दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए आम आदमी पार्टी (आप) और बीजेपी ने दिन-रात एक किया हुआ है। ‘आप’ तो लोकसभा चुनाव में हार मिलने के बाद ही चुनाव मैदान में उतर आई थी। महिलाओं की बसों में मुफ्त सवारी के अलावा उसने 200 यूनिट तक फ्री बिजली, पानी के सारे पुराने बिल माफ़, बुजुर्गों की तीर्थ यात्रा, किरायेदारों को प्री-पेड मीटर, सीसीटीवी, स्ट्रीट लाइट, वाई-फ़ाई और ऐसी ही कई घोषणाएं करके पहले ही चुनाव का बिगुल बजा दिया था। आज उसके पास अपनी घोषणाओं का पूरा भंडार है और इसे वे अपने पांच साल का काम बताकर जनता से वोट मांग रहे हैं।
सच्चाई यह है कि दिल्ली में बीजेपी हो या कांग्रेस, दोनों के पास इन मुफ्त घोषणाओं का मुक़ाबला करने के लिए कोई जवाब ही नहीं है। न जाने क्यों इन पार्टियों के नेता जनता को यह नहीं समझा पा रहे हैं कि पिछले पांच सालों में दिल्ली में एक भी स्कूल नहीं खुला, एक भी कॉलेज नहीं खुला, एक भी नया फ्लाई ओवर का प्रोजेक्ट नहीं आया और न ही यह समझा पा रहे हैं कि मुफ्तखोरी के इस चक्कर में दिल्ली का विकास रुक गया है। अगर बीजेपी और कांग्रेस के नेता इस बात को कहते भी हैं तो जनता मुफ्त की सुविधाओं से इतनी आत्ममुग्ध नज़र आती है कि वह यह सब समझना ही नहीं चाहती।
यह भी सच्चाई है कि बीजेपी या कांग्रेस के नेता दिल्ली की जनता को यह नहीं बता पा रहे हैं कि केजरीवाल दिल्ली में मुफ्त सुविधाएं बांटकर वोट हासिल करने की जिस नीति पर चल रहे हैं, वह वोटरों को दूसरे रास्ते से ख़रीदने की कोशिश ही है। दिल्ली की जनता से यह नहीं पूछा जा रहा है कि आपको विकास चाहिए या फिर बिलों में पांच-सात सौ रुपये का फायदा।
शायद बीजेपी के नेताओं को ऐसा लग रहा था कि उन्हें दिल्ली में ज्यादा कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसलिए कि उनके सामने ऐसे कई मुद्दे थे जिनके आधार पर वे जीत की आस लगाए बैठे थे।
दिल्ली के बीजेपी नेताओं को यह उम्मीद भी थी कि वे महाराष्ट्र और हरियाणा में बड़ी जीत हासिल करेंगे और उसका असर दिल्ली पर भी पड़ेगा लेकिन यहां भी पासा उल्टा पड़ गया। इसके बाद बीजेपी नेताओं की नजर अयोध्या विवाद के फ़ैसले पर थी। जब अयोध्या का फ़ैसला आ गया और चारों तरफ ‘जय श्रीराम’ का नारा गूंजने लगा तो दिल्ली के बीजेपी नेताओं को लगने लगा कि अब तो काम बन गया। लेकिन दिल्ली तो क्या झारखंड के चुनाव में भी इसका कोई असर नहीं हुआ और यह मुद्दा भी हाथ से निकल गया।
‘आप’ के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल को यह पता था कि अगर दिल्ली में चुनाव दिल्ली के मुद्दों पर हुए तो फिर उन्हें कोई नहीं हरा सकता। इसलिए उन्होंने ताबड़तोड़ इतनी घोषणाएं कर दीं और कोशिश की कि दिल्ली का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों के इर्द-गिर्द न जा पाए।
कांग्रेस खुलकर शाहीन बाग़ समेत नागरिकता क़ानून के विरोध में चल रहे विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रही है। अगर दिल्ली में मुसलिम वोटर कांग्रेस के पक्ष में चला गया तो कांग्रेस भले ही नहीं जीते लेकिन लोकसभा चुनाव की तरह आम आदमी पार्टी को मात ज़रूर मिल सकती है।
अगर नागरिकता संशोधन क़ानून का मुद्दा चल गया तो इसके बाद बीजेपी को बजट से भी उम्मीदें हैं। जैसी कि ख़बरें आ रही हैं, बजट में मध्य वर्ग को इनकम टैक्स में भारी राहत दी जा सकती है। अगर ऐसा हुआ तो फिर दिल्ली का मध्य वर्ग भी अभिभूत होकर बीजेपी के पक्ष में जा सकता है।
लब्बो-लुआब यही है कि दिल्ली बीजेपी ने केजरीवाल का मुक़ाबला करने के लिए अपनी तरफ से कुछ नहीं किया। वह केंद्र और हाईकमान के फ़ैसलों की तरफ़ ताकती रही। उसे लग रहा है कि अगर भाग्य से छींका टूट जाए तो फिर मलाई भी खाने को मिल जाएगी। अब देखना यही है कि जनता इस छींके को किसके पक्ष में तोड़ती है।
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