मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की दो-सदस्यीय बेंच ने इशारों-इशारों में वह सब कह दिया जो पिछले कुछ दिनों से मीडिया का एक तबक़ा कहने की कोशिश कर रहा था लेकिन साफ़-साफ़ नहीं कह पा रहा था। न्यायमूर्ति विनीत शरण और भूषण गवई की इस बेंच ने कलकत्ता हाई कोर्ट की एक दो सदस्यीय बेंच की भूमिका पर उँगली उठाई है जिसने पिछले दिनों नारद कांड के अभियुक्तों की ज़मानत पर रिहाई को रोकने के मामले में 'असाधारण फुर्ती’ दिखाई। इस बेंच ने सीबीआई की ‘पक्षपातपूर्ण’ भूमिका पर भी सवाल किया।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या-क्या कहा और उसका क्या मतलब है, यह जानने से पहले संक्षेप में समझ लें कि मामला क्या है। मामला है 2016 में जारी एक स्टिंग विडियो का जिसमें सत्तारूढ़ तृणमूल के कुछ नेता मैथ्यू सैम्युअल नामक एक खोजी पत्रकार और उनके एक साथी से पैसे लेते देखे गए थे।
सीबीआई को सौंपी जाँच
राज्य की तत्कालीन तृणमूल सरकार ने इस मामले की जाँच में कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई बल्कि मैथ्यू के ख़िलाफ़ ही मामले दर्ज कर दिए। तब कलकत्ता हाई कोर्ट ने 2017 में सीबीआई को इसकी जाँच सौंपी। सीबीआई तब से इस मामले की जाँच कर रही है जिसमें एकमात्र सबूत 52 घंटों की वह वीडियो फ़ुटेज है जिसमें ये नेता पैसे लेते देखे गए हैं। सीबीआई इन पैसों को रिश्वत बता रही है जबकि तृणमूल नेता उसे चंदा ठहरा रहे हैं।
इस बीच दो बड़े नेता जो इन वीडियो में थे, तृणमूल से बीजेपी में चले गए। उनमें से पहले हैं मुकुल रॉय जो 2017 में बीजेपी में शामिल हुए और दूसरे शुभेंदु अधिकारी जो पिछले साल बीजेपी में गए।
टीएमसी नेताओं की गिरफ़्तारी
सीबीआई के सामने समस्या थी कि अगर वह सबके ख़िलाफ़ जाँच जारी रखती है तो उसमें बीजेपी के नेता भी फंदे में आ सकते हैं। इसलिए सालों तक जाँच में विशेष प्रगति नहीं हुई। मगर चुनाव आने से पहले बाक़ी जाँच एजेंसियों के साथ-साथ वह भी अति-सक्रिय हो गई और राज्यपाल जगदीप धनकड़ से विवादास्पद अनुमति लेकर दो मंत्रियों समेत चार नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया।
ममता ने दिया धरना
यह घटना 17 मई की है यानी राज्य में तृणमूल कांग्रेस की नई सरकार आने के क़रीब दो सप्ताह बाद की। राजनीतिक हलक़ों में इसे बदले की कार्रवाई समझा गया और उसकी प्रतिक्रिया में तृणमूल सुप्रीमो और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सीबीआई के ऑफिस पर धरना दे दिया और कहा कि मुझे भी गिरफ्तार करो। वह क़रीब 6 घटों तक वहाँ रहीं। उधर, हज़ारों की संख्या पार्टी कार्यकर्ता और समर्थक भी सड़कों पर आ गये।
इन चार नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद मामला विशेष सीबीआई कोर्ट में गया जहाँ स्पेशल सीबीआई जज अनुपम मुखर्जी ने चारों की अंतरिम ज़मानत यह कहते हुए मंज़ूर कर दी कि जब चार्जशीट दायर हो चुकी है और सीबीआई उनसे पूछताछ भी नहीं करना चाहती तब क्यों उनको हिरासत में रखा जाए।
हाई कोर्ट चली गई सीबीआई
यहीं से कहानी में ऐसा मोड़ आता है जो बहुत-से क़ानूनदानों की समझ से परे है। सीबीआई ने ज़मानत पर रिहाई के आदेश के बावजूद इन चारों को नहीं छोड़ा बल्कि हाई कोर्ट में जाकर मुख्यमंत्री और क़ानून मंत्री की शिकायत की और कहा कि यहाँ हालात इतने बिगड़ गए हैं कि जाँच का काम संभव नहीं है। सीबीआई ने मामला दूसरे राज्यों में ट्रांसफ़र करने की इजाज़त माँगी।
जमानत पर लगाई रोक
ध्यान दीजिए, सीबीआई ने अपने आवेदन में सीबीआई कोर्ट द्वारा दी गई अंतरिम ज़मानत पर रोक की माँग नहीं की थी। यह माँग उसके वकील ने केवल ज़बानी तौर पर की थी और उसी के आधार पर कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल के नेतृत्व वाली हाई कोर्ट की बेंच ने अंतरिम ज़मानत पर रोक लगा दी। कोर्ट ने आदेश में कहा कि जिस तरह न्यायिक प्रक्रिया पर दबाव डालने की कोशिश की गई, उससे लोगों में क़ानून के राज पर से विश्वास उठ जाएगा।
