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माफ़ कीजिए सीजेआई रमना, केवल बोलना ही काफ़ी नहीं है!

क्या ये अपेक्षा भी जायज़ नहीं है कि जो एक दर्ज़न मामले सुप्रीम कोर्ट ने पिछले तीन-चार साल से ठंडे बस्ते में डाल रखे हैं, कम से कम उन्हें निकालकर सुनवाई तो शुरू करे। ये तमाम मामले लोकतंत्र, स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों से जुड़े हैं, जिनकी रक्षा का दायित्व सुप्रीम कोर्ट का है।
मुकेश कुमार

छह जनवरी को जस्टिस एन वी रमना को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बने नौ महीने हो जाएंगे। इन नौ महीनों में जस्टिस रमना ने सुप्रीम कोर्ट के बारे में आम धारणा को काफ़ी बदला है। उनसे पहले के प्रधान न्यायाधीशों (दीपक मिश्रा, रंजन गोगोई, एस.ए. बोबडे) ने जिस तरह से व्यवहार किया था, उससे न्याय व्यवस्था में लोगों की आस्था को ज़बर्दस्त धक्का लगा था। लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगे थे कि जिस तरह से सरकार ने दूसरी संवैधानिक संस्थाओं को कमज़ोर करके अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल करने का साधन बना लिया है, वैसे ही अब न्यायपालिका भी उसके नियंत्रण में चली गई है।

ज़ाहिर है कि अब ऐसी स्थिति नहीं है। मगर ऐसा भी नहीं है कि संदेह के बादल पूरी तरह से छँट गए हैं और लोग मानने लगे हैं कि सुप्रीम कोर्ट तो पूरी तरह से स्वतंत्र होकर काम कर रहा है। लेकिन ये तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जस्टिस रमना एक हद तक उसकी साख को वापस लाने में कामयाब हो गए हैं।

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पहले की तरह अब पहले से ये कयास लगाना मुश्किल रहता है कि फलाँ मामले पर सुप्रीम कोर्ट का रुख़ क्या होगा। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की कुछ बेंच के निर्णयों को लेकर संदेह भी पैदा हुए हैं, मगर कुल मिलाकर मिश्रा, गोगोई और बोबडे वाली स्थिति तो नहीं है।

सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की खुली बेअदबी भले न की हो मगर उसने मनमाने ढंग से काम करने की मंशा को छिपाने की ज़रूरत भी नहीं समझी है।

इसके बावजूद चाहे वह कोरोना के टीकाकरण का मामला हो या पेगासस का, सुप्रीम कोर्ट ने सख़्ती दिखाई है और सरकार जो चाहती थी, नहीं होने दिया है। सरकार के कामकाज और व्यवहार को लेकर उसने ऐसी सख़्त टिप्पणियाँ की हैं, जिनकी मौजूदा माहौल में अपेक्षा तक नहीं की जा सकती थी। एकाध अपवाद छोड़कर जजों की नियुक्तियों के सवाल पर भी जस्टिस रमना सरकार के सामने तनकर खड़े दिखाई दिए हैं।

और ये एक-दो बार नहीं हुआ है, बल्कि निरंतर चल रहा है। ख़ास तौर पर जस्टिस रमना बहुत बेबाकी दिखा रहे हैं। उनकी टिप्पणियों ने मोदी सरकार की जमकर फज़ीहत की है और उसके निरंकुश चरित्र को और भी बेहतर ढंग से उजागर किया है। जस्टिस रमना कार्यपालिका और मीडिया को लेकर भी उसी तरह से सख़्ती दिखा रहे हैं। 

लेकिन इन सकारात्मक संकेतों के बावजूद अभी ये नहीं कहा जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की अंतरात्मा को जगा दिया है या वह न्याय की आवाज़ बन गया है।

इसकी कई वज़हें हैं। सबसे बड़ी वज़ह तो ये है कि वे जितना बोल रहे हैं, उतना करते हुए नहीं दिख रहे हैं। उनकी सक्रियता ज़्यादातर ज़ुबानी है, वह अदालती कार्यवाहियों में नहीं दिख रही है। 

