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लोक लुभावन घोषणाओं को फ्रीबीज या रेवड़ी क्यों कहें!

अभी तक इंग्लिश शब्द फ्रीबीज का अनुवाद कहीं खैरात नजर नहीं आया है। खैरात खाने या लेने को बुरा माना जाता है- पहले तो बहुत बुरा माना जाता था और अब भी माना जाता है। इसमें खैरात देने वाले को पुण्य मिलने और खाने वाले को उसके पापों में हिस्सेदारी आ जाने का भाव माना जाता है। चुनाव के समय दिए जाने वाले लोक लुभावन सरकारी खैरात या सरकार बनने पर दिए जाने वाले लाभों के वायदे को अंग्रेजी में फ्रीबीज कहा जाता है और मीडिया ने उसके अर्थ के काफी आसपास का शब्द रेवड़ी इस्तेमाल करना शुरू किया है। 

सरकारें और राजनैतिक दल खैरात का प्रयोग करने से बचें, यह तो स्वाभाविक है क्योंकि वे क्यों स्वीकार करेंगे कि वे अपने पापों का बोझ हल्का करने के लिए ऐसे क़दम उठा रहे हैं या उसका वायदा करके चुनाव लड़ रहे हैं। मीडिया अगर ज्यादा ईमानदार होता तो राजनेताओं और सरकारों की इच्छा की परवाह न करता। दक्षिण की राजनीति में, खासकर तमिलनाडु में फ्रीबीज का चलन काफी समय से था लेकिन देश के स्तर पर कोरोना के दौर में सरकार द्वारा पाँच किलो मुफ़्त राशन देने के फैसले के बाद इसका चलन अचानक बढ़ा है क्योंकि कोरोना के बाद हुए चुनाव में भाजपा को इस फैसले का लाभ मिलने का रुझान बहुत साफ दिखा।

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पर कोरोना के समय गरीब लोगों को राशन उपलब्ध कराना और साथ ही अनाज से भरे सरकारी गोदामों में खाद्यान्नों को सड़ाने की जगह बांटने का विकल्प बहुत बढ़िया था। और अगर बोनस में नरेंद्र मोदी और भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी तो उससे किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए। अगर लॉक-डाउन का फैसला गलत था और उससे खास तौर से प्रवासी मजदूरों को बहुत कष्ट हुआ तो अनाज बांटने का सही फैसला करने का श्रेय भी देना चाहिए। लेकिन एक बार चुनावी लाभ देख लेने के बाद लगातार मुफ़्त अनाज बांटने का फैसला निश्चित रूप से राजनीति का हिस्सा है और इसको अलग नजरिए से देखना चाहिए। 

यह अलग बात है कि उसके बाद से महिलाओं को, बेरोजगारों को, दलितों-आदिवासियों को, किसानों को (मुफ़्त बिजली और कर्ज माफी समेत) बेहतर खरीद मूल्य देने, सालाना सहायता देने और कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना, न जाने किस किस तरह के लाभ देने की घोषणा करने करने की होड़ शुरू हो गई। और हालत यह हो गई कि कई जगहों से इन वायदों को पूरा करने लायक बजट न होने, योजनाओं के बीच में लटकने और शुरू भी न हो पाने की ख़बरें आनी शुरू हो गई हैं। इनसे और कुछ हुआ या नहीं भाजपा और कांग्रेस को एक दूसरे पर औकात से ज्यादा बड़े वायदे करने और वादाखिलाफ़ी करने का आरोप लगाने का अवसर मिल गया। वायदों की राजनीति एक है और वादाखिलाफ़ी की राजनीति दूसरी।

