दुष्यंत कुमार की कुछ पक्तियां रह-रह कर याद आती हैं-
अर्थव्यवस्था की हालत ऐसी कि दिवाली से बेड़ा पार लगने की आस?
- अर्थतंत्र
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- 29 Mar, 2025

वित्त मंत्रालय के ताज़ा आँकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती का प्रवेश हो चुका है। आंकड़े बताते हैं कि गांवों में तो उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बनी हुई है लेकिन शहरी मांग घटती जा रही है। तो क्या अब लक्ष्मीजी बेड़ा पार करेंगी?
‘न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए’।
जी हां, जिस तरह अर्थव्यवस्था की कमजोरियाँ रह-रहकर सामने आ जाती हैं और फिर दुनिया में सबसे तेज विकास और पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने के दावे होते हैं (और सामान्य ढंग से उस पर विश्वास भी किया जाता है) वह बताता है कि सरकार के दावों और आंकड़ों को जाँचने परखने और अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर उन पर शक करने का काम आम लोगों ने ही नहीं, मीडिया ने भी छोड़ दिया है। सभी श्रद्धा-भाव से नत है- कमीज न हो तो पाँव से पेट ढककर भी संतुष्ट हैं।
कई धनात्मक और ऋणात्मक सूचनाओं के बीच जब यह खबर आई कि कारों की बिक्री थमने लगी है और कंपनियां अपने उत्पाद पर भारी डिस्काउंट देकर अपना स्टॉक हल्का करना चाहती हैं तब भी किसी का ध्यान खास नहीं गया। डिस्काउंट दस दस लाख का है- जाहिर है कारें भी सत्तर अस्सी लाख की होंगी। फिर जब शेयर बाजार भहराकर गिरा तब भी कभी हिंडनबर्ग को विलेन बनाने की कोशिश की गई कभी अमेरिकी बैंकिंग नीति को। निर्यात में कमी की रिपोर्ट आती है तो यूरोप में मांग घटने और अमेरिका में व्यापार संबंधी बाड ऊंची करने को दोष दिया जाता है। करखनिया उत्पादन घटाने को भी खास परेशानी का कारण नहीं माना जाता।