लोकतंत्र में चुनाव बहुत बड़ी चीज है। और अगर मामला चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के मुख्य भूमिका में होने का हो तब चुनाव और भी बड़ी चीज बन जाती है। इसे देखना-समझना हो तो मौजूदा दो विधान सभाओं, महाराष्ट्र और झारखंड ही नहीं देश भर में हो रहे उपचुनावों को भी देखना चाहिए। कायदे से उप चुनावों का ज्यादा मतलब नहीं होता और कहीं सहानुभूति तो कहीं उम्मीदवार के दम के आधार पर निर्णय हो जाता है। लेकिन इस बार जो उप चुनाव उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में हो रहे हैं उनमें भाजपा (और विपक्ष ने भी) ने सारा जोर लगाया है।
बिहार में तो काफी समय से जमीनी स्तर पर जुटे प्रशांत किशोर के जन सुराज द्वारा उम्मीदवार उतारने से मुकाबले दिलचस्प बने हैं तो उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भाजपा सचमुच युद्ध स्तर पर लगी हुई है। जाने कब से एक एक सीट पर कई-कई मंत्रियों को लगाया गया है और माना जा रहा है कि कुछ स्थानीय फ़ीड-बैक के बाद ही भाजपा से जुड़े लोगों ने चुनाव को एक हफ्ता टालने का प्रयास शुरू किया जिसे चुनाव आयोग ने मान लिया। वैसे, आयोग ने हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधान सभाओं के चुनाव के साथ ये उप चुनाव क्यों नहीं कराए यह भी एक बड़ा प्रश्न बना हुआ है। और महाराष्ट्र तथा झारखंड के चुनाव भी साथ क्यों नहीं कराए गए यह सवाल तो एक राष्ट्र, एक चुनाव के अभियान पर सवाल खड़े कर ही रहा है।
झारखंड में कम लेकिन महाराष्ट्र में टिकट बांटने और बागियों को संभालने में भाजपा और शिवसेना को जितना पसीना बहाना पड़ा उससे कुछ अंदाजा तो लगता ही है कि भाजपा नेतृत्व इस अनुशासनहीनता या अराजकता को अन्य राज्यों में पसरने देना नहीं चाहता था। ऐसी अफरातफरी हरियाणा में दिखी, एक हद तक जम्मू-कश्मीर में भी हल्ला हुआ, लेकिन एक साथ महाराष्ट्र जैसा हंगामा सब जगह होता तो अनुशासित और काडर आधारित पार्टी होने का भाजपा का दावा और मोदी-शाह का इकबाल कहां ठहरता। और भले ही भाजपा तथा मोदी-शाह का मिशन कश्मीर धरातल पर आ गया लेकिन हरियाणा की अप्रत्याशित जीत ने कुछ हद तक मोदी-शाह का इकबाल फिर से बुलंद किया है, लोकसभा चुनाव के नतीजों से चिहुँका मीडिया फिर से राग मोदी अलापने लगा है।
इसलिए महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव को कुछ समय लेकर कराने का फैसला भाजपा को लाभ देता दिखता है। झारखंड में शिवराज चौहान और हिमंत बिस्व सरमा की जोड़ी ने काफी ग्राउंडवर्क किया है। उधर महाराष्ट्र की महायुती सरकार ने भी वोट बटोरने के उद्देश्य से कई लोक लुभावन कार्यक्रम शुरू किए हैं जिनका लाभ उसे मिलेगा।
हेमंत और झारखंड के साथ भाजपा नेतृत्व जो व्यवहार करता रहा है उससे आदिवासियों में जो गुस्सा रहा है वह कितना कम होगा यह कहना अभी भी मुश्किल है। फिर राज्य में मुसलमान और ईसाई आबादी का अनुपात ठीकठाक होना भी भाजपा के लिए चिंता की लकीर खींचता है।
महाराष्ट्र में भाजपा अपने एक स्टार योगी आदित्यनाथ का एक नारा लेकर आई है-बंटेंगे तो कटेंगे। लेकिन भाजपा या उसकी अगुआई वाली महायुती हिन्दू-मुसलमान सवाल को चुनाव में सबसे ऊपर ला पाएगी, इसमें शक है। बल्कि लेख लिखे जाने तक भी एनसीपी के नवाब मालिक मैदान में डटे हैं जिन्हें भाजपा दाऊद का आदमी बता रही है और जिनके खिलाफ़ काफी मामले चल रहे हैं। वे जेल में भी रहे हैं। पहले उनकी बेटी को उनकी सीट देकर इस विवाद पर परदा डालने की कोशिश हुई लेकिन न मालिक झुके न अजित पवार। साफ लग रहा है कि कम्यूनल डिस्कोर्स की जगह जाति का डिस्कोर्स ऊपर रहेगा। इस गठबंधन के बागी भी ज्यादा संख्या में डटे हैं और भाजपा ने इस बीच राज्य की राजनीति में अपने सभी मराठा नेताओं को किनारे लगा दिया है। सो उधर के नेता एकनाथ शिंदे शरद पवार और पृथ्वीराज चौहान और पटोले जैसे नेताओं के आगे टिकेंगे यह कहना जल्दबाजी होगी। गुजरात महाराष्ट्र में जो रिश्ता रहा है उसमें मोदी और शाह महाराष्ट्र में बाकी जगहों की तरह प्रभावी होंगे, इसमें शक है। इसलिए भी महाराष्ट्र का चुनाव ज्यादा दिलचस्प हो गया है।
अपनी राय बतायें