बीसवीं सदी के यूरोप का इतिहास बताता है कि फासीवादी शक्तियों को मज़बूत करने में मध्यमार्गी दलों की बड़ी भूमिका रही है। जर्मनी हो या इटली, हर जगह मध्यमार्गी दलों ने लगातार ऐसा रुख़ अख़्तियार किया जिससे फासीवादी ताक़तों का रास्ता हमवार हुआ।
इन मध्यमार्गी दलों की दो बड़ी कमज़ोरियाँ देखी गईं। पहली तो ये कि इनका वैचारिक आधार बहुत ही खोखला था, जिससे वे तय ही नहीं कर पाती थीं कि उन्हें किनके साथ खड़े होना है। वे अकसर उन राजनीतिक दलों का भी विरोध करने लगती थीं जो कि फासीवाद के सबसे प्रखर विरोधी थे और हर तरह की क़ुर्बानियाँ दे रहे थे।
दूसरे, वे महाअवसरवादी थे। दबाव और प्रलोभन में वे किसी भी तरफ़ झुक जाते थे। जर्मनी में वे हिटलर के ख़िलाफ़ लड़ने के बजाय धीरे-धीरे या तो खामोश हो गए या फिर उसके साथ हो गए। इससे हिटलर की ताक़त बढ़ती चली गई।
भारत में फासीवादी ताक़तों के विकास का क़िस्सा इससे कुछ अलग नहीं है। किसी भी मध्यमार्गी पार्टी का चरित्र देख लीजिए उनमें ये दोनों तत्व आपको ख़ूब देखने को मिलेंगे। समाजवादियों का पंचान्वे फ़ीसदी हिस्सा अगर बीजेपी में समा गया है तो इसीलिए। अधिकांश क्षेत्रीय दल भी इन्हीं बीमारियों के शिकार हैं।
सबसे बड़ी मध्यमार्गी पार्टी कांग्रेस भी वास्तव में एक अवसरवादी गठजोड़ है, जो बहुत जल्द फासीवाद के दबाव में आ जाती है। नेहरू के काल में और फिर इमरजेंसी के पहले तक कांग्रेस किसी तरह धर्म निरपेक्षता को संभालती रही, मगर फिर वह फिसलती चली गई। पहले इंदिरा गाँधी बहुसंख्यकवादी राजनीति पर उतरीं और फिर राजीव गाँधी। पंजाब के खालिस्तानी अलगाववाद और अयोध्या विवाद (शाहबानो प्रकरण में भी) में उन्होंने ऐसी भूमिकाएँ लीं जिनसे सांप्रदायिक ताक़तों को मज़बूती मिली और वे अपने फासीवादी अभियान को आज के मोड़ तक लाने में कामयाब रहीं।
ममता बनर्जी के शीर्षासन को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उन्होंने अचानक कांग्रेस विरोधी रवैया अख़्तियार करके उन तमाम लोगों को झटका दे दिया है जो मानते थे कि बंगाल में बीजेपी को हराने के बाद वे विपक्षी एकता का मज़बूत खंभा बनेंगी। शुरुआत में उन्होंने ऐसे संकेत भी दिए अब अलग राह पकड़ ली है और ये राह उन्हें विपक्ष को कमज़ोर करने की दिशा में ले जाती है।
ममता बनर्जी ने ख़ास तौर पर अपने कांग्रेस विरोधी रुख़ से न केवल विपक्षी एकता की संभावनाओं को धक्का पहुँचाया है, बल्कि खुद को भी संदिग्ध बना लिया है। उनकी इस पैंतरेबाज़ी से निश्चय ही बीजेपी को ही लाभ होने जा रहा है, क्योंकि एक बार फिर विपक्षी एकता मज़ाक बनती दिख रही है।
क्या ममता बनर्जी ने मोदी-शाह से हाथ मिला लिया है और कांग्रेस को निपटाने की सुपारी ले ली है? क्या उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों में फँसे अभिषेक बनर्जी और पार्टी के दूसरे नेताओं को बचाने के लिए कोई सौदा कर लिया है? क्या उन्हें सौदे के एवज़ में बंगाल के विकास का कोई पैकेज दिया गया है जिसमें अदानी के द्वारा मोटा निवेश शामिल है?
