पिछले कुछ वर्षों से ये लगातार प्रचारित किया जा रहा है कि बीजेपी पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को जोड़ने में कामयाब रही है और उसकी राजनीतिक सफलता की सबसे बड़ी नहीं तो एक महत्वपूर्ण वज़ह ये भी है। कहा ये जा रहा है कि पचासों साल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठन इन वर्णों और वर्गों को जोड़ने की मुहिम में जुटे हुए थे। उनकी इन अनवरत् कोशिशों का परिणाम ही था कि बीजेपी केंद्र और उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करने में कामयाब हुई।
इस सफलता को हिंदुत्व की विजय के तौर पर भी प्रस्तुत किया जाने लगा था। संघ पर विशेषज्ञता का दावा करने वाले यहाँ तक कहने लगे थे कि इस काम में संघ को सौ साल लगे लेकिन आख़िरकार कामयाबी मिल गई और धीरे-धीरे वे जातियाँ बीजेपी से जुड़ गईं जो पहले दूसरे दलों से जुड़ी हुई थीं।
इसे एक स्थायी परिघटना के तौर पर पेश किया जाने लगा था और मज़े की बात ये है कि बहुत से ऐसे राजनीतिक विश्लेषकों ने इस निष्कर्ष को स्वीकार भी कर लिया। वे इस आधार पर संघ की ताक़त का भी बखान करने लगे। वे यहाँ तक कहने लगे कि संघ पचास साल आगे की सोचता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों के नेताओं की भगदड़ ने इस पूरे नैरेटिव को धराशायी कर दिया है।
इसमें संदेह नहीं कि संघ परिवार ने बीजेपी का वोटबैंक बढ़ाने के लिए काम नहीं किया या वह पूरी तरह से विफल हो गया। अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की खातिर उसने तमाम तरह की रणनीतियों पर काम किया, हथकंडे आज़माए और उनमें से एक ये भी थी। इसके लिए उसने बीजेपी के राजनीतिक चरित्र में भी बदलाव किया, भले ही वह दिखावटी रहा हो।
कुछ बदलाव बीजेपी ने खुद नहीं किए, बल्कि बदलती राजनीति ने बलपूर्वक उससे करवाया। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने का सबसे मुखर विरोध करने वाली पार्टी वही थी। उसके सवर्ण नेतृत्व को ये मंज़ूर ही नहीं था कि निचली जातियाँ ऊपर उठें और उनकी बराबरी करें। लेकिन राजनीतिक मजबूरी थी जिसकी वज़ह से बाद में उसे मंडल का समर्थक भी बनना पड़ा और आंबेडकर का जयगान भी करना पड़ा।
हम ये भी जानते हैं कि आज भी बीजेपी दिल से आरक्षण को स्वीकार नहीं कर पाई है और उस व्यवस्था को ध्वस्त करने के उपाय करने में जुटी रहती है। पिछले सात साल में उसने कई ऐसे प्रयास किए हैं जिनका असर आरक्षण पर पड़ा है।
ये मंडल का ही दबाव था कि विभिन्न राज्यों में ग़ैर सवर्ण जातियों के नेता उभरे और उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठाना पड़ा। लेकिन जब कभी भी उसने उनकी अनदेखी की, उसे उसके परिणाम भी भुगतने पड़े। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को परे धकेलने का नतीजा ये हुआ था कि पार्टी रसातल में चली गई। 2017 में जब केशव मौर्या का चेहरा दिखाकर चुनाव लड़ा तो उसे विशाल बहुमत मिला लेकिन जब उनके साथ धोखा हुआ तो अब पिछड़ी जातियाँ उससे मुँह मोड़ रही हैं।