स्पष्ट है कि अंतरिम ज़मानत पर स्टे देने का फ़ैसला सीबीआई या अभियुक्तों के क़ानूनी अधिकारों के आधार पर नहीं बल्कि उस विरोध प्रदर्शन के आधार पर किया गया था जिससे कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नाराज़ दिख रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने धरना-प्रदर्शन के आधार पर दिए गए फ़ैसले पर भी हैरानी जताई।
हाई कोर्ट के इस आदेश से क़ानून के जानकारों को भी हैरत हुई। कारण कई थे। सबसे पहला कारण तो यह कि जब जाँच पूरी हो चुकी हो और किसी तरह की अतिरिक्त पूछताछ की ज़रूरत नहीं हो तो अदालतें आम तौर पर अभियुक्तों को ज़मानत पर रिहा कर ही देती हैं। ख़ासकर तब जब उनके भागने या गवाहों को प्रभावित करने का कोई ख़तरा न हो। विशेष सीबीआई जज ने इसी आधार पर चारों नेताओं की अंतरिम ज़मानत मंज़ूर की थी।
दूसरी बात, अंतरिम ज़मानत पर रोक लगाते समय इन चारों अभियुक्तों की बात नहीं सुनी गई, न ही उनको कोई नोटिस दिया गया। यह उनके अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन था।
सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी बातों का नोटिस लिया और सीबीआई से पूछा - “क्या हाई कोर्ट को देर रात इन चार अभियुक्तों की ज़मानत पर रोक लगाने पर विचार करना चाहिए था? अतीत में ऐसी सुनवाइयाँ हुई हैं जो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी हुई थीं। लेकिन यह हम पहली बार देख रहे हैं कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने के लिए ऐसी सुनवाई हो रही है।”
अदालत ने इस बात पर भी अचरज जताया कि अगले दिन जब अभियुक्तों की तरफ़ से इस स्थगनादेश को वापस लेने की याचिका डाली गई तो दोनों जजों ने अलग-अलग फ़ैसला कैसे दे दिया, एक ज़मानत दे रहा है, दूसरा नहीं दे रहा।
बिंदल का रूख़ अलग
आपको बता दें कि ज़मानत पर रोक लगाने वाली हाई कोर्ट की बेंच में दो जज थे। एक कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बिंदल और दूसरे अरिजीत बनर्जी। अरिजित बनर्जी ने दूसरे दिन की सुनवाई के दौरान कहा भी कि उन्होंने गिरफ़्तारी के दिन हुए हंगामे के कारण ही स्थगनादेश दिया था वरना वे ज़मानत रोकने वाले कौन होते हैं। उन्होंने अंतरिम ज़मानत दे दी मगर बिंदल शायद अब भी नाराज़ थे।
नतीजतन अभियुक्तों की ज़मानत नहीं हुई और उन्हें गृहक़ैदी बनाये रखने का आदेश जारी हुआ। ज़मानत पर अंतिम फ़ैसले के लिए पाँच जजों की एक बेंच गठित हुई जिसमें सुनवाई अभी जारी है।
जैसा कि ऊपर बताया, दो जजों की बेंच ने इन अभियुक्तों को आवासीय क़ैद दी थी, उसी के ख़िलाफ़ सीबीआई सुप्रीम कोर्ट गई थी लेकिन कोर्ट की दो-सदस्यीय बेंच ने उलटे उसी से कई तीखे सवाल पूछ लिए और सीबीआई को अपनी अर्ज़ी वापस लेनी पड़ी।
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दो तरह के अभियुक्त हैं। एक वे जिनके ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हो गई है। दूसरे वे, जिनके ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर नहीं की गई है। गवाहों को प्रभावित करने में ज़्यादा स़क्षम कौन है?
सुप्रीम कोर्ट
मामला पाँच जजों की बेंच के पास
सुप्रीम कोर्ट ने धरने या प्रदर्शन के आधार पर अभियुक्तों की ज़मानत रोकने के फ़ैसले पर भी टिप्पणी की। उसने पूछा, “मुख्यमंत्री के धरने या क़ानून मंत्री के सीबीआई कोर्ट में उपस्थित होने से अभियुक्तों की ज़मानत का फ़ैसला क्यों प्रभावित होना चाहिये? मुख्यमंत्री या क़ानून मंत्री द्वारा धरना दिए जाने या उनके द्वारा क़ानून अपने हाथ में लेने की सज़ा अभियुक्तों को क्यों मिले?’
इन चारों अभियुक्तों की ज़मानत पर सुनवाई अभी हाई कोर्ट की पाँच जजों की बेंच कर रही है जिसमें पिछली बेंच के दोनों जज - बिंदल और अरिजित - भी शामिल हैं। उम्मीद है, अपना फ़ैसला सुनाते समय यह बेंच सुप्रीम कोर्ट के जजों के सवालों और टिप्पणियों पर ग़ौर करेगी।
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