हिंदी सिनेमा आज एक गहरे संकट से जूझ रहा है। यह संकट है सेंसर बोर्ड की तानाशाही का। ख़ासतौर पर जाति उत्पीड़न या भेदभाव के ख़िलाफ़ बनी फ़िल्मों को सेंसर करने का। हाल ही में फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप ने इस मुद्दे को जोरदार तरीक़े से उठाया, जब महात्मा ज्योतिबा फुले पर बनी एक फ़िल्म पर सेंसर बोर्ड की कैंची चली। अनुराग की नाराजगी केवल इस एक फ़िल्म तक सीमित नहीं थी; उन्होंने संतोष और धड़क-2 जैसी फ़िल्मों का भी ज़िक्र किया, जो सेंसर बोर्ड के अपारदर्शी रवैये का शिकार हुईं। लेकिन यह ज़रूरी मुद्दा सोशल मीडिया में अनुराग को ट्रोल करने वालों के साथ हुई उनके गाली-गलौच और इससे पैदा हुए विवाद के नीचे दब गया। 

सेंसर की कैंची: सच्चाई काटने का औज़ार

सेंसर बोर्ड यानी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) का काम फ़िल्मों को प्रमाणपत्र देना है, न कि उनकी आत्मा को काट-छांट करना। सिनेमैटोग्राफ़ एक्ट, 1952 की धारा 5B के तहत, सीबीएफसी को यह सुनिश्चित करना होता है कि फ़िल्में सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के ख़िलाफ़ न हों। लेकिन बोर्ड अक्सर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कटौती थोपता है, खासकर उन फ़िल्मों पर जो जातिगत भेदभाव या सामाजिक अन्याय को उजागर करती हैं। उदाहरण के लिए 2024 में रिलीज होने वाली फ़िल्म ‘संतोष’ को सीबीएफ़सी ने भारत में प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी। ब्रिटिश-भारतीय संध्या सूरी के निर्देशन में बनी यह फ़िल्म जातिगत भेदभाव, पुलिस हिंसा और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों पर रोशनी डालती है। इसे 2025 के ऑस्कर के लिए यूनाइटेड किंगडम की ओर से आधिकारिक प्रविष्टि चुना गया और कान फ़िल्म फेस्टिवल में इसका प्रीमियर हुआ। फिर भी, सीबीएफसी को इसमें पुलिस की नकारात्मक छवि और सामाजिक मुद्दों का चित्रण नागवार गुजरा। निर्माताओं ने सेंसर के सुझाए कट्स को फ़िल्म की मूल भावना के ख़िलाफ़ बताते हुए भारत में रिलीज न करने का फ़ैसला किया।