प्रेमचंद को लेकर साहित्यवालों में कई बार दुविधा देखी जाती है। उनका साहित्य प्रासंगिक तो है लेकिन क्यों? क्या ‘गोदान’ इसलिए प्रासंगिक है कि भारत में अब तक किसान आत्महत्या कर रहे हैं? या दलितों पर अत्याचार अभी भी जारी है, इसलिए ‘सद्गति’ और ‘ठाकुर का कुआँ’ प्रासंगिक है? क्या ‘रंगभूमि’ इसलिए पढ़ने योग्य बनी हुई है कि किसानों की ज़मीन कारखाने बनाने के लिए या ‘विकास’ के लिए अभी भी जबरन ली जा रही है? इस तरह प्रेमचंद को पढ़ने की आदत-सी बन गई है।
प्रेमचंद 140 : 11वीं कड़ी : 'गोदान' प्रासंगिक क्योंकि अब भी किसान कर रहे हैं आत्महत्या?
- साहित्य
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- 8 Aug, 2020

प्रेमचंद समाज के संगठन को बदलने की आवश्यकता समझते हैं। वह जानते हैं कि अकेले व्यक्ति का भलापन काफ़ी नहीं। लेकिन उनके ध्यान के केंद्र में आख़िरकार वह मनुष्य ही है, जो अपनी जन्म स्थिति से बंधा हुआ, जो उन परिस्थितियों से आबद्ध है जो उसने नहीं बनाईं, लेकिन जो उसे परिभाषित करती हैं... प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष शृंखला, 11वीं कड़ी।