लेकिन यह गंभीर मसला है और इसे सिर्फ राज्यों या केंद्र के बजट, घाटे, कर्ज जैसे राजकोषीय प्रबंधन वाली शब्दावली में उलझाना गलत है, खैरात (राजनेताओं के अपराधबोध और पाप का भागीदार बनकर उनको माफ कर देना अर्थात रेवड़ी पाकर वोट देना) का तत्व होने के बावजूद इनको खैरात या मुफ़्त की रेवड़ी कहना गलत है और बड़े बड़े वायदे करने वाले राजनेताओं को हल्का मान लेना गलत है। हमारे यहां यह सब वायदे और फैसले बड़ी पार्टियां, बड़े नेता और केंद्र तथा राज्य सरकारें कर रही हैं। और इनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो आज वायदे करे, कल वोट ले और परसों रफूचक्कर हो जाए। 
अगर 2014 के चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी ने अच्छे दिन लाने के नाम पर बहुत बड़े बड़े वायदे किए और उन हवाई वायदों का एक अंश भी पूरा नहीं हुआ तो वे आज भी उन सवालों से नजर चुराते हैं।
आज तक एक भी खुला संवाददाता सम्मेलन न करने के पीछे उन वायदों से जुड़े सवालों से बचना मुख्य कारण है जबकि उनके सबसे भरोसेमंद साथी इस बीच धीरे से उनको जुमला करार दे चुके हैं। और इस बड़ी असफलता या गलती के बावजूद लोगों के बीच उनकी विश्वसनीयता इतनी है कि जब वे किसानों को साल में छह हजार रुपए देने का वायदा करते हैं (और देते हैं) तो लोग उस पर भरोसा करते हैं और राहुल गांधी द्वारा छह हजार रुपए प्रति माह देने के वायदे पर भरोसा नहीं करते। और अगर कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे अपनी कांग्रेस सरकार से पूरा कर सकने लायक वायदे की नसीहत देते हैं तो वे कोई पार्टीद्रोह नहीं कर रहे हैं- यह एक तरह का कोर्स-कारेक्शन है। लोकतंत्र में गलतियां सुधारना एक बड़ा गुण है।
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पर दिन ब दिन मोदी जी का ग्राफ नीचे आ रहा है और राहुल का ऊपर तो उसमें इन चुनावी वायदों और चालाकियों का भी हाथ है। हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस की जीत और लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन की बेहतर सफलता के पीछे उनके वायदों पर बढ़ता भरोसा और मोदी जी तथा भाजपा की बातों पर घटता भरोसा भी कारण है। मोदी के खिलाफ एन्टी इंकम्बेन्सी भी होगी ही। अगर रोज अनगिनत ड्रेस बदलने वाले और साढ़े आठ हजार करोड़ के विमान में यात्रा करने वाले और हर टूर पर पचासेक करोड़ से ज्यादा खर्च करने वाले मोदी जी फ्रीबीज की घोषणा करते हैं तो उसमें गरीबों, बेरोजगारों, औरतों और किसानों के लिए ज्यादा कुछ न करने का अपराधबोध भी होगा। राहुल लाख झोपड़ियों में जाएं, मोची का काम सीखें, रोडसाइड सैलून में मालिश कराएं लेकिन उनकी पदयात्रा भी सैकड़ों वातानुकूलित छावनियों और बसों-गाड़ियों वाली ही होती है। गरीब दलित/आदिवासी के घर पहुँचने पर उनके मन में भी अपराधबोध या अब तक की कांग्रेसी नीतियों की सीमाएं समझ आती होंगी। उनको मोदी जी की गलतियां दिखती हैं और मनमोहन सरकार की न दिखती हों, यह नहीं हो सकता।

और यह सोचने के बाद अगर हम फ्रीबीज पर विचार करेंगे तो ये खैरात, रेवड़ी और नेताओं/दलों का गैर जबाबदेही वाला वायदा भर नहीं लगेगा। तब यह इन चीजों के हल्के प्रभाव भर का मामला दिखेगा। साफ लगेगा कि यह हमारी अब तक चली सरकारी नीतियों की विफलता का एक कोर्स करेक्शन है। यह सरकारों द्वारा अपनी नाकामी स्वीकारना है। अगर नई आर्थिक नीतियां हमारे योजनाबद्ध विकास के समाजवादी मॉडल या मिश्रित अर्थव्यवस्था की विफलता से पैदा हुई लगेंगी तो यह बदलाव डाइरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर का लगेगा। और हैरानी नहीं कि कथित विकास के बड़े बड़े दावों और योजनाओं के बाद जब गरीब ग्रामीण औरत के हाथ में हजार पंद्रह सौ रुपए भी ठोस रूप में आते हैं, साल में एक या दो सिलिन्डर गैस सस्ता मिल जाता है, राशन का अनाज कम दाम पर मिलता है तो उसे जेनुइन खुशी लगती है। इस खुशी में वह राजनीति का आगा-पीछा सोचने की जगह ऐसा लाभ देने वाली पार्टी को वोट दे आती है तो आप उसको न लोभी कहें न पाप का भागीदार। वह असल में कथित विकास और योजनाओं का मारा हुआ है। सब कुछ गँवाकर अब उसे यही मिल रहा है तो आप उसे फ्रीबीज या रेवड़ी मत कहिये।

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अरविंद मोहन
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