सीधी सी बात ये है कि ग़ैर सवर्ण जातियाँ बीजेपी से जुड़ीं तो सत्ता में हिस्सेदारी के लिए और उससे अलग हुईं तो सत्ता की तलाश में। वे हिंदुत्व के आकर्षण से नहीं जुड़ी थीं, वे ब्राम्हणवादी वर्चस्व को स्वीकार नहीं कर रही थीं। लेकिन बीजेपी और संघ के समर्थक इसे हिंदुत्व की सफलता के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। वे ये बता रहे थे कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए वह हिंदुओं को एकजुट होने में कामयाब हो रहे हैं।
मैंने पहले राजनीतिक परिस्थितियों का ज़िक्र किया था। बीजेपी की सफलता के पीछे जातियों का गठबंधन बनाने में उसकी कामयाबी भर नहीं थी, बल्कि राजनीति में आए वे परिवर्तन भी थे जिनकी वज़ह से एक बड़ा वर्ग उससे जुड़ा। इस वर्ग में न केवल ग़ैर सवर्ण जातियाँ थीं बल्कि सवर्णों के भी वे हिस्से थे जो उससे छिटके हुए थे।
सन् 2014 में ये राजनीतिक परिवर्तन मनमोहन सरकार की भ्रष्ट छवि और उसके ख़िलाफ़ चले आंदोलन थे। इसमें अन्ना आंदोलन प्रमुख था, जिसे संघ परिवार ने एक तरह से हाईजैक कर लिया था।
उस समय देश एक विकल्प चाहता था और चूँकि कोई दूसरी पार्टी वह विकल्प नहीं दे सकी इसलिए उसका लाभ बीजेपी ने उठाया। 2019 में पुलवामा और फिर बालाकोट की एयरस्ट्राइक का राजनीतिक फ़ायदा उसे मिला, न कि किसी जाति समीकरण के चलते।
इसी तरह 2017 के उत्तर प्रदेश के चुनावों को भी देखा जा सकता है। अखिलेश सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी थी और उस समय तक मोदी की लोकप्रियता भी चरम पर थी। इन दो कारकों ने बीजेपी को सबसे ज़्यादा लाभ पहुँचाया। बेशक़ पिछड़ी जातियों के साथ किए गए गठबंधन से भी उसे फ़ायदा हुआ। लेकिन ध्यान रहे वह अस्थायी गठबंधन था। ये दल बीजेपी में समाहित नहीं हो गए थे या उन्होंने हिंदुत्व को स्वीकार नहीं कर लिया था।
दरअसल, जाति व्यवस्था से निपटने की संघ की जो रणनीति है उसमें ज़बर्दस्त खोट है। वह जाति व्यवस्था को बनाए रखकर जातियों में सामंजस्य कायम करना चाहता है। इसे उसने समरसता का जुमला दिया है। लेकिन अब पिछड़ी और दलित जातियों में अत्यधिक जागरूकता आ चुकी है। वे इस तरह भरमाए नहीं जा सकतीं।
वे संघ परिवार की ब्राम्हणवादी संरचना और उसके लक्ष्यों से वाकिफ़ हैं और जानती हैं कि उन्हें वह इस्तेमाल तो करना चाहता है मगर बदले में कुछ नहीं देना चाहता। इसके विपरीत उनको वही उसी रूप में रखना चाहता है, जो मनुवाद कहता है। वे अब प्रतीकात्मक नहीं वास्तविक भागीदारी चाहती हैं और बराबरी से चाहती हैं। वे अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर आगे बढ़ाना चाहती हैं, न कि हिंदुत्व की सेना बनाकर सवर्णों की हितपूर्ति का साधन।
ऐसे में साफ़ है कि संघ और संघ समर्थकों के तमाम प्रचार के बावजूद हिंदुत्व के छल-छद्म काम नहीं करेंगे। इसलिए बेहतर होगा कि कम से कम वे विश्लेषक जातीय समरसता के हिंदुत्ववादी नैरेटिव को समझें और उससे पिंड छुड़ाएं क्योंकि वह फासीवादी एजेंडे की मदद कर रहा है।
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