ति की, मोटेराम शास्त्री तो प्रायश्चित्त का प्रस्ताव कर बैठे। दूध तो छुड़ा दिया गया; लेकिन प्रायश्चित्त की बात हँसी में उड़ गयी। महेशनाथ ने फटकारकर कहा, ‘प्रायश्चित्त की खूब कही शास्त्रीजी, कल तक उसी भंगिन का खून पीकर पला, अब उसमें छूत घुस गयी। वाह रे आपका धर्म।’
‘यह सत्य है, वह कल तक भंगिन का रक्त पीकर पला। मांस खाकर पला, यह भी सत्य है; लेकिन कल की बात कल थी, आज की बात आज। जगन्नाथपुरी में छूत-अछूत सब एक पंगत में खाते हैं; पर यहाँ तो नहीं खा सकते। बीमारी में तो हम भी कपड़े पहने खा लेते हैं, खिचड़ी तक खा लेते हैं बाबूजी; लेकिन अच्छे हो जाने पर तो नेम का पालन करना ही पड़ता है। आपद्धर्म की बात न्यारी है।’'
‘तो इसका यह अर्थ है कि धर्म बदलता रहता है क़भी कुछ, कभी कुछ?’
'और क्या ! राजा का धर्म अलग, प्रजा का धर्म अलग, अमीर का धर्म अलग, गरीब का धर्म अलग, राजे-महाराजे जो चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें शादी-ब्याह करें, उनके लिए कोई बन्धन नहीं। समर्थ पुरुष हैं। बन्धन तो मध्यवालों के लिए है।'
प्रायश्चित्त तो न हुआ; लेकिन भूँगी को गद्दी से उतरना पड़ा !'
'एक दिन भूँगी महेशनाथ के घर का परनाला साफ कर रही थी। महीनों से गलीज जमा हो रहा था। आँगन में पानी भरा रहने लगा था। परनाले में एक लम्बा मोटा बाँस डालकर जोर से हिला रही थी। पूरा दाहिना हाथ परनाले के अन्दर था कि एकाएक उसने चिल्लाकर हाथ बाहर निकाल लिया और उसी वक्त एक काला साँप परनाले से निकलकर भागा। लोगों ने दौड़कर उसे मार तो डाला; लेकिन भूँगी को न बचा सके। समझे, पानी का साँप है, विषैला न होगा, इसलिए पहले कुछ गफलत की गयी। जब विष देह में फैल गया और लहरें आने लगीं, तब पता चला कि वह पानी का साँप नहीं, गेहुँवन था।'
'मिट्टी के कसोरों में ऊपर से खाना दिया जाता था। सब लोग अच्छे-अच्छे बरतनों में खाते हैं, उसके लिए मिट्टी के कसोरे ! यों उसे इस भेदभाव का बिलकुल ज्ञान न होता था, लेकिन गाँव के लड़के चिढ़ा-चिढ़ाकर उसका अपमान करते रहते थे। कोई उसे अपने साथ खेलाता भी न था। यहाँ तक कि जिस टाट पर वह सोता था, वह भी अछूत था। मकान के सामने एक नीम का पेड़ था। इसी के नीचे मंगल का डेरा था। एक फटा-सा टाट का टुकड़ा, दो मिट्टी के कसोरे और एक धोती, जो सुरेश बाबू की उतारन थी, जाड़ा, गरमी, बरसात हरेक मौसम में वह जगह एक-सी आरामदेह थी और भाग्य का बली मंगल झुलसती हुई लू, गलते हुए जाड़े और मूसलाधार वर्षा में भी जिन्दा और पहले से कहीं स्वस्थ था। बस, उसका कोई अपना था तो गाँव का एक कुत्ता, जो अपने सहवर्गियों के जुल्म से दुखी होकर मंगल की शरण आ पड़ा था। दोनों एक ही खाना खाते, एक ही टाट पर सोते, तबियत भी दोनों की एक-सी थी और दोनों एक-दूसरे के स्वभाव को जान गये थे। कभी आपस में झगड़ा न होता।'
बराबरी का अहसास
