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आबादी बढ़ाने की राजनीति, आख़िर मक़सद क्या है?

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। भले ही उन्होंने भाजपा के साथ चुनाव लड़ा हो लेकिन जैसे ही केंद्र की सरकार बनवाने में तेलुगु देशम पार्टी की भूमिका महत्वपूर्ण हुई उन्होंने भरपूर और लाभप्रद सौदेबाजी करने से परहेज नहीं किया। केंद्र में मलाईदार मंत्रालयों के साथ अपने प्रदेश के लिए अच्छा खासा आर्थिक पैकेज भी उन्होंने मार लिया। अब आर्थिक अपराधों के सारे मुकदमे, जो भाजपा द्वारा उन पर दबाव डालने का हथकंडा माने जाते थे, वापस कराके उन्होंने फिर से अपनी राजनैतिक और सौदेबाजी वाली शक्ति का प्रदर्शन किया है। पर इधर तिरुपति के लड्डुओं में चर्बी की मिलावट का सवाल उठाकर उन्होंने जिस राजनैतिक दांव को मारा उसकी व्याख्या और उसके असर को अभी तक समझने की कोशिश हो रही है। कोई वाईएसआर कांग्रेस इसी आंध्र में ताकतवर थी, यह समझना मुश्किल है। 

इस चर्बी कांड ने केंद्र सरकार और भाजपा के लिए भी उलझने पैदा कीं और इसे उठाने की नायडू की मंशा अब भी सवालों के घेरे में है। पर अब हिंदुओं या तिलंगी लोगों द्वारा आबादी बढ़ाने का आह्वान करके उन्होंने जो नया शिगूफ़ा छोड़ा है वह शतरंज के घोड़े की ढाई घर की चाल जैसा है और इसके निशाने को समझना आसान नहीं है। भाजपा और संघ परिवार के नेता मुसलमानों पर निशाना साधते हुए आबादी घटाने के उपायों की बात करते हैं तो नायडू ने यह उलटी बात कर दी है।

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नायडू ने अपनी बात के लिए राज्य की आबादी में बुजुर्गों का बढ़ता अनुपात कारण बताया और यह चिंता प्रकट की कि राज्य जल्दी ही दूसरे राज्यों के लोगों पर निर्भर होगा। अभी यह बात ढंग से समझ आए इससे पहले ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. स्टालिन ने हिंदुओं द्वारा सोलह-सोलह संतान पैदा करने की बात उठा दी। उन्होंने धर्मग्रंथों में वर्णित पुरुषार्थ के अनुसार इतनी संतति की बात की जबकि डीएमके हिन्दू धर्मग्रंथों के बारे में शायद ही कभी आदर से बोलता हो। और इस तर्क का हलकापन भी वैसे ही है जैसे नायडू द्वारा आबादी के बुढ़ाने का। 

जल्दी ही यह बात समझ आने लगी कि ये दोनों ने संसदीय क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण में आबादी को आधार बनाने से दक्षिण के प्रदेशों की सीटें कम होने की आशंका को उभारकर अपने पक्ष में लोगों को गोलबंद करने और केंद्र तथा उत्तर भारतीयों पर दबाव बनाने की रणनीति से ऐसा बोल रहे हैं। अगली जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से संसदीय क्षेत्रों का पुनर्गठन होना है और यह माना जा रहा है कि उसमें दक्षिण के प्रदेश कुछ घाटे में रहेंगे और आबादी के ज्यादा तेज विकास वाले राज्य फायदे में रहेंगे। अब यह और बात है कि जनगणना और सीटों का पुनर्गठन (तथा महिला आरक्षण) कब तक होगा, यह सवाल अनुत्तरित ही है।

