बीसवीं सदी के यूरोप का इतिहास बताता है कि फासीवादी शक्तियों को मज़बूत करने में मध्यमार्गी दलों की बड़ी भूमिका रही है। जर्मनी हो या इटली, हर जगह मध्यमार्गी दलों ने लगातार ऐसा रुख़ अख़्तियार किया जिससे फासीवादी ताक़तों का रास्ता हमवार हुआ।
फासीवाद से लड़ाई में कितने प्रतिबद्ध हैं मध्यमार्गी दल?
- देशकाल
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- 29 Mar, 2025

बात केवल कांग्रेस और ममता की ही नहीं है। वैचारिक दिग्भ्रम और अवसरवाद के इस जहाज़ में शरद पवार से लेकर अखिलेश, मायावती, केजरीवाल तक सबके सब सवार हैं। ऐसे में इनके राजनीतिक विवेक या फासीवाद से लड़ाई में इनकी प्रतिबद्धता पर कितना यक़ीन किया जा सकता है, ये विचारणीय है।
इन मध्यमार्गी दलों की दो बड़ी कमज़ोरियाँ देखी गईं। पहली तो ये कि इनका वैचारिक आधार बहुत ही खोखला था, जिससे वे तय ही नहीं कर पाती थीं कि उन्हें किनके साथ खड़े होना है। वे अकसर उन राजनीतिक दलों का भी विरोध करने लगती थीं जो कि फासीवाद के सबसे प्रखर विरोधी थे और हर तरह की क़ुर्बानियाँ दे रहे थे।
दूसरे, वे महाअवसरवादी थे। दबाव और प्रलोभन में वे किसी भी तरफ़ झुक जाते थे। जर्मनी में वे हिटलर के ख़िलाफ़ लड़ने के बजाय धीरे-धीरे या तो खामोश हो गए या फिर उसके साथ हो गए। इससे हिटलर की ताक़त बढ़ती चली गई।