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उदाहरण के लिए हाल में हरिद्वार की कथित धर्म संसद का मामला ले लें, जहाँ मुसलमानों के नरसंहार का खुल्लमखुल्ला आह्वान किया गया और शस्त्र उठाने का संकल्प दिलाया गया। क्या सुप्रीम कोर्ट को इसका स्वयं संज्ञान लेकर सरकार को कार्रवाई करने के लिए दबाव नहीं डालना चाहिए था। दूसरा मामला कोरोना की तीसरी लहर की बढ़ती आशंकाओं के बीच हो रही विशाल रैलियों को रोकने के मामले में उसकी चुप्पी का है।

जस्टिस बोबडे के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने जो ग़लतियाँ की थीं, क्या वही अब का सुप्रीम कोर्ट नहीं कर रहा है? अचानक लॉकडाउन और उसके बाद लाखों मज़दूरों के पलायन के दर्दनाक दृश्यों के बावजूद बोबडे सरकार के बचाव में खड़े रहे थे। अगर रमना ने सुप्रीम कोर्ट को बदल दिया है तो ऐसी संवेदनहीनता क्यों? ऐसे और भी कई मामले गिनाए जा सकते हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की वाज़िब गुंज़ाइश थी मगर वह नहीं हुई। 

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मान लिया कि सुप्रीम कोर्ट हर जगह दखलंदाज़ी करने नहीं पहुँच सकता, मगर जहाँ संवैधानिक अधिकारों पर सीधी चोट की जा रही हो, वहाँ तो उसे आगे बढ़कर पहल करनी ही होगी। ख़ास तौर पर ऐसे समय जब पुलिस, प्रशासन, मानवाधिकारों से जुड़ी संस्थाएं और चुनाव आयोग तक अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से कतरा रहे हों। 

ये कोई न्यायिक सक्रियतावाद या जुडीशियल एक्टिविज्म का सवाल नहीं है, जिससे जस्टिस रमना को बचना चाहिए (हालाँकि ये समय की मांग है कि सुप्रीम कोर्ट थोड़ा एक्टिव्ज्म दिखाए), बल्कि न्यायिक ज़िम्मेदारी का मसला इससे जुड़ा है। अगर देश के सामने अंतिम उम्मीद के रूप में सुप्रीम कोर्ट ही बचा हो तो क्या सुप्रीम कोर्ट उससे मुँह फेर लेगा?

नहीं, अगर ऐसा हुआ तो ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा, न केवल न्यायपालिका के लिए बल्कि लोकंतत्र, संविधान और देश के लिए भी।

भविष्य में अगर देश किसी व्यक्ति या किसी धर्म विशेष के लोगों की तानाशाही में तब्दील होता है तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को भी कसूरवार ठहराया जाएगा।

लेकिन यदि हम जस्टिस रमना से इतनी उम्मीद नहीं कर सकते या नहीं करना चाहिए तो क्या ये अपेक्षा भी जायज़ नहीं है कि जो एक दर्ज़न मामले सुप्रीम कोर्ट ने पिछले तीन-चार साल से ठंडे बस्ते में डाल रखे हैं, कम से कम उन्हें निकालकर सुनवाई तो शुरू करे। ये तमाम मामले लोकतंत्र, स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों से जुड़े हैं, जिनकी रक्षा का दायित्व सुप्रीम कोर्ट का है।

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इनमें धारा 370 को हटाए जाने, नागरिकता संशोधन क़ानून, इलेक्टोरल बांड, सूचना के अधिकार को सीमित करने, यूएपीए और राजद्रोह क़ानून के दुरुपयोग जैसे दूरगामी प्रभाव वाले मामले शामिल हैं। फ़ेहरिस्त और भी लंबी हो सकती है, मगर इन पर ही जस्टिस रमना ने अभी तक सुनवाई शुरू करने के लिए भी क़दम नहीं उठाए हैं। इससे लोगों के मन में संदेह पैदा होने लगा है कि कहीं वे केवल बोलकर भ्रम तो पैदा नहीं कर रहे या उनमें साहस की कमी है।

जस्टिस रमना 13 अगस्त को रिटायर होने जा रहे हैं। इस लिहाज़ से उनके पास कुल सात महीने बचे हैं। अब उन्हें तय करना है कि इन सात महीनों को वे केवल सख़्त टिप्पणियाँ और इक्का-दुक्का सरकार विरोधी फ़ैसले लेकर गुज़ार देंगे। अगर वह लोकतंत्र से जुड़े बुनियादी मामलों पर न्याय कर सकें तो सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और विश्वसनीयता दोनों कायम करते हुए इतिहास में एक न्यायप्रिय जज के रूप में दर्ज़ हो जाएंगे।

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