पंजाब के अजनाला में पिछले दिनों घटी घटना मामूली नहीं है। जिस तरह से खालिस्तान की मांग फिर से उठी है, वो हिन्दू राष्ट्र की मांग का संदर्भ याद दिलाता है। क्या मजहबी कट्टरता की अंतिम मंजिल किसी राष्ट्र की मांग होती है।
बीजेपी जातीय समरसता की बात करती रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले पिछड़ी जातियों के नेताओं की भगदड़ ने क्या इस पूरे नैरेटिव को धराशायी नहीं कर दिया है?
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना 13 अगस्त को रिटायर होने जा रहे हैं। इस लिहाज़ से उनके पास कुल सात महीने बचे हैं। इन सात महीनों में क्या वह लोकतंत्र, स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों से जुड़े कुछ ऐतिहासिक फ़ैसले लेंगे?
बीजेपी के हिंदुत्व से क्या विपक्षी दल भी घबराए हुए हैं और वे भी राजनीति के हिंदूकरण की वैचारिकी को आगे बढ़ाने में लगे हैं? आख़िर राहुल गांधी भी यह क्यों कह रहे हैं कि भारत में हिंदुओं का राज होना चाहिए?
क्या सेना की शहादत या सेना के शौर्य का चुनावी रैली में किसी भी तरह का राजनीतिक इस्तेमाल सही हो सकता है? प्रधानमंत्री चुनावी रैली में जो कर रहे हैं उस पर आख़िर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आख़िर एक साल में भी किसानों को क्यों नहीं समझा पाए? वह भी तब जब वार्ता से लेकर लाठीचार्ज तक का सहारा लिया गया, सड़कें खोदी गईं, दीवार खड़ी की गई। आख़िर कहां कमी रह गई?