मंगल को बराबरी का अहसास सिर्फ और सिर्फ टामी के पास मिलता है। जिस भारतीय गाँव को आदर्श माना जाता है, उसमें मंगल के लिए जगह कहाँ है?'गाँव के धर्मात्मा लोग बाबूसाहब की इस उदारता पर आश्चर्य करते। ठीक द्वार के सामने पचास हाथ भी न होगा मंगल का पड़ा रहना उन्हें सोलहों आने धर्म-विरुद्ध जान पड़ा। छि:! यही हाल रहा, तो थोड़े ही दिनों में धर्म का अन्त ही समझो। भंगी को भी भगवान् ने ही रचा है, यह हम भी जानते हैं। उसके साथ हमें किसी तरह का अन्याय न करना चाहिए, यह किसे नहीं मालूम? भगवान् का तो नाम ही पतित-पावन है; लेकिन समाज की मर्यादा भी कोई वस्तु है! उस द्वार पर जाते हुए संकोच होता है। गाँव के मालिक हैं, जाना तो पड़ता ही है; लेकिन बस यही समझ लो कि घृणा होती है।'
'’क्यों रे मंगल, खेलेगा।’
मंगल बोला, ‘ना भैया, कहीं मालिक देख लें, तो मेरी चमड़ी उधेड़ दी जाय। तुम्हें क्या, तुम तो अलग हो जाओगे।‘
सुरेश ने कहा, ‘तो यहाँ कौन आता है देखने बे? चल, हम लोग सवार-सवार खेलेंगे। तू घोड़ा बनेगा, हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके दौड़ायेंगे ?’
मंगल ने शंका की, ‘मैं बराबर घोड़ा ही रहूँगा कि सवारी भी करूँगा ? यह बता दो।‘
यह प्रश्न टेढ़ा था। किसी ने इस पर विचार न किया था। सुरेश ने एक क्षण विचार करके कहा, ‘तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठायेगा, सोच ?’
‘आखिर तू भंगी है कि नहीं ?’
मंगल भी कड़ा हो गया। बोला, ‘मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हें मेरी ही माँ ने अपना दूध पिलाकर पाला है। जब तक मुझे भी सवारी करने को न मिलेगी, मैं घोड़ा न बनूँगा। तुम लोग बड़े चघड़ हो।
आप तो मजे से सवारी करोगे और मैं घोड़ा ही बना रहूँ।‘'
फिर झगड़ा होता है:
'तीनों ने मंगल को घेर लिया और उसे जबरदस्ती घोड़ा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके बोला, ‘चल घोड़े, चल !’
मंगल कुछ देर तक तो चला, लेकिन उस बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी। उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया। सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे। माँ ने सुना, सुरेश कहीं रो रहा है। सुरेश कहीं रोये, तो उनके तेज कानों में जरूर भनक पड़ जाती थी और उसका रोना भी बिलकुल निराला होता था, जैसे छोटी लाइन के इंजन की आवाज। महरी से बोली, ‘देख तो, सुरेश कहीं रो रहा है, पूछ तो किसने मारा है।‘
इतने में सुरेश खुद आँखें मलता हुआ आया। उसे जब रोने का अवसर मिलता था, तो माँ के पास फरियाद लेकर जरूर आता था।
वह शिकायत करता है कि मंगल ने उसे छू दिया। माँ दांत पीस कर रह जाती है।
'मारतीं तो उसी दम स्नान करना पड़ता। छड़ी तो हाथ में लेनी ही पड़ती और छूत का विद्युत-प्रवाह इस छड़ी के रास्ते उनकी देह में पैवस्त हो जाता, इसलिए जहाँ तक गालियाँ दे सकीं, दीं और हुक्म दिया कि – ‘अभी-अभी यहाँ से निकल जा। फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आयी, तो खून ही पी जाऊँगी। मुफ्त की रोटियाँ खा-खाकर शरारत सूझती है,’ आदि।
मंगल अपना टाट बोरिया उठा लेता है।