Delighted to meet @MamataOfficial, Hon'ble Chief Minister Mamata Banerjee.
— Gautam Adani (@gautam_adani) December 2, 2021
Discussed different investment scenarios and the tremendous potential of West Bengal. I look forward to attending the Bengal Global Business Summit (BGBS) in April 2022. pic.twitter.com/KGhFRJYOA4
ये तमाम सवाल ममता बनर्जी के नए अभियान को लेकर उठ रहे हैं। इनके सही जवाब अभी किसी के पास नहीं हैं। हो सकता है कि आने वाले चंद महीनों में मिलें। लेकिन दो बातें तो साबित होती ही हैं। पहली ये कि उनकी वैचारिक समझ में ये स्पष्टता नहीं है कि उन्हें किससे लड़ना है। वे बड़ी पिक्चर देख नहीं पा रही हैं या फिर फासीवाद से लड़ना उनकी प्राथमिकता में नहीं है।
वास्तव में पश्चिम बंगाल में उन्होंने जिस तरह से अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम किया वह भी इसी वैचारिक विभ्रम को पुष्ट करता है। उन्होंने वामपंथी दलों और कांग्रेस दोनों को समूल नष्ट करने का अभियान चलाकर बीजेपी के लिए रास्ता तैयार किया और उसी का नतीजा है कि आज वहाँ 77 सीटों के साथ मुख्य या एकमात्र विपक्षी दल है। विधानसभा चुनाव में भी वे फासीवादी ताक़तों से नहीं, बल्कि अपनी सत्ता बचाने के लिए लड़ रही थीं। ये गिर पड़े तो ‘हर हर गंगे’ वाला मामला ज़्यादा था।
फिर बंगाल में उनका दस साल का शासन भी बहुत लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता। वे विपक्षी दलों और आलोचकों के ख़िलाफ़ उसी तरह से या उससे थोड़ा कम दमनकारी रही हैं जैसा कि नरेंद्र मोदी गुजरात में। ये निरंकुश प्रवृत्ति बड़े पदों पर पहुँचने के साथ-साथ बढ़ती चली जाती है।
दूसरा मुद्दा अवसरवाद का है। ये अवसरवाद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का है। कहा जा रहा है कि वे राष्ट्रीय स्तर पर खुद को प्रोजेक्ट करना चाहती हैं और 2024 में प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनना चाहती हैं।
इस तरह की महत्वाकांक्षा पालना राजनीति में कोई बुरी या अनपेक्षित बात नहीं है। मगर उसके लिए विपक्षी एकता को दाँव पर लगाते हुए चाहे-अनचाहे फासीवाद को मज़बूत करना काबिल-ए-ऐतराज़ ज़रूर है।
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि प्रशांत किशोर की भी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे मोदी से लेकर ममता तक हर तरह की विचारधारा वाले व्यक्ति के लिए काम करते रहे हैं। वे कभी भी पलट सकते हैं और क्या पता मोदी के एजेंट के तौर पर ही विपक्ष को ध्वस्त करने के मिशन पर हों?
दरअसल, मध्यमार्गी दल फासीवाद की ख़ुराक़ हैं।
बात केवल कांग्रेस और ममता की ही नहीं है। वैचारिक दिग्भ्रम और अवसरवाद के इस जहाज़ में शरद पवार से लेकर अखिलेश, मायावती, केजरीवाल तक सबके सब सवार हैं। ऐसे में इनके राजनीतिक विवेक या फासीवाद से लड़ाई में इनकी प्रतिबद्धता पर कितना यक़ीन किया जा सकता है, ये विचारणीय है।
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