कल्पना सोरेन
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हेमंत सोरेन
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ये अंदेशा तो पहले से था कि कहीं बीजेपी सीडीएस जनरल बिपिन रावत और उनके साथ दिवंगत हुए दूसरे सैन्य अधिकारियों की शहादत को भुनाने की कोशिश तो नहीं करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनरल रावत की अंत्येष्टि के अगले ही दिन उत्तर प्रदेश में बलरामपुर की चुनावी सभा में इस अंदेशे को सही साबित कर दिया। इस मौक़े पर उन्होंने जनरल रावत की सेवाओं का ज़िक्र करते हुए श्रद्धांजलि दी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनरल रावत को श्रद्धांजलि पहले ही दे चुके थे इसलिए चुनाव के उद्देश्य से आयोजित की गई जनसभाओं में ऐसा करने की ज़रूरत नहीं थी, उल्टे इससे बचा जाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने ऐसा किया क्योंकि वह ऐसा लगातार करते आ रहे हैं। उन्होंने कभी सेना को चुनावी राजनीति से अलग रखने की नैतिक एवं लोकतांत्रिक समझदारी नहीं दिखलाई, बल्कि उसका कैसे उपयोग किया जा सकता है वे इसी जुगत में लगे रहे।
इस हादसे को भावनात्मक रुख़ देकर राष्ट्रोन्माद पैदा करने की कोशिशें बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं। जनरल रावत की क़ुरबानी को घर-घर तक ले जाने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं। लेकिन ये अभियान उन्हीं राज्यों में चलेगा जहाँ चुनाव होने हैं।
जनरल रावत की मौत दुखद है, राष्ट्रीय क्षति है, लेकिन उनकी मौत को एक दूसरा रूप दिया जा रहा है।
बलरामपुर की चुनावी सभा के पहले दो मौक़ों पर मोदी उत्तर प्रदेश में ही सेना का दुरुपयोग करते देखे गए थे। चीन के लद्दाख में कब्ज़े और जम्मू कश्मीर में आतंकवादी हमलों में इज़ाफ़ा ने प्रधानमंत्री के उस दावे को ध्वस्त कर दिया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में वह और उनकी सरकार अद्वितीय है। इससे उनकी निजी छवि भी खंडित हुई है।
प्रधानमंत्री अब चुनावी भीड़ में सेना की मदद से इसकी मरम्मत करना चाहते हैं। ध्यान रहे भारतीय सेना में सबसे ज़्यादा सैनिक उत्तर प्रदेश से ही जाते हैं। सेना में यूपी की हिस्सेदारी लगभग 14.5 फ़ीसदी है। दूसरे वे राष्ट्रवाद को उभारकर अपनी और योगी सरकार की नाकामियों को ढँकना भी चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने सैन्य प्रदर्शन के लिए उत्तर प्रदेश को चुना।
आत्मनिर्भरता की आड़ में उन्होंने पूर्वांचल एक्सप्रेस वे के उद्घाटन के मौक़े पर एयर शो करवाया। मोदी यहाँ पर सी-130 ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट से नाटकीय अंदाज़ में उतरे और फिर 45 मिनट तक वायुसेना के विमान करतब दिखाते रहे। वे चुनाव के लिए सेना का इस्तेमाल कर रहे थे।
सेना के चुनावी इस्तेमाल की दूसरी ख़तरनाक़ कोशिश 17-18 नवंबर को झाँसी में हुई। “आज़ादी का अमृत महोत्सव” के तहत “राष्ट्रीय रक्षा समर्पण पर्व” का आयोजन करके बहुत सारी रक्षा योजनाएँ देश को समर्पित की गईं। ग़ौर कीजिए कि ये आयोजन रक्षा मंत्रालय और उत्तर प्रदेश सरकार ने मिलकर किया था। इस पर्व को चुनावी पर्व के साथ मिलाकर देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि सेना और बीजेपी की जुगलबंदी किसलिए थी।
यहाँ यह भी देखने वाली बात थी कि राष्ट्रीय रक्षा समर्पण पर्व भी पहली बार ही आयोजित किया गया था। इसके पहले इस तरह के आयोजन नहीं किए जाते थे। नए हथियारों या जहाज़ों को सेना में शामिल करने की रस्में रक्षामंत्री के हवाले से की जाती थीं।
दरअसल, मोदी एवं उनकी पार्टी को इस बात की चिंता नहीं है कि सेना के राजनीतिक इस्तेमाल के क्या ख़तरे हैं। ख़तरे को वो अपनी रणनीति का हिस्सा बना चुके हैं। सेना और सरकार के घालमेल के ज़रिए अंधराष्ट्रवाद का प्रचार-प्रसार करना और सत्ता पर पकड़ को मज़बूत करना उनका फॉर्मूला है। यही वज़ह है कि मोदी कभी सरहद पर जाकर तो कभी सैन्य वेशभूषा पहनकर सेना को तुष्ट करने में लगे रहते हैं।
कौन भूला होगा कि पुलवामा हमले और फिर बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक को मोदी और उनकी पार्टी ने 2019 के चुनाव में किस निर्लज्जता के साथ भुनाया था।
घर में घुसकर मारेंगे वाली भाषा का इस्तेमाल प्रधानमंत्री ने इसी चुनाव में किया था और इसका फ़ायदा उठाकर दोबारा सत्ता पाने में कामयाब रहे थे।
लोगों की याददाश्त कमज़ोर रहती है इसलिए बताना ज़रूरी है कि 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले 2016 में भी मोदी सरकार ने एक सर्जिकल स्ट्राइक की थी। इसके ज़रिए मोदी ने अपने 56 इंच छाती वाली छवि को मज़बूत करने की कोशिश की थी और उस समय इसमें कामयाब भी रहे थे। बीजेपी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर पिछले प्रधानमंत्री से उनकी तुलना करके उनकी महानता को स्थापित करने की भरसक कोशिश की थी।
कहने का मतलब यह है कि सेना को सत्ता और चुनावी राजनीति का हथियार बनाया जा रहा है। सैन्य अधिकारियों की मानसिक संरचना ऐसी होती है कि उसमें सैन्य राष्ट्रवाद के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है। इसलिए अगर वे हिंदुत्ववादी विचारधारा की तरफ़ झुक जाएँ तो हैरत नहीं होनी चाहिए। दूसरे, सरकार ने उन्हें भी सत्ता का लालच देना शुरू कर दिया है। यानी रिटायर होकर वे बीजेपी की बाँह पकड़कर सरकार में महत्वपूर्ण पद हासिल कर सकते हैं।
सत्ता और सेना की इस दुरभिसंधि के कई ख़तरे और भी हैं। ये दोनों के ऐसे कारनामों पर परदा डालने में मदद करेगी जिन्हें देशवासियों को जानना चाहिए। सेना के बहुत सारे अधिकारी इस निकटता पर ऐतराज़ जता रहे हैं। नागरिक समाज में भी इसको लेकर चिंता है। मगर जब सत्ता को उनकी कोई परवाह ही न हो तो कोई क्या कर सकता है।
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