मंगल में गैरत तो क्या थी, हाँ, डर था। चुपके से अपने सकोरे उठाये, टाट का टुकड़ा बगल में दबाया, धोती कंधों पर रखी और रोता हुआ वहाँ से चल पड़ा। अब वह यहाँ कभी न आयेगा। यही तो होगा कि भूखों मर जायेगा। क्या हरज है ? इस तरह जीने से फायदा ही क्या ? गाँव में उसके लिए और कहाँ ठिकाना था? भंगी को कौन पनाह देता ? उसी खंडहर की ओर चला, जहाँ भले दिनों की स्मृतियाँ उसके आँसू पोंछ सकती थीं और खूब फूट-फूटकर रोया। उसी क्षण टामी भी उसे ढूँढ़ता हुआ पहुँचा और दोनों फिर अपनी व्यथा भूल गये।'
दिन बीत जाता है। जैसे-जैसे वक्त बीतता जाता है, भूख हावी होती जाती है,
'लेकिन ज्यों-ज्यों दिन का प्रकाश क्षीण होता जाता था, मंगल की ग्लानि भी क्षीण होती जाती थी। बचपन को बेचैन करने वाली भूख देह का रक्त पी-पीकर और भी बलवान होती जाती थी। आँखें बार-बार कसोरों की ओर उठ जातीं। वहाँ अब तक सुरेश की जूठी मिठाइयाँ मिल गयी होतीं। यहाँ क्या धूल फाँके ? उसने टामी से सलाह की ख़ाओगे क्या टामी ? मैं तो भूखा लेट रहूँगा। टामी ने कूँ-कूँ करके शायद कहा, ‘इस तरह का अपमान तो जिन्दगी भर सहना है। यों हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा? मुझे देखो न, कभी किसी ने डण्डा मारा, चिल्ला उठा, फिर जरा देर बाद दुम हिलाता हुआ उसके पास जा पहुँचा। हम-तुम दोनों इसीलिए बने हैं, भाई !’'
‘दूध का दाम’
भूख की प्रेमचंद के कथा साहित्य में बड़ी भूमिका है। इन दो वाक्यों को ध्यान से पढ़िए,
'बचपन को बेचैन करने वाली भूख देह का रक्त पी-पीकर और भी बलवान होती जाती थी।'
और
'इस तरह का अपमान तो जिन्दगी भर सहना है। यों हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा ?'
फिर टामी और मंगल के बीच बात होती है। प्रेमचंद की कहानियों में कुत्ते, बैल, गाय आदमियों की तरह ही अहम पात्र हैं।
आखिर में मंगल जूठन के लिए पुराने ठौर पर जाता ही है:
कुछ देर तक वह निराश-सा वहाँ खड़ा रहा, फिर एक लम्बी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल में थाली का जूठन ले जाता नजर आया। मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया। अब मन को कैसे रोके?
कहार ने कहा, ‘अरे, तू यहाँ था ? हमने समझा कि कहीं चला गया। ले, खा ले; मैं फेंकने ले जा रहा था।‘
मंगल ने दीनता से कहा, ‘मैं तो बड़ी देर से यहाँ खड़ा था।‘'
'तो बोला, क्यों नहीं ?'
'मारे डर के।'
'अच्छा, ले खा ले।'
उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया। मंगल ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा, जिसमें दीन कृतज्ञता भरी हुई थी।
कहानी का अंत। यह अंत भी प्रेमचंद ही कर सकते थे:
'दोनों वहीं नीम के नीचे पत्तल में खाने लगे। मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा, ‘देखा, पेट की आग ऐसी होती है ! यह लात की मारी हुई रोटियाँ भी न मिलतीं, तो क्या करते ?’ टामी ने दुम हिला दी।
'सुरेश को अम्माँ ने पाला था।'
टामी ने फिर दुम हिलायी।
'लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।'
टामी ने फिर दुम हिलायी।'
अपनी राय बतायें