भारत नौजवानों का देश माना जाता है और जिस आबादी को कभी बोझ माना जाता था आज उसे सबसे कीमती संसाधन माना जाने लगा है। यह बदलाव देखते देखते हुआ और भारत ने चीन की तरह कड़ाई (अपने यहां आपातकाल में जरूर कड़ाई हुई थी) के बगैर जिस तेजी से आबादी के विकास दर को कम किया है और अब लगभग दो फीसदी पर ला दिया है वह दुनिया को हैरान करता है। 
औसत छह से दो के विकास दर पर आने में यूरोप और विकसित देशों को ढाई सौ साल से ज़्यादा लगे जबकि हमने यह लक्ष्य पचास साल से कम अवधि में हासिल किया है।
पर आज अपनी बुजुर्ग आबादी की देखभाल और देश की आर्थिक गतिविधियों को संभालने वाली नौजवान आबादी की जो चिंता पश्चिम के विकसित देशों में व्यापक है वह हमारे यहां भी शुरू हो तो इसे शुभ माना जा सकता है। यह अनुमान है कि अगले पंद्रह सालों में दक्षिण के प्रांतों की आबादी में प्रत्येक सौ में साठ से ज्यादा लोग बुजुर्ग होंगे जबकि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान में यह अनुपात 39 फीसदी रहेगा। मध्य और पूर्वी भारत का अनुपात और कम होगा क्योंकि अभी वहां जन्म दर दो से ज्यादा है और आबादी में नौजवानों का हिस्सा ज्यादा है।
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अब इस गणित या ज्ञान को ज्यादा आगे ले जाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि हमारे राजनेता आज इतनी दूर की नहीं सोचते। उनको तात्कालिक लाभ की राजनीति करना ज्यादा सुहाता है भले इससे समाज को दीर्घकालिक नुकसान हो जाए। पहले की नीतियों और दक्षिण के राज्यों को मिले अपेक्षाकृत बेहतर शासन के चलते वहां की आबादी का विकास दर कम हुआ है, स्वास्थ्य के पैमानों पर वे बेहतर साबित हुए हैं और वहां साक्षरता भी ज्यादा है। इस मामले में केरल दक्षिण का ही नहीं पूरे देश का नेता है। 

आबादी दर घटाने के भी लाभ हुए हैं और संसाधनों पर बोझ कम होने से भी सामाजिक लाभ के अनेक कार्यक्रम सफलतापूर्वक चले हैं। इससे ठीक उलट हिन्दी पट्टी अंग्रेजी शासन में तो ज्यादा लूटी-पिटी ही, अब भी वह घोर पिछड़ेपन का शिकार है। सामाजिक और आर्थिक विकास के सारे पैमानों पर वे काफी नीचे हैं और उन्हें बाजाप्ता बीमारू कहा ही जाता है। जाहिर तौर पर इसका नुकसान वहां के लोगों, खासकर गरीब लोगों को उठाना पड़ता है। और आबादी का कोई भी जानकार बता देगा कि स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा के अभाव के साथ ही गरीबी का भी आबादी के तेज विकास के साथ सीधा रिश्ता है।

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और जब चंद्रबाबू या स्टालिन या आम दक्षिणी नेता को संसद में दक्षिण की सीटें घटाने और हिन्दी पट्टी और ओडिशा की सीटें बढ़ाने का गणित समझ आ जाता है तो उनको यह सीधी बात क्यों नहीं समझ आती कि कोई भी व्यक्ति वोट बढ़ाने और लोकसभा में सीट बढ़ाने के लिए बच्चे पैदा नहीं करता, अपने बच्चों को इतनी जलालत नहीं झेलवाता और अगर वह ज्यादा बच्चे पैदा करता है तो अपने लिए, अपने परिवार के बेहतर और सुरक्षित भविष्य के लिए करता है। जहां शासन यह जिम्मा लेने लगता है वहां आबादी की वृद्धि कम होने लगती है। अपने यहां भी यह हुआ है और बिना सख्ती के जिस तेजी से हमारी आबादी बढ़ाने की रफ्तार में गिरावट आई है वह आबादी विज्ञान के जानकारों को हैरान करती है। इसलिए अगर संघ परिवार इस सवाल को उठाता है तो वह भी उसकी ध्रुवीकरण की राजनीति का नतीजा है और अगर स्टालिन-नायडू ऐसा करते हैं तो अपने शासन की विफलताओं को ढकना, अपना वोट बैंक ठोस करना और एक दिखावटी शत्रु खड़ा करके अपनी राजनीति चमकाना ही उद्देश्य है।

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अरविंद